Shahar Mein Curfew : Vibhuti Narain Rai
विभूति नारायण राय – ‘शहर में कर्फ्यू’
विभूति नारायण राय का जन्म 29 नवंबर 1951 में हुआ। 1975 बैच के उत्तर प्रदेश कैडर के एक संवेदनशील आई.पी.एस अधिकारी होने के साथ-साथ हिंदी के कथाकार के रूप में भी प्रसिद्ध रहे हैं। प्रशासनिक क्षेत्र में जहां उन्हें विशिष्ट सेवा के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार तथा पुलिस मेडल से सम्मानित किया जा चुका है। साहित्य क्षेत्र में उन्हें ‘इंदु शर्मा’ अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान सहित अनेक पुरस्कारों से सम्मानित रहे हैं। विभूति नारायण राय तीन दशकों से अधिक समय तक प्रकाशित होने का कीर्तिमान स्थापित करने वाली सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘वर्तमान साहित्य’ के संस्थापक संपादक रहे हैं।“
विभूति नारायण राय के अब तक 5 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनके ये उपन्यास पिछले तीन-चार दशकों के परिवर्तित राजनीतिक सामाजिक परिवेश का रचनात्मक रूपांतरण है। आमतौर पर लेखक कहानियां लिखते के बाद उपन्यास लिखना शुरू करते हैं, परंतु विभूति नारायण राय सीधे उपन्यास से अपना लेखन कार्य शुरू किया। विभूति नारायण राय ने लेखन में कथ्य को अनावश्यक विस्तार से बचाते हुए सघनता प्रदान करते हैं। इसलिए आकार में संक्षिप्त होने के बावजूद दृष्टि में विस्तृत उनके उपन्यास अलग से अपनी उपस्थिति का अहसास दिलाते है।“
विभूति नारायण राय के उपन्यास ‘घर’, ‘शहर में कर्फ्यू’ (1986) ‘किस्सा लोकतंत्र’ (1993) ‘तबादला’, ‘प्रेम की भूत कथा’। इनके पांच उपन्यास “शहर में कर्फ्यू तथा अन्य चार उपन्यास” नाम से उपन्यास संग्रह के रूप में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है।
‘एक छात्र नेता का रोजनामाचा’ व्यंग संग्रह, हाशिमपुराः उत्तर प्रदेश पुलिस के इतिहास का एक काला अध्याय (संस्मरण) प्रकाशित है। विभूति नारायण राय के अंग्रेजी ग्रंथ "कंबेटिंग कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट", "कम्यूनल कॉन्फ्लिक्ट: प्रिसेप्शन ऑफ पॉलिसी न्यूट्रॅलिटी ड्यूरिंग हिंदू-मुस्लिम रियोट्स इन इंडिया" (1998), "लेटर एड्रेस्ड टू ऑल आईपीएस ऑफिसर्स द कंट्री ड्यूरिंग गुजरात रियोट्स ऑफ 2022"
विभूति नारायण राय के बारे में सुप्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया के शब्दों में –“हिंदी कथा जगत में विभूति नारायण राय की उपस्थिति आश्चर्य की तरह बनी और विस्मय की तरह छा गई।... सबसे खास बात इस रचनाकार की यह है कि इनके सभी उपन्यास एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न है। ‘घर’ में संबंधों के विखंडन की त्रासदी है तो ‘शहर में कर्फ्यू’ में पुलिस आतंक के अविस्मरणीय दृश्य चित्र। ‘किस्सा लोकतंत्र’ राजनीति में अपराध का घालमेल रेखांकित करता है। ‘तबादला’ उपन्यास उत्तर आधुनिक रचना के स्तर पर खरा उतरता है क्योंकि इसमें कथा तत्वों का संरचनात्मक विखंडन और कथानक के तात्विक विकास का अतिक्रमण है। 21वीं सदी के पहले दशक में यह अपनी तरह का पहला कथा प्रयोग रहा है। सरकारी तंत्र और राजनीति की सांठगांठ के कारण तबादला एक स्वाभाविक प्रक्रिया न होकर उद्योग का दर्जा गया है। इन रचनाओं से अलग हटकर ‘प्रेम की भूत कथा’ एक अद्भुत प्रेम कहानी है जिसमें प्रेमी अपनी जान पर खेलकर प्रेमिका के सम्मान की रक्षा करती है।“
विभूति नारायण राय (Vibhuti Narain Rai) के सभी उपन्यासों का अनुवाद अन्य भाषाओं में हुआ है।
‘शहर में कर्फ़्यू’ (Shahar Mein Curfew)
‘शहर में कर्फ्यू’ में सांप्रदायिकता की समस्या को लेकर गंभीर विमर्श खड़ा करने की कोशिश की गई है। लेखक इस समस्या के रेशे-रेशे से परिचित है। उसकी स्पष्ट मान्यता है कि तत्कालीन उपाय के द्वारा नहीं वरन् ठोस वैचारिक संघर्ष के द्वारा ही सांप्रदायिकता के राक्षस के दांत तोड़े जा सकते हैं। उसके मुकाबले के लिए कोई शॉर्टकट नहीं। उपन्यास में आए कई प्रसंगों से लेखक की मंशा स्पष्ट होती है। पुराने कम्युनिस्ट रामपाल सिंह द्वारा सांप्रदायिक विचारधारा को खुला समर्थन इसका प्रमाण है। उनके मित्र सूरजभान के शब्दों में –“इतना बड़ा आदमी कम्युनल हो गया हैं। खुले आम मुसलमानों के खिलाफ बोल रहा था। मैंने कहा भी कि कामरेड तुम्हें मुसलमानों के खिलाफ नहीं बल्कि उन टेंडेंसीज के खिलाफ बोलना चाहिए, जो दंगा कराती है। लेकिन कौन सुनता है! इस समय तो लगता है पूरा शहर हिंदू या मुसलमान में बंटा गया है। लेखक इस अत्यंत पीड़ादायक यथार्थ से मुठभेड़ करता है, कतराकर निकल नहीं जाता। वस्तुतः आज धार्मिक प्रतिष्ठान और सत्ता प्रतिष्ठान दोनों इंसानियत के दुश्मन बन गए हैं। बढ़ती सांप्रदायिकता का एक बड़ा कारण यही है। शहर में शांति और सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित करने के उद्देश्य से बुलाई गई शांति कमेटी के सफेदपोश लोगों पर पुलिस अधिकारियों द्वारा दबी जुबान कसी गई कुछ पंक्तियां देखें –“साला यहाँ शांति का उपदेश दे रहा है। अपनी गली में जाकर छुरे बांटेगा।“ “...इन्हीं सालों को बंद कर दो, दंगा अपने आप रुक ।“... बंद कैसे कर दे? अफसरान इन्हें दामाद की तरह कोतवाली में बुलाकर चाय-समोसा खिलाते हैं।“
“अफसरान क्या करें? न खिलाए तो मंत्री डंडा कर देगा।"
वास्तव में शहर-दर-शहर यही स्थिति है। इस विडंबना को तल्ख के साथ अंकित किया गया है। सफेदपोश हिंदुत्ववादी नेता रामकृष्ण जयसवाल और हाजी बदरूद्दीन बीड़ीवाले की मिलीभगत से कायरे गए दंगे का चरित्र धार्मिक नहीं, राजनीतिक ही प्रमाणित होता है। लेखक यह बात शिद्ध से महसूस करता है कि दंगे का शिकार हमेशा समाज का सबसे निचला वर्ग ही होता है। मेहनत-मजदूरी पर गुजारा करने वाला यह वर्ग अपनी सोच, अपने कर्म से इतना अमानुषिक नहीं हुआ है। यह आश्वस्त करने वाली सच्चाई है। लेकिन उसे विध्वंसकारी और मनुष्यता विरोधी शक्तियों की साजिशों के प्रति जागरूक करने की जरूरत है।
‘शहर में कर्फ्यू’, के माध्यम से विभूति जी ने समाज और राजनीति में लगातार सक्रिय सांप्रदायिक विचारधारा के खतरों के प्रति जागरूक और सावधान किया है और उसे सिरे से खारिज कर अपनी पक्षधरता कि मुखर घोषणा भी की है। आकस्मिक नहीं कि इस उपन्यास की प्रतियां उत्तर प्रदेश के कई शहरों में उग्र हिंदुत्ववादी संगठनों ने चौराहों पर जलाई थी। इससे प्रमाणित है कि उपन्यास ने सिर्फ वैचारिक उत्तेजन नहीं पैदा की है सही जगह पर चोट भी की है।
विभूति जी के उपन्यासों पर विचारधारा का आतंक नहीं है हालांकि उनकी विचारधारा सर्वविदित है। उन्होंने सारा कच्चा माल समाज से उठाया है और उसे विविध कथा प्रसंगों में डाल दिया है। इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि लेखन ने इससे अपेक्षित दूरी बराबर बनाए रखी है। जीवन की मार्मिक सच्चाई ‘शहर में कर्फ्यू’ तथा ‘घर’ में खास तौर पर उभरकर सामने आई है। सईदा अत्यंत त्रासद प्रसंग एवं मुंशी रामानुजलाल की पारिवारिक ट्रेजडी की रचना का खारापन लेखक की विचारधारा का समर्थन करता है। लेखक ने केवल परिस्थितियों को तोड़ मोड़कर प्रस्तुत नहीं कर दिया है बल्कि समकालीन सामाजिक जीवन की लय में बैठकर उसके चित्र खींचे है। इसीलिए उनका चित्रण जानदार बना पड़ा है।
डॉ. मुल्ला आदम अली
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