Sampradayikta Aur Hindi Upanyas
हिंदी उपन्यास और सांप्रदायिकता
हिंदी की गद्य विधाएं आधुनिक काल की देन है, जिसके विकास में एक ओर हिंदी भाषा की पृष्ठभूमि रही वही दूसरी ओर आधुनिकता की चेतना ने उसे अभिव्यंजित की शक्ति प्रदान किया है। इसका मूल कारण जहाँ गद्य विधाओं में विषय की व्यापक फलक की प्रस्तुति मिलती है, दूसरी ओर जीवन को समग्रता में व्यापक फलक पर प्रस्तुति का प्रयास भी दिखाई देता है। इस दृष्टि से हिंदी उपन्यास साहित्य अपना विशेष महत्व रखता है। जहाँ कहानियों ने जीवन के छोटे-छोटे संदर्भों को अभिव्यंजित कर चेतना का संचार किया है, वहीं उपन्यास जैसी सशक्त विधा ने भी जीवन को व्यापक फलक पर अभिव्यंजित कर उसकी समस्याओं का निधान प्रस्तुत किया है। इस दृष्टि से देखा जायें तो हिंदी उपन्यास साहित्य जैसी विशिष्ट धारा ने ऐतिहासिक संदर्भों, घटनाओं एवं परिवेश को रचना का आधार बनाते हुए भारतीय समाज में घटित राष्ट्रीय, सामाजिक एवं जातीय विडंबना को परिलक्षित करते हुए भारतीय समाज द्वारा भोगी गयी त्रासदी को उद्घाटित किया।
वास्तव में भारत देश के विभाजन के मूल में आधुनिकता से उत्पन्न मानव की वह अलगाववादी मानसिकता देखी जा सकती है जिसने धर्म और भाषा के नाम पर न केवल मानव समाज को विखंडित किया है अपितु मानव के भीतर पनपने वाली संकीर्ण एवं संकुचित मानसिकता के उस रूप को उजागर करती है जिसने मनुष्य-मनुष्य के बीच अलगाव उत्पन्न कर न केवल मानवीय प्रेम एवं सौहार्द संबंधों को तोड़ा है अपितु मनुष्य के परिवार, समाज एवं देश को भी तोड़ है। मानव की ये मानसिकता न केवल उसकी रक्त पिपासा को उद्भोदित करती है बल्कि उसकी उस पाशविकता को उजागर करती है जिसने मानव समाज को त्रासदी के अंध कुएँ में ठेल दिया, इसका मूल कारण मानव की धर्मान्धता एवं स्वार्थी मानसिकता परिलक्षित होती है। यही कारण है जहाँ अलगाववादी मानसिकता का सीधा संबंध देश विभाजन से रहा है, वहीं त्रासदी का संबंध सांप्रदायिकता से दिखायी देता है।
देश विभाजन और सांप्रदायिकता को केंद्र में रखकर प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में उपन्यास लिखे गए है। कवि और लेखक आम लोगों से अधिक संवेदनशील होते है। लेखक अपने आसपास घटने वाली घटनाओं को केंद्र में रखकर उपन्यासों का लेखन किया है। देश विभाजन त्रासदी और सांप्रदायिकता पूरे देश को दर्द पहुँचाने वाली घटना है। विभाजन और सांप्रदायिकता से अनेक समस्याओं का उद्भव हुआ जैसे:-
पारिवारिक विस्थापन : देश विभाजन के कारण विस्थापन की प्रक्रिया शुरू हुई। परिवार की ओर ध्यान देने के बजाय व्यक्ति अपनी बेरोजगारी से जूझने के कारण परिवार से अलगाव पैदा हो गया परस्पर प्रेम समाप्त हो गया। लेकिन इस समस्या से संबंधित लिखा गया साहित्य घृणा और अलगाव को पैदा करने वाला नहीं बल्कि परस्पर प्रेम को उत्पन्न करने की कोशिश कर रहा है।
‘ओस की बूंद’ में अली बाकर जब अपने पिता बजीर हसन से पाकिस्तान चलकर बसने की बात करता है तो बजीर हसन इन शब्दों में अपने आंतरिक उद्गार प्रकट करता है “मैं एक गुनाहगार आदमी हूँ और सरजमीन मरना चाहता हूँ जिस पर मैंने गुनाह किया है।“1
‘तमस’ उपन्यास में भीष्म साहनी ने जहाँ एक ओर शरणार्थी समस्या को उभारा है वहीं दूसरी ओर पेट की भूख के आगे मानवीय रिश्तों का वर्णन किया है जो खोखली पड़ चुके हैं। शरणार्थी पंडित को अपनी बेटी का पता लग जाने पर भी उसको लेने नहीं जाता। वह कहता है- “हमसे अपनी जान नहीं सम्हाली जाती, बाबूजी, दो पैसे जेब में नहीं है, उसे कहां खिलाएंगे, खुद क्या खाएंगे।“2 अतः भीष्म साहनी दिखाना चाहते है कि पिता बेटी के रिश्ते को भी तिलांजलि दे दी गयी है। शरणार्थियों में ऐसे लोग भी थे जो अपनी मरी घरवाली की लाश से सोने के कड़े उतारना चाहते थे।
‘आधा गाँव’ उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने भी विभाजन के समय रिश्ते-नाते कैसे समाप्त हो गए थे इनका चित्रण किया। अपने ही पराये हो गए थे। परिवार से ही व्यक्ति का मोह, प्रेम समाप्त हो चुका था। ये सब पाकिस्तान बनने के ही कारण था। हकीम साहब बड़े दर्द के साथ कहते है- “ए बशीर ई पाकिस्तान त हिन्दू-मुसलमान को अलग करने को बना रहा। बाकी हम बात ई देख रहे है कि ई मियां-बीबी, बाप-बेटा और भाई-बहन को अलग कर रहा।“3 हकीम साहब के स्वर में दर्द इसलिए है कि उनका पुत्र सद्दन विभाजन के बाद सब कुछ छोड़कर पाकिस्तान चला गया किंतु उसे वहां अपमान मिला।
अतः कहा जा सकता है कि देश विभाजन और सांप्रदायिकता के कारण ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयी थी कि व्यक्ति का परिवार से मोहभंग हो चुका था। खून के रिश्ते समाप्त हो चुके थे। अब व्यक्ति अपने निजी हितों, अपनी रक्षा के बारे में सोच रहा था। परिवार बिखर चुके थे। विभाजन की स्थितियाँ पैदा हो चुकी थी।
मानव मूल्यों का स्खलन : देश विभाजन के समय मानव मूल्यों का स्खलन हो गया था। विभाजन के समय परिस्थितियाँ बदलने लगी थी और परिस्थितियों के बदलने के साथ मूल्य परिवर्तन एवं व्यक्ति की मानसिकता में बदलाव आता है। स्वतंत्रता के समय सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन हुए। बेरोजगारी, संत्रास, भय, अकेलापन, जीव की संवेदनाओं, पारिवारिक विघटन आदि ने व्यक्ति के मूल्यों को समाप्त कर दिया था।
‘कितने पाकिस्तान’ में लेखक को मानव मूल्य तथा सरोकारों के प्रति चिंताग्रस्त दिखाया गया है। उपन्यास के आरंभ से ही चाहे वह युद्ध की समस्या हो, आतंकवाद की समस्या हो, विभाजन की समस्या हो या फिर अन्य कोई भी समस्या मानव सुरक्षा की चिंता प्रमुख रूप से दिखायी देती है।
“सर अगर यह हमला युद्ध में बदल गया, तब तो बड़ा नुकसान होगा दोनों मुल्कों में नुकसान सिर्फ अवाम का होगा इसलिए तो मैं फौरन नजम सेठी से बात करना चाहता हूं।.....क्योंकि पाकिस्तान में उन जैसे अवाम परस्त पत्रकारों की आवाज ही इस खून-ख़राबे को रोकने का माहौल बना सकती है।“4
आधुनिक समय में राजनेताओं के स्वार्थीपन पर शिकंजा कसते हुए वे कहते हैं- “आप लोगों ने पैर में आई मोच तक का इलाज देश के खर्चे पर विदेश में जो १२८ घायल हुए हैं, उन्हें विदेश भेजना तो संभव नहीं होगा, पर देश में ही अच्छे से अच्छे अस्पतालों में उनके उपचार की व्यवस्था कीजिए।“5 आज मनुष्य इतना स्वार्थी हो गया है कि अपने हितों की चिंता में ही व्यस्त है। दूसरों की कोई चिंता नहीं।
अतः दर्शाया गया है कि किस तरह पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक मूल्यों का ह्रास हो चुका था। समाज अस्त व्यस्त था, देश का हर तरफ से पतन तय था। मानव मूल्य ही समाज को सुदृढ़ एवं सशक्त बनाते हैं जिसकी कोशिश समाज ने की लेकिन विभाजन की त्रासदी ने उन्नति की ओर बढ़ने के बजाय, समाज की गति को रोक दिया हो।
धर्मान्धता और शरणार्थियों की समस्या : जैसे-जैसे देश विभाजन दो स्वतंत्र देशों का स्वतंत्रता का क्षण नजदीक आते गया पंजाब, सिंध प्रान्तों की हिन्दू और मुस्लिम जनता में एक प्रकार का भय फैलता गया। विभाजन की कुछ-कुछ रूपरेखा भी तैयार हो गयी थी। फलस्वरूप जो प्रान्त पाकिस्तान का रूप ग्रहण करने वाले थे वहां के हिंदूओं में तथा पंजाब के मुस्लिमों में भय का आतंक फैल गया था। हिन्दू-मुस्लिम जनता की अदला-बदली की कोई योजना तैयार नहीं थी। ऐसे में स्वतंत्रता का सूर्य निकल पड़ा और हिंसा, मारकाट, बलात्कार तथा आगजनी का तांडव नृत्य शुरू हुआ। १४-१५ का दिन भारतीय उपखण्ड में ‘रक्त लांछित’ दिन के रूप में विश्व इतिहास में प्रसिद्ध रहा। यह दिवस कुछ शहरों में बड़े अनोखे ढंग से मनाया गया। “अमृतसर के सारे बाजार कुछ सिख युवक उन मुस्लिम युवतियों को घेर कर खड़े थे जिन्हें वे जबरदस्ती उठा लाये थे और उन्हें पूर्णतः नंगा कर दिया था। उन युवक इन युवतियों को खींच कर ले गए और बारी-बारी से उन पर बलात्कार करने लगे। दूसरी ओर इसी समय लाहौर के मुसलमानों ने वहाँ के सबसे खूबसूरत गुरुद्वारे पर हमला कर दिया। हजारों स्त्री-पुरुषों और बच्चों ने इस विश्वास के साथ गुरुद्वारे में शरण ढूँढ़ी थी कि कोई गुरुद्वारे पर आक्रमण नहीं करेगा। किन्तु थोड़ी ही देर में मुस्लिमों की भीड़ ने गुरुद्वारे को आग लगा दी और जलते गुरुद्वारे के शोलों में पाकिस्तान का पहला स्वतंत्रता दिन मनाया गया।“6 हिंसा और आगजनी के इस तांडव नृत्य हिन्दू जनता को पाकिस्तान छोड़ने के लिए विवश किया। हजारों-लाखों लोग अपने जीवन की सारी पूंजी पाकिस्तान में छोड़कर केवल शरीर के कपड़ों के साथ शरणार्थी बनकर भारत आये। आते समय स्त्री-पुरुषों और बच्चों पर पाशविक अत्याचार किए गए। युवतियों को जबरदस्ती भगाया गया अथवा उन्हें पशु की तरह भोग कर मार डाला गया।
भारत और पाकिस्तान की ओर से नागरिकों के यातायात के लिए रेल की व्यवस्था की गई थी। “परंतु दिल्ली से मुस्लिमों से खचाखच भरी हुई रेलें चलती थी जिससे यात्री कराची पहुंचने मात्र तक लाशों में बदल जाते थे। और कराची के हजारों हिन्दू दिल्ली में आते-आते प्रेत में बदल जाते थे।“7 देशांतरण करनेवालों की संख्या इतनी अधिक थी कि रेल यह कार्य करने में असमर्थ सिद्ध हुई लाखों लोगों ने तो पैदल ही अपने गाँवों को छोड़कर देशांतरण करना शुरू किया। रास्ते से आते हुए फिर उन्हें लूटमार और अत्याचार का सामना करना पड़ा। हिन्दू-सिख और मुसलमान वेद, गुरुग्रंथ साहिब, कुरान के महान सन्देश को भूल गए थे। शरणार्थी अपने साथ केवल कटुता और बदले की भावना ही साथ ले गये ऐसा नहीं अपितु इन हिस्सों में हुए अत्याचारों की कहानियां भी अपने साथ लेते गये। इसका फल यह हुआ कि शरणार्थी जहाँ-जहाँ भी जाते वहाँ सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए। हर एक हिन्दू और हर एक मुसलमान एक-दूसरे को शक-डर और नफरत की नजरों से देखने लगा था। इस नफरत की भावना ने मनुष्य को अंधा बना दिया था। उसका विवेक और उसकी बुद्धि समाप्त हो गयी थी, सदियों पुराने भाईचारे के संबंध वह भूल गया था। मित्रता को शक ने घेर लिया था। पड़ोसी, पड़ोसी का घर जलाने के लिए आमादा हुए थे। कल तक जिनकी बहू-बेटियों को वह अपनी बहू-बेटियां समझता था आज सारे आम उनकी बेइज्जती कर रहा था। मनुष्य का अधम से अधम और घिनौना रूप इस समय देखने को मिला। सारे मानवीय और धार्मिक उच्च मूल्यों को भूल कर मनुष्य अपने आदिम पशुता पर उतर आया था।
एक ओर मनुष्य का यह पशुता देखने को मिला तो दूसरी ओर इस निबिड़ अंधकार में जुगनू की तरह चमकते हुए इन पीड़ितों की सहायता करने वाले कुछ मानवीय रूप भी देखने को मिले। यह वह शक्तियाँ थी जिसे देखकर मानवीयता का विश्वास उड़ते-उड़ते बचा रहा।
हिन्दू-मुस्लिम लोग की दोस्त और दुश्मन के कई उदाहरण उस समय के लोगों से हमें सुनने को मिलते है। सदियों के दोस्त दुश्मन बन गए। पाकिस्तान के बन जाने से वास्तव में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का खून ही हुआ। एक परिवार के दो भाई अलग-अलग हो गये।
सांप्रदायिक दंगे : भारत में सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत वैसे तो अंग्रेजों के आगमन के साथ हुई थी लेकिन जैसे ही विभाजन होना निश्चित हो गया, विभाजन के पूर्व ही कलकत्ता, बिहार, बंबई एवं पंजाब में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए थे। हिन्दू-मुसलमान परंपरागत शत्रु की तरह एक-दूसरे के सामने खड़े हुए और एक दूसरे पर टूट पड़े। विभाजन की घोषणा हो चुकी थी लेकिन अभी यह निश्चित नहीं हो पाया था कि कौन से जिले पाकिस्तान में जाने वाले हैं और कौन से जिले भारत में रहने वाले हैं। चारों ओर अफवाहों का बोलबाला था। छोटे-मोटे कारणों से दंगे भड़क रहे थे। अंग्रेज अधिकारी मूक दर्शक बन गए थे। माउंट बेटन हताशा बनकर यह देख रहे थे। उन्होंने कुलदीप अय्यर से बातचीत में यह स्वीकार किया था कि “देश एकता बनाए रखने में वे अपने को असमर्थ पा रहे थे।“8 केवल पंजाब ही नहीं उत्तर भारत और बंगाल में भी दंगों का बवूण्डर उठ गया था।
१५ जून, १९४७ से अप्रैल, १९४८ तक सारे देश में विशेषतः पंजाब में क्रूरता का नंगानाच चल रहा था। १३,१४ और १५ जुलाई के तीन दिन पंजाब के इतिहास में रक्तलांछित दिन के रूप में पहचाने जाते है। इन दिनों में जो नरसंहार हुआ, औरतों पर जो अत्याचार हुए, उसे दुनिया के इतिहास में जोड़ा नहीं हैं।
सामाजिक : देश विभाजन के समय मानव मूल्यों का विघटन हो चुका था। जहाँ पारिवारिक रिश्ते टूट चुके थे वहीं दूसरी ओर इसका सबसे अधिक प्रभाव समाज पर पड़ा था।
‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने दर्शाया है कि “विभाजन का असर समाज पर किस तरह पड़ा था। अपने माँ-बाप को खोजने के अभियान पर निकले जयदेव पुरी ने सड़क के दिनों ओर बिखरी लाशों, मुस्लिम स्त्रियों की अपमानित लाशों और कटे हुए अंग देखे। उसने यह भी देखा काफिल में जाते जीवित मुसलमानों का मनुष्यत्व भी समाप्त हो गया था। वे मुसलमान जो उसी भूमि के स्वाभाविक निवासी थे। धरती पर एक लकीर बना दी गयी थी। लकीर के दूसरी तरफ वहीं अवस्था हिंदूओं की थी।“9
वहीं दूसरी ओर यशपाल ने समाज में हिन्दू-मुस्लिमों की दयनीय स्थिति का वर्णन भी किया है। उन दिनों पाकिस्तान से हिन्दू और भारत से मुसलमान काफ़िलों के रूप में अपने-अपने देश को जा रहे थे। ऐसे काफिल लोगों की दयनीय स्थिति, दरिद्रता एवं विवशता देखकर भी व्यक्ति पसीजे बिना नहीं रह सकता था। बसों के “दोनों तरफ लंगड़ाती-लंगड़ाती भीड़ बढ़ती आ रही थी। कतरी हुई और जली हुई दाडियां, दबी हुई टोपियां, रस्सी की तरह लपेटि हुयी मैली पगड़ियों में से झांकते मुड़े हुए सिर काले-नीले चीथड़े कपड़े। स्त्री-पुरुषों के चेहरे आंसुओं और पसीने में जमी हुई गर्द से ढके हुए थे। उबकाई पैदा करने वाली भयंकर दुर्गंध, मानों भीतर चलते-फिरते भी सड़ते-गलते जा रहे हो।“10 समाज में लोगों की स्थिति ऐसी हो गई थी कि किसी के दुःख को देखकर भी वे पसीज नहीं रहे थे। क्योंकि समाज के प्रति उनके नैतिक मूल्य समाप्त हो चुके थे।
‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में कमलेश्वर ने सामाजिक मूल्यों के विघटन को प्रस्तुत किया है “जब तक युद्ध चलते रहेंगे, तब तक विकलांग जातियां जन्म लेती रहेगी....जीने के लिए अवैध और अनैतिक संसाधनों की दुनिया कायम होती चली जाएंगी...डैन्यूब जैसी नदियों में मछलियां बार-बार मरती रहेंगी। मनावरक्त से सिंचित खेतों से अन्न नहीं, विषैली धतूरों की कांटेदार फसलें उगेगी। उन जातियों की स्त्रियां व्यभिचार और बलात्कार के लिए अभिशप्त होगी.. संतानें मनोरोग और व्याधियों से ग्रस्त होगी।“11 युद्ध के कारण समाज की स्थिति भी खराब थी, क्योंकि सामाजिक मूल्यों का विघटन हो चुका था। शांति के माहौल में किस ढंग से विभिन्न संगठनों द्वारा अशांति फैलाने का प्रयास किया जाता रहा है।
अंततः मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है समाज के मूल्यों को तोड़कर व्यक्ति समाज में नहीं रह सकता। समाज में रहकर ही वह विकास करता है लेकिन उस समय ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई थी कि समाज का कोई महत्व नहीं था इसलिए समाज में मूल्यों का ह्रास हो गया।
आर्थिक : राजनीतिक स्वतंत्रता के दौरान या स्वतंत्र होने के पश्चात भारत के सामने आर्थिक पिछड़ापन एक भयानक चुनौती था। विदेशी शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करके इसकी सुरक्षा और सुदृढ़ता के लिए राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक मोर्चे पर भी उसको सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता थी। भारत की स्थिति विभाजन के समय या उपरांत शोषण की स्थिति थी।
‘झूठा-सच’ उपन्यास में यशपाल ने आर्थिक रूप में मानव मूल्यों के स्स्वलन को दर्शाया है कि वे कैसे दूसरों की संपत्ति पर अपना हक जमा रहे थे। नैयर अपने परिवार के साथ नैनीताल में अगस्त से पहले ही आ गया था। जब वह लाहौर से आया था, तब उसके लाहौर के पड़ोसी और मित्र मिरजा ने आश्वासन दिया था कि वह उसकी संपत्ति का रक्षा करेगा, पर उसने पत्र द्वारा नैयर को सूचना दी कि “आपकी कोठी पर अमृतसर के किसी मुसलमानों ने ताला तोड़कर कब्जा कर दिया है। पुरानी अनारकली के आपके दोनों मकानों पर लोग कब्जा कर लिया है।“12 आर्थिक रूप में लोग एक-दूसरे की संपत्ति में अधिकार जमाने का प्रयत्न कर रहे थे।
‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में उपन्यासकार कमलेश्वर ने युद्धों के कारण आर्थिक रूप में होने वाले विघटन का वर्णन किया है। “विभाजन और दुर्दात दमन का यह दौर...अगर कोकी अन्नास भूल गए हैं, तो उन्हें याद दिलाओ की आर्थिक संस्कृतियों के नाम पर जो युद्ध चले और चल रहे है वे हर देश और संस्कृतियों के आम आदमी के विनाश का कारण बन रहे है।“13 युद्ध के कारण आर्थिक मूल्यों का भी ह्रास होता है।
‘कितने पाकिस्तान’ उपन्यास में कमलेश्वर ने अंग्रेजों की आर्थिक मूल्यों का विघटन को दर्शाया है स्वार्थी प्रवृत्ति हमें अंग्रेजों में भी लक्षित होती है, जिन्होंने अपने हितों की पूर्ति के लिए भारत में प्रवेश किया और उन्हें अपने अधीन करके आर्थिक रूप से शोषण किया। “तभी कांगों के लिए हब्शी कहते हैं, लेकिन तब उन्हें एटम बम विकसित करने के लिए यूरेनियम की जरूरत पड़ी थी, तो यही लोग हमें अपना सहोदर भाई कहते हुए कांगों आए थे.. अमरीकन इनके साथ थे, और इन्होंने ही हमारी सदी के सबसे बड़े भौतिक विज्ञानी आइंस्टीन से बेल्जियम की महारानी को खत लिखवाया था कि किसी भी कीमत पर कांगों का यूरेनियम जर्मन के हाथों में न बेचा जाए। यही से आपके सामने इस अदालत में मौजूद माउंट बेटन की नस्ल ने अपनी परंपरागत साजिशों की शुरुआत की थी।“14 इस प्रकार अंग्रेजों को किसी भी चीज़ की जरूरत थी तो भारतीयों से सहायता मांगते थे और आर्थिक रूप उनकी सहायता लेते थे। इस प्रकार उनके आर्थिक मूल्यों का भी विघटन हो चुका था।
अतः आर्थिक रूप से विभाजन के समय कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था। मनुष्य आर्थिक रूप से दूसरों की संपत्ति को हथिया लेना चाहता था। आर्थिक मूल्य समाप्त हो रहे थे।
बेरोजगारी : विभाजन समय में दोनों भागों में होने वाली पैशाचिक लीलाओं का निर्मम और हृदय विदारक दृश्य भारत के इतिहास का काला पन्ना है। घर-बार छोड़कर आये शरणार्थियों के लिए एक समस्या रोजगार की उठी खड़ी हुई। ३१ दिसम्बर १९४८ को सभी शरणार्थी कैम्पों को समाप्त कर दिया गया। बेरोजगारी की समस्या और उजागर हो गई।
‘झूठा-सच’ उपन्यास में इस समस्या का बड़ा व्यापक चित्रण हुआ है कि किसी ने कपड़ों को स्त्री करने का काम शुरू किया। किसी ने ख़ौचा लगाया। भारत से गये मुसलमानों को ऐसा कार्य भी करने पड़े जिनकी उन्हें जानकारी नहीं थी, भारत से गये मुसलमान इशाक को मिला रोजगार स्पष्ट करते हुए “इस नए रोजगार को वह समझता नहीं था। सूखा मेवा, बादाम मुनक्का, किशमिश, छुहारा कुछ बाल बच्चे खा गए, कुछ जिस भाव बिका बेच दिया। हजारों का माल होगा पर उसके लिए तो कूड़ा ही था।“15 अतः रोजगार से कोई मुनाफा नहीं था। सब ऐसे ही समाप्त हो जाता है जो कि बेरोजगारी के ही समान था।
‘आधा गाँव’ उपन्यास में राही मासूम रज़ा ने गांव के वातावरण मैं फैल रही विपन्नता का एक पहलू युवकों की बेकारी को स्वीकार किया है गाँव में युवक काम की तलाश में कलकत्ता जैसे महानगरों में भटकते है और अपने पीछे विरह के आँसू बहाने के लिए अपने लोगों को छोड़ जाते हैं लेखक के अनुसार “क्योंकि जब इन पर बैठने की उम्र आती है तो गज भर की छातियों वाले बेरोजगारी के कोल्हू में जोत दिए जाते है कि वे अपने सपनों का तेल निकाले और उस जहर को पीकर चुपचाप मर जाए।“16
शहरों में भटकते ग्रामीण युवकों की व्यथा का अत्यंत मार्मिक है क्योंकि अकेलापन और अजनबीपन को यह भोगते हैं। वह उन्हें मनुष्य से मशीन बना देता है, वे लोग पटसन की मिलो से जो उत्पादन करते है, उसका भोग नहीं कर सकते। इसलिए तो माल उत्पन्न होता है, वह तो विदेश चल जाता है।
लेखक ने आगे चित्रित किया है कि पाकिस्तान बनने के साथ आर्थिक दशा और भयावह हो जाती है “और फिर खाली आँखें रह जाती हैं और थके हुए बदन रह जाते है, जो किसी अंधेरी सी कोठरी में पड़े रहते हैं और पगड़ियों कच्चे पक्के तलवों धान, जो मटर के खेतों को याद करते रहते हैं”17 अतः आर्थिक परिस्थितियां बड़ी दयनीय हो गयी है, क्योंकि कमाने वाले हाथ पाकिस्तान चले जाते है और खाने वाले मुख गाँव की गरीबी भोगने के लिए पीछे छूट जाते हैं।
लेखक ने इस तथ्य की ओर संकेत किया है कि पाकिस्तान निर्माण में आर्थिक कारण भी महत्वपूर्ण है। मुसलमान युवक अपने आपको आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा और उपेक्षित पा रहे थे। संभवतया वे हिन्दू के मुकाबले में नौकरियां पाने में कठिनाई का अनुभव कर रहे थे। इसलिए पाकिस्तान को बनाने में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। सद्दन जब पाकिस्तान से वापिस आता है तो फन्नमियां उससे पूछता है कि उसकी इस्लामी हुकूमत में रोजा नमाज की पाबंदी तो जरूर होती होगी। इस पर वह कहता है कि ऐसा कुछ नहीं है, सद्दन के अनुसार इस्लामी हुकूमत का मतलब “मुसलमानों की नौकरी मिलना है।“18 पाकिस्तान बनने के साथ वे रोजगार के सपने भी देखने लगे थे। उन्हें लगता था कि पाकिस्तान बनने के साथ उनके कष्ट और तकलीफें समाप्त हो जाएंगे।
लेखक ने वर्णन करते हुए लिखा है कि हकीम साहब ने तो कुद्दन को समझाया था कि पाकिस्तान मुस्लिमों की तरक्की नहीं हो सकती। क्योंकि उनके पास रोजगार के साधन नहीं रहे थे। “हम बहुत कहा कुद्दन से ए बेटा, तुहे पाकिस्तान जाये कि कउन जरूरत है त बोले कि हि आ मुसलमान की तरक्की का रास्ता बंद है।“19 लोगों को लगता था कि हिंदुस्तान में उनका गुजारा अब नहीं हो सकता।
अतः लोगों का स्थानांतरण उस समय हो रहा था। उनसे उनके रोजगार छिन्न चुके थे। उन्हें पेट भरने की समस्या सता रही थी। वे छोटे-छोटे स्थानों में छोटे से छोटा कार्य करने के लिए तैयार हो गए थे। बेरोजगारी ने उन्हें अपाहिज बना दिया था।
इस प्रकार देश विभाजन की त्रासदी और सांप्रदायिकता द्वारा आर्थिक, सामाजिक, पारिवारिक, बेरोजगारी, सांप्रदायिक दंगे, धर्मान्धता की समस्याओं के साथ-साथ अत्याचार, शोषण, नारी शोषण, भ्रष्टाचार, हिन्दू-मुस्लिम विवाद, वर्ग विषमता, नैतिक, राजनीतिक मोहभंग, पुनर्वास की समस्या, गरीबी, सीमा समस्या, जाति भेद आदि कई प्रकार की समस्याएँ हिंदी उपन्यास साहित्य में लेखकों ने वर्णन किया है।
निष्कर्ष के रूप में यह कह जा सकता है कि विभाजन के प्रभाव को इस लेख में दिखाया गया है लोगों की जीवन से विरक्ति हो गयी थी। परिवार, समाज, राजनीति से उनका मोहभंग हो गया था। क्योंकि वे परिस्थितियों के आगे मजबूर थे। इसलिए वे कुछ भी समझ नहीं पा रहे थे। मानव मूल्यों का पूरी तरह से विघटन हो चुका था ना तो वे अब परिवार की, समाज की चिंता कर रहे थे। इस प्रकार नैतिक मूल्य बदलते तथा खंडित होते हुए नजर दिखाई दे रहे थे। प्रेम, स्नेह, दया, सेवा आदि मूल्य में कृत्रिमता आ गयी थी। अपने स्थानों को छोड़कर विस्थापित हुए लोग शरणार्थी कहलाए। उन्हें बेरोजगारी, अत्याचार, शोषण आदि अनेक चीजों का सामना करना पड़ा। हिन्दू-मुस्लिम विभेद की जड़े मजबूत हो चुकी थी। हिन्दू-मुसलमान रात-दिन या रेल की उस पटरी के समान है जो कभी नहीं मिल सके। जिनके खान-पान, रहन-सहन, धर्म पर्व सभी एक-दूसरे से भिन्नता लिए हुए है एक म्यान में दो तलवारें के समान थे और भारत-पाक विभाजन अपरिहार्य था। शरणार्थियों को पुनर्वास की समस्याएं आई। जहां उनकी संख्या अधिक होने पर पूरी सुविधाएं भी उन्हें नहीं दे पा रहे थे। अपनी जान बचाकर भागे ऐसे जन समूह के पास खाने-पीने पहनने, ओढ़ने की दृष्टि से कुछ भी नहीं था। उन्हें बरसों विविध कैम्पों और यहां-वहां कर अपना जीवन व्यतीत करना पड़ा। वे लोग खाली हाथ लौटे थे इसलिये वे गरीबी का शिकार हो गए थे। चाहे वह अमीर वर्ग था या गरीब वर्ग सबकी जीवन दृष्टि में परिवर्तन आ गए थे। अब व्यक्ति समाज के हित, राजनीतिक हित या पारिवारिक के हित से ऊपर उठकर अपने हित की चिंता कर रहे थे।
साहित्य में लेखकों ने विभाजन के त्रासदपूर्ण चित्र खींचे जिससे उस दिन के समाज, मानवीयता, परिस्थितियां इतिहास एवं परिवेश के आधार पर आज की युवा पीढ़ी या देश के चलाने वाले लोगों पर प्रभाव अवश्य रहता है। अगर फिर समाज ने देश में वैसी स्थितियाँ पैदा की तो देश का, समाज और मानवता का पतन तथा है।
डॉ. मुल्ला आदम अली
संदर्भ:
1. राही मासूम रज़ा – ओस की बूंद – पृ.१९
2. भीष्म साहनी – तमस – पृ.२६७
3. राही मासूम रज़ा – आधा गाँव – पृ.२९७
4. कमलेश्वर – कितने पाकिस्तान – पृ.१३
5. कमलेश्वर – कितने पाकिस्तान – पृ.१६
6. L. Mosley – The last days of British Raj – P.२४२
7. सूर्यनारायण रणसुभे – देश विभाजन और हिंदी कथा साहित्य – पृ.५८
8. सूर्यनारायण रणसुभे – देश विभाजन और हिंदी कथा साहित्य – पृ.५४
9. यशपाल – झूठा-सच -भाग-2 – पृ.२१
10. यशपाल – झूठा-सच -भाग-2 – पृ.२१५
11. कमलेश्वर – कितने पाकिस्तान – पृ.४६-१६
12. यशपाल – झूठा-सच-1- पृ.१७८
13. कमलेश्वर- कितने पाकिस्तान- पृ.४६-४७
14. कमलेश्वर- कितने पाकिस्तान- पृ.२६९
15. यशपाल- झूठा-सच- पृ.३४१
16. राही मासूम रज़ा- आधा गाँव- पृ.१०
17. राही मासूम रज़ा- आधा गाँव- पृ.१०
18. राही मासूम रज़ा- आधा गाँव- पृ.३३६
19. राही मासूम रज़ा- आधा गाँव- पृ.२९७
ये भी पढ़ें;
✓ सांप्रदायिकता का बदलता चेहरा और हिंदी उपन्यास
✓ सांप्रदायिकता की समस्या और हिंदी उपन्यास
✓ पारिवारिक और सामाजिक जीवन पर सांप्रदायिकता का प्रभाव और हिंदी कहानी