वो छोटुआ
जिसके पास न कोई पासपोर्ट न वोटर आईडी न आधार है
न सिर पर टोपी, न टीका न पगड़ी सवार है
न कोई जाति प्रमाण पत्र
न भाषाई अल्पसंख्यक होने का कोई प्रमाण है
गलियों में प्रचलित वही गाली - गलौज वाली भाषा है
दिल में गुजराती, मराठी होने का न कोई गर्व है
उसे ये भी नहीं मालूम
वो प्रवासी है
या इसी देश का वासी है
भोर की आभा जब आँखों को चौंधियाती है
बस पेट की भूख लिए निकल पड़ता है
कभी किसी यात्री का कुली बनकर
कभी किसी नुक्कड़ घंटे दो घंटे काम कर
तो कभी भीख माँग कर
वो अपना पेट भर ही लेता
गर्म रोटी पाने की कोई लालसा नहीं थी उसमें
हाँ! शहर में होने वाली शादियां उसके लिए
किसी शाही दावत से कम नहीं होती थी
जब साँझ ढलती तब वापस
स्ट्रीट लाईट के गर्माहट भरी रौशनी में सोता वो खुशनसीब
आख़िर ठंड के दिनों में ये मुफ़्त की गर्माहट खुशनसीबी ही तो थी
शायद कभी कोई नेता वहां कंबल बाँटने नहीं आया
शहर की सभी सुखी - संपन्न परिवारों की गाड़ियां
वहां से गुजरती थी
वो शहर के बड़े होर्डिंग्स में लगे प्रधानमंत्री की तस्वीर तो देखता था
पर प्रधानमंत्री की कोई भी योजना उस तक नहीं पहुँच पाती थी
उसे नहीं पता राष्ट्रवादी होने का मतलब
उसे नहीं पता नागरिक होने का मतलब
उसे तो ख़ुद का नाम भी नहीं पता
आखिर कैसे बनेगा वो इस देश का नागरिक
कैसे सिद्ध होगा उसका राष्ट्रवाद
आखिर किस जाति और धर्म के आधार पर
बनेगा वो राजनीति का शिकार???
भाग्य श्री
हैदरनगर, झारखंड
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भारतीय राजनीति और बच्चों का भविष्य (देश का भविष्य) पर आधारित भाग्य श्री की कविता वो छोटुआ आपके लिए कविता कोश में। Poetry By Bhagya Shree
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