चंदा मामा
करे शरारत चंदा मामा,
घटे बढ़े खरामा खरामा,
कभी डूबता कभी चमकता,
खेले आँख मिचौली ड्रामा।
दिखता नहीं अमावस लल्ला,
ढूंढ ढूंढ कर थके मुहल्ला,
गुम है चंदा मामा प्यारा,
शहर मुहल्ला घर घर हल्ला।
दुबला पतला सा ये बाँका,
कभी लगे खिड़की से झाँका,
पल पल बढे दूध सा झलके,
पूनम रात दिखे ये चाँका।
देख चाँद बच्चे हर्षायें,
उछलें कूदें शोर मचायें,
प्यारा न्यारा चंदा मामा,
बच्चे कह कह पास बुलायें।
शब्दार्थ:
खरामा खरामा: मस्ती में धीमे-धीमे
चाँका: गोल पहिया, कुम्हार का चाक
विरह की पीर
सखी मन विकल धरूँ कस धीर।
सही ना जाय विरह की पीर।
हिया पर घाव बहुत गंभीर,
बिना पर तड़पत जैसे कीर।
मिटा पाई ना हाथ लकीर,
करूँ क्या नैन बहावत नीर।
सही ना जाय विरह की पीर।
कहाँ वो चंचल चितवन बैन,
चुरा लेते जो दिल के चैन।
सखी बेबस तन मन बेचैन,
बुझे ना प्यास उदधि के तीर।
सही ना जाय विरह की पीर।
लुप्त वो अधरों की मुस्कान,
नैन बावरे रहें हलकान।
बिलखता दिल कहता नादान,
सँभालो दर्दों की जागीर।
सही ना जाय विरह की पीर।
सखी अब आये जग ना रास,
टूटती पल पल हर इक आस।
झेलती जीवन का परिहास,
तड़प जस मत्स्य रहे बिन नीर।
सही ना जाय विरह की पीर।
लुत्फ़
फेर ना यूँ नज़र प्यारे, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
इश्क की पड़ती फुहारें, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
छोड़ दे कृत्रिम मुखौटा, छोड़ अब ये संतई,
कह रही मादक बयारें, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
ना रहेगा चिर युवा ना, रूप मादक ये समां,
वादियाँ तुझको पुकारे, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
सब नियामत देन उसकी, जग नियामत से भरा,
भोग तू सौन्दर्य सारे, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
लौट आये तू वहां से, ये नहीं वश में कभी,
बेदिली से क्यों गुजारे, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
जिंदगी खेता रहा अब, दो घड़ी दम ले जरा,
"कुमुद" कर नैय्या किनारे, जिंदगी का लुत्फ़ ले।
जिंदगी
बेबसी छाया अँधेरा, गम नजर आने लगा।
जख्म घायल जिंदगी को, अर्थ समझाने लगा।
उम्र बीती दिल परेशां धड़कनों के शोर से,
रुक रहीं जब धड़कनें नीरव कहर ढाने लगा।
जिंदगी का फलसफा ना समझ पाया उम्र भर,
मद भरी साकी अदा क्यों जाम भरमाने लगा।
छू रही थी गम लहर तनहाइयों में आसमां,
कुछ ठहर जा ज्वार हो कम व्यर्थ घबराने लगा।
याद आती जिंदगी की गल्तियां नादानियां,
पल गया लौटे नहीं क्यों "कुमुद" पछताने लगा।
अशोक श्रीवास्तव "कुमुद"
राजरूपपुर, प्रयागराज (इलाहाबाद)
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