"जहाँ सबकी नज़र बधाईयों पर टिकी है... वहाँ एक नज़र मुल्क के उस तबके पर भी जो आजादी के पूर्व के दंश अभी तक झेल रहा।"
Poetry by Bhagya Shree
गीत जश्न - ए - आज़ादी का हम न गाएंगे
हो सड़कों और संसद तक आबाद महिलाएं
वो काफिला जब तक न देखेंगे
हो सभाएं न्याय की या सभा कानून की
हम महरूमों की वो अंजुमन जब तक न पाएंगे
ऐ मुल्क - ए - आवाम मेरे
होगी नहीं तस्दीक तबतक
गीत जश्न - ए - आज़ादी का हम न गाएंगे
तुम बैठ हवाई जहाज टूटी हवाई चप्पलों की सुध लेने आते हो
बाढ़ में भूखी जनता पर श्वान के भाँति बिस्किट फेंक जाते हो
आपदा नहीं सिर्फ खेल प्रकृति का
कुछ धोखेबाजी तो सिस्टम की भी होती है।
वो लोग उजड़ गये गुलिस्ते जिनके
क्या वे बदकिस्मत भी जश्न ए आज़ादी मनाते हैं???
रोटी पर भी टिकस लगे
राशन के रुपयों से तिरंगे फहरे
जहाँ खाली पेट की शर्त लिए
नाचता सड़कों पर राष्ट्रवाद हो
साहब तुम बताओ भला ये जश्न ए आज़ादी कैसे कोई मिसाल हो
वो पिचके गालों
वो ठिठुरी हड्डियों
वो माथे की उभरी लकीरें तुम भूल गए
कार्पोरेट की दंतुरित मुस्कान के आगे
साहब तुम आवाम को भूल गए
मुफलिसो की झुग्गियों में भी जिंदगी रंगीन हो
साहब ग़रीबी की सजा इतनी भी क्या संगीन हो
याद रखो तुम कुचल रहे हो
हसरत, हसन के इंकलाब, जय हिंद को
और ये समाज तो हमेशा गालियाँ देता ही रहा
फुले और फातिमा के बलिदानों को
हाँ हम हैं मनहूस तुम्हारे जश्न में
क्योंकि हमें कब्रों पर नाचना नहीं आता
लाशों की सीढ़ी पर चढ़ कर
भाषण देना नहीं आता
हम तब तक ये गीत मनहुसियत का गाएंगे
जब तक इस कौम की हर आबादी को
रौशनी के महफ़िल तक न पाएंगे
भाग्य श्री
हैदरनगर, झारखंड
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