हिंदी हिंदुस्तान का अंश
सहती रही अपने ही घर में
निर्वासित होने का दंश।
दिवस विशेष मना कर कहते,
हिंदी हिंदुस्तान का अंश।
रस, अलंकार, छंद करते अलंकृत
विविध बोलियाँ जिसका परिधान।
फिर भी परित्यक्ता-सी रहकर
झेलती रहती समस्त अपमान।
नित नए रूपों में ढल कर
हिंदी करती सबको रसरंजित।
सहज, सरल, वैज्ञानिक लिपि से
करती सबको यह अभिमंत्रित।
जितनी प्राच्य जमीं है इसकी
फ़लक भी उतना ही विस्तृत।
फिर भी राष्ट्रभाषा बनने से वंचित
अपने ही घर से विस्थापित।
क्यों न अनेकता में एकता का
सार्थक उदाहरण जग को दें।
सभी भाषाओं को लेकर साथ
हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव दें।
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