टोपी शुक्ला
Topi Shukla by Rahi Masoom Raza
‘टोपी शुक्ला’ राही मासूम रजा का दूसरा उपन्यास है। सन् 1977 में प्रकाशित इस उपन्यास की भूमिका में राही ने लिखा था कि –“आधा गाँव’ में बेशुमार गालियां थी। मौलाना ‘टोपी शुक्ला’ में एक भी गाली नहीं है। परंतु शायद यह पूरा उपन्यास एक गंदी गाली है। मैं यह गाली डंके की चोट पर बक रहा हूं। यह उपन्यास अश्लील है- जीवन की तरह।
टोपी शुक्ला एक ऐसा इंसान की कहानी है जो ईमानदार और हिंदुस्तानी बनने की कोशिश में धीरे-धीरे बिल्कुल अकेला हो जाता है और आत्महत्या कर लेता है। टोपी शुक्ला उर्फ बलभद्र नारायण शुक्ला के पिता भृगुनारायण शुक्ला “पारसी के रसिया और मौलाना रूम के दीवाने थे। धुली हुई उर्दू बोलते थे और उर्दू के कट्टर विरोधी थे।.. इसलिए उनका मुकाबला डॉ. शेख शरफुद्दीन लाल तेलवाले से था जो इनके कंपाउंडर हुआ करते थे।“ टोपी शुक्ला की दादी “फारसी की रसिया और हिंदी की दुश्मन थी।“ इनकी मां घरेलू स्त्री थी।
टोपी शुक्ला अपने पिता की दूसरी औलाद थे इसलिए उन्हें वह प्यार नहीं मिला जो उनके भाइयों को मिल पाया, परिणामस्वरूप टोपी अंदर से विद्रोह होने लगे। टोपी की दोस्ती कलक्टर के बेटे इफ़्फ़न से हो जाती है। इफ़्फ़न की दादी उसको अपनी दादी से अच्छी इसलिए लगती है, क्योंकि वह काला-कलूटी बदसूरत टोपी को उसकी बोली बानी में कहानियां सुनाती है, प्यार करती है जबकि उसकी खुद की दादी उसे भोजपुरी बोलने पर डांटती रहती है। टोपी जब उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ पहुंचता है तो वहां उसकी भेंट इफ़्फ़न से दोबारा होती है। दोनों मिली-जुली संस्कृति में पले बढ़े थे इसलिए साझी संस्कृति के समर्थक थे।
टोपी मुस्लिम विश्वविद्यालय में से हिंदी में एम.ए. करके बेरोजगार था और हिस्ट्री में लेक्चर इफ़्फ़न की तरक्की रुकी हुई थी।.. अकेलापन से घिरे टोपी क इफ़्फ़न और उसकी बीवी सकीना से स्नेह मिला, उनका घर ही उसका घर हो गया। पर ओछी संकीर्ण दुनिया में इसकी कहां गुंजाइश? शहर में उसको और सकीना को लेकर बदनामी फैलने लगी, जिससे भले ही तीनों के दिलों में तो काई फर्क नहीं आया, पर उसके कारण इफ़्फ़न की तरक्की और टोपी की नौकरी दोनों असंभव हो गई।“ सकीना को लेकर जगह-जगह बदनामी होने लगती थी। एक दिन टोपी ने प्रतिवाद किया तो मारपीट हो गई जिससे भीषण सांप्रदायिक दंगे का रूप ले लिया। टोपी, इफ़्फ़न, सकीना दुनिया से कटकर अकेले हो जाते है और एक दिन जब सकीना और इफ़्फ़न अलीगढ़ छोड़ देते है तो टोपी भयानक घुटन के बीच आत्महत्या कर लेता है। इस उपन्यास में “यह प्रश्न वाकई महत्वपूर्ण है कि बलभद्र नारायण शुक्ला और उन्हीं के जोड़ीदार किसी अनवर हुसैन जैसे लोगों के लिए इस देश कोई जगह है या नहीं। यहाँ कुंजड़ों, कसाईयों, सय्यदों, जुलाहों, राजपूतों, मुस्लिम राजपूतों, अगरवालों, ईसाइयों, सिक्खों.. गरज की सभी के लिए कम या अधिक गुंजाइश है। परंतु हिंदुस्तानी कहाँ जाए.? लगता ऐसा है कि ईमानदार लोगों को हिन्दू, मुसलमान बनाने में बेरोजगारी का हाथ भी है। धर्म में साली पॉलिटिक्स घुस आई है।“
पूरे उपन्यास में सांप्रदायिकता लहर साँय-साँय करती भयावह परिदृश्य उपस्थित करती है। इफ़्फ़न सांप्रदायिक माहौल से त्रस्त होकर मुस्लिम राजपूत डिग्री कॉलेज छोड़कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में नियुक्ति लेता है पर सांप्रदायिक माहौल यहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ता और उसे अलीगढ़ छोड़ना पड़ता है।
पूरे उपन्यास के माध्यम से राही ने आज के ‘समय’ की डरावनी तस्वीर पेश किया है। आजादी के बाद के हिंदुस्तान में सांप्रदायिकता, मुस्लिम अस्मिता, सिद्धांतहीनता के बीच फँसे आदमी की बेबसी को यह उपन्यास चित्रित करता है। इसीलिए राही ने भूमिका में लिखा था कि “मुझे इस उपन्यास को लिखकर कोई खुशी नहीं हुई। क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है।“
डॉ. मुल्ला आदम अली
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