मुझे इल्म है
छत के मुंडेर से झाँकती तुम्हारी निगाहें
क्या ढूंढ रही हैं
मैं जानती हूँ
चूल्हे की जलती आग
तुम्हें हर रोज कितना जलाती है
रसोई की दहलीज लांघने से पहले
तुम्हारी आशाओं के ईंधन
बाहर निकलने के इंतजार में
ठंडी राख हो जाते हैं
मुझे मालूम है
दिन से रात तक तुम्हारी दिनचर्या
स्त्री धर्म निभाने को विवश है
मैं तुम्हारे भीतर के उस अलगाव को भी महसूस कर सकती हूँ
जो तुम्हारी आकांक्षाओं को हर दिन
नोचे, खसोटे और दबोचे जाने से पैदा हुआ है
मैं साक्षी हूँ इस बात की
कभी तुमने भी सोचा था
विवाह तुम्हारे जीवन को एक नया आयाम देगा
तुम्हारे सपनों को पंख देगा
और मैं यह भी जानती हूँ
आज तुम्हारी नाकाम उम्मीदें
तुमसे बार - बार ये कह रही हैं
ससुराल के इस स्वर्णिम पिंजरे से बेहतर तो
पिता के घर की वो चुटकी भर आज़ादी ही थी
मैं हैरान हूँ
कितना भयावह है यह
आज तुम बदतर से बद की कामना में
अपनी खुशियाँ ढूंढ रही हो।
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