Faiz Ahmad Faiz
बोल के लब आज़ाद हैं तेरे
- क्रांति (येवतीकर) कनाटे
फ़ैज़ अहमद फैज (Faiz Ahmad Faiz) अखंड भारत के उर्दू के उन गिने-चुने शायरों में से हैं जिनका व्यक्तित्व विविध आयामी रहा और लेखन बहुरंगी। फ़ैज़ और उनके कुछ समकालीन शायरों का यह सौभाग्य रहा कि उनकी एक-दो रचनाओं ने ही उन्हें सफलता और लोकप्रियता का वह शिखर प्रदान किया जो अन्य कवि-शायरों को उनका एक पूरा का पूरा संग्रह नहीं दे सका। हफ़ीज़ जालंधरी का नाम आया कि मलिका पुखराज का स्वर कानों में रस घोलने लगता है-“अभी तो मैं जवान हूँ / हवा भी खुशगवार है, गुलों पे भी निखार है/ तरन्नुमे हज़ार हैं,बहार पुरबाहर है।”मजाज़ लखनवी के नाम के साथ “ऐ गमे-दिल क्या करूँ, ऐ वहशते-दिल क्या करूँ” नज़्म याद आती है; साहिर लुधियानवी हमारे लिए ताजमहल का पर्याय हैं, उन्होंने कहा,“ताज तेरे लिए मजहरे- उल्फ़त ही सही/ तुझको इस वादी-ए-रंगीं से अक़ीदत ही सही .... बजमे-शाही में गरीबों का गुज़र क्या मानी.....” और ताजमहल के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही बदल गया। फ़ैज़ हमारे लिए मा,त्र “मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरे महबूब न माँग” के ही पर्याय नहीं हैं, इनके उल्लेख भर से याद आती है उनकी ग़ज़ल, “दोनों जहान तेरी मुहब्बत में हार के / वह जा रहा है कोई शबे-ग़म गुज़ार के” उनके उल्लेख भर से मेहदी हसन गुलों में रंग भरने लगते हैं। पिछले सदी की उर्दू शायरी ने हमें दिये ये वे कुछ अनमोल तोहफ़े हैं जो न कभी पुराने हुए न कभी हमसे अलग हुए।
फ़ैज़ का जन्म सियालकोट के काला कादर में 1911 को हुआ या ’12 को, जन्म तारीख 7 जुलाई है या 13 फरवरी यह गौण है क्योंकि इससे अब कुछ फर्क नहीं पड़ता। उल्लेखनीय यह है कि उनके पिता साहित्यिक अभिरुचि रखते थे जिनके कहेनुसार फ़ैज़ ने बचपन में पहले ‘कुरान शरीफ़’ कंठस्थ की, मौलवी से फ़ारसी, अरबी सीखी फिर स्कूल जाना शुरू किया। आगे चलकर फ़ैज़ ने अंग्रेजी और अरबी साहित्य में एम. ए. किया। उन्होंने पहले एम.ए. ओ. कालेज, अमृतसर में और फिर हेली कॉलेज ऑफ कामर्स, लाहौर में अध्यापन किया। 1942-’47 वे सेना विभाग में कार्यरत रहे। विभाजन के बाद उन्होंने ‘पाकिस्तान टाइम्स्’ का सम्पादन किया। फ़ैज़ ने समीक्षाएँ भी कीं, नाटक भी लिखे, फिल्मों के लिये गीत और संवाद भी लिखे। वे समाज सेवा भी जुड़े और मजदूर आंदोलन से भी। यह अत्यंत दूर्भाग्यपूर्ण है कि फ़ैज़ को तत्कालीन प्रधानमंत्री लिकायत अली खां के तख़्त पलटने के आरोप में ‘रावलपिंडी साजिश केस’ में चार साल से कुछ अधिक का कारावास भोगना पड़ा। पश्चात लंडन में कुछ वर्ष रहकर वे पाकिस्तान लौटे और अंतत: कराची में स्थायी हो गए। “नक़्शे-फ़रियादी’, दस्ते-सबा’,‘जिंदाँनामा’,‘मीज़ान’, दस्ते-टहे,-संग’,‘सरे-वादी-सीना’, मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर’ उनकी कुछ प्रसिद्ध पुस्तके हैं। ‘नक़्शे- फरियादी’ में “ख़ुदा वो वक्त न लाए कि सोगवार हो तुम” , “मेरी जान अब भी अपना हुस्न वापस फेर दे मुझको” और “तारे, नग्में कहीं चाँदनी के दामन में” जैसी बेमिसाल नज़्में हैं तो ‘दस्ते-सबा’ और ज़िंदानामा’ में उनकी जेल में लिखी रचनाएँ हैं। “तुम आए हो न शबे-इंतज़ार गुज़री है/ तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है” और “सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आए हैं/हम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंज़िल से आए है’ जैसी उस कालखंड की रचनाओं का अपना महत्त्व है क्योंकि फैज के लिए कारावास भी एक बुनियादी अनुभव था, प्यार की तरह, जिसने उन्हें बहुत कुछ दिया। तब एक ऐसा भी समय आया जब परिवार और मित्रों से मिलना तो दूर फ़ैज़ को लिखने के लिए कागज और क़लम तक न दिये गए और तब फ़ैज़ ने कहा,“मताए-लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या गम है/ कि ख़ूने-दिल में डूबो ली है उँगलियाँ मैंने।”
इससे पहले स्वयं फ़ैज़ के अनुसार उनके लिए अमृतसर का वह समय भी महत्त्वपूर्ण था जब उनका परिचय महमूदुज ज़फ़र और उनकी पत्नी रशिदा से हुआ और यहीं से वे प्रगतिशील लेखकों से और मजदूर आंदोलन से भी जुड़े। इसी कालावधि में फ़ैज़ ने “मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग” नज़्म लिखी। फ़ैज़ उर्दू, हिन्दी, पंजाबी, अरबी, पश्तो और अंग्रेजी साहित्य के अध्येता थे। अपनी शायरी में नए-नए प्रयोग करने से वे कभी नहीं हिचकिचाये परंतु उनके लिए हर हाल में कलापक्ष की तुलना में भावपक्ष अधिक महत्त्वपूर्ण रहा। अपनी गज़लों और नज्मों में फार्म कि बजाय उन्होंने काव्य-तत्त्व पर अधिक बल दिया। फ़ैज़ को भले ही मूलत: प्रेम और सौन्दर्य का कवि माना गया हो परंतु उनकी शायरी में सौंदर्य और प्रेम अपने व्यापक अर्थ में विद्यमान हैं। यहाँ हुस्न और मुहब्बत व्यक्ति से समष्टि की ओर जाते हैं तभी तो “मुझसे पहली-सी मुहब्बत मेरी महबूब न माँग” में “मैंने समझा था कि तू है तो दरख़्शा (प्रकाशित) है हयात/ तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है/ तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये (बदल जाये) “ कहने वाला कवि अगले ही बंद में कहता है-“जा-ब-जा बिकते हुए कूचओ-बाज़ार में जिस्म /ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून में नहलाए हुए/ जिस्म निकले हुए अमराज़ (बीमारियों) के तन्नूरों (भट्ठी) से / पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से/ लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे/ अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे/” इस कनफेशन में मात्र असहायता या लाचारी नहीं है, एक ईमानदारी है, एक मासूमियत है और इसीलिए यह नज़्म अपनी पराकाष्ठा पर इन पंक्तियों के साथ पहुँचती है-
और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा,
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
मुझसे पहली-सी मुहननत मेरी महबूब न माँग।
यहाँ अनायास ... “मैंने तुमसे ही नहीं सबसे मुहब्बत की है” कहने वाले साहिर याद आते हैं। उन्होंने भी अपनी रूमानी शायरी को एक व्यापक स्वरूप दिया। फ़ैज़ और साहिर में एक समानता और भी है, दोनों ही के लिए सौंदर्य क्रिएटिविटी का नाम था और प्रेम सामाजिक तथा नैतिक मूल्यों का पर्याय। फ़ैज़ की इस भावप्रवण नज़्म को स्वर दिया नूरजहाँ ने। कहते हैं नूरजहाँ ने गाई यह नज़्म फ़ैज़ को इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने फिर इसे कभी किसी मुशायरे में नहीं पढ़ा। एक कलाकार ने दूसरे कलाकार के प्रति दर्शाया यह एक सम्मान है। सुना है हमारे यहाँ भी एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी ने गाये मीरा के भजनों को लता मंगेशकर ने किसी भी आग्रह पर गाना स्वीकार नहीं किया।
फ़ैज़ की नज़्में बहुत पिक्चरस्क हुआ करती थी। शब-चित्रांकन के वे माहिर शायर थे। उनकी नज़्मों को पढ़ते हुए एक तस्वीर अपने आप आँखों के आगे उभरती चली आती है।
आज फिर हुस्ने -दिलदारा की वही धज होगी,
वही ख़्वाबिदा –सी आँखें, वही काजल की लकीर,
रंगे-रुख़सार पे हल्का-सा वो ग़ाज़े का ग़ुबार,
संदली हाथ पे धुँधली-सी हिना की तहरीर।
उन्होंने भले ही इसे ‘मौज़ू-ए-सुख़न’ कहा हो परंतु सच तो यह है कि उनका श्रृंगार यहीं तक सीमित नहीं रहा। वे आगे कहते हैं-
उन दमकते हुए शहरों की फ़रावा मखलूक, (असंख्य जनता)
क्यों मरने की हज़रत में जिया करती है,
ये हसीं खेत, फटा पड़ता है जोबन जिनका,
किसलिए इनमें फकत भूख उगा करती है?
इस नज़्म की खासियत यह है इसक एबाद फ़ैज़ फिर उसी नाज़ुक एहसास की ओर लौटते हैं जहाँ से बात शुरु की थी-ये भी हैं, ऐसे कई और मज़मूं होंगे,
लेकिन उस शोख के आहिस्ता से खुलते हुए होंट,
हाए उस जिस्म के कमबख्त दिलावेज़ खतूत
...... अपना मौज़ू-ए-सुख़न इनके सिवा और नहीं,
तबअ- ए-शायर का वतन इनक सिवा और नहीं।
समय-समय पर फ़ैज़ की शायरी ने अपने समय को आशा की एक किरण नई दिखाई, लोगों को हिम्मत बँधाई -
चंद रोज़ मेरे जान! फ़कत चंद ही रोज़!
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने को मजबूर हैं हम।
का यह चित्र यूँ आगे बढ़ता है- लेकिन इस ज़ुल्म की मीआद के दिन थोड़े हैं,
इक ज़रा सब्र कि फ़रियाद के दिन थोड़े हैं,
बहुत आशावादी थे फ़ैज़, कहते रहे-
अर्सए-दह्र की झुलसी हुई वीरानी में
हमको रहना है तो यूँ ही तो नहीं रहना है,
अजनबी हाथों का बे-नाम गराँबार ( भारी) सितम
आज सहना है, हमेशा तो नहीं सहना है।
समय सचमुच बदला मगर बेहतर नहीं हुआ। कुछ पल को लगा सपने सच हुए परंतु सभी केलिए यह एक मायाजाल था, दृष्टिभ्रम था, कहीं कम, कहीं अधिक पर सभी संवेदनशील लोगों के लिए यह ‘नया जमाना’मोह भंग का समय था। कितने दु:ख की बात है कि अपने देश की हालत पर फ़ैज़ को कहना पड़ा-
निसार तेरी गलियों पे ऐ वतन
कि जहाँ चली है रस्म, /कि कोई न सर उठाके चले।
स्वयं फ़ैज़ अभिजात्य परिवार के थे, हमेशा अच्छे पद पर कार्यरत रहे, उनकी पत्नी एलिस सुशिक्षित अंग्रेज़ थी परंतु तब भी उन्होंने हमेशा आम आदमी के दर्द को समझा। फ़ैज़ की शायरी गूँगी अवाम की वह ज़बान है जिस पर कोई ज़ुल्म, कोई ताकत कोई ताला न लागा सकी। अपने समाज का जो चित्रण फ़ैज़ ने किया वह कितना ही दुखद और करुण क्यों न हो परंतु उसकी सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता। फ़ैज़ की शायरी शब्दों की ताकत पर विश्वास दिलाती है। वे एक तरफ़ ताकतवरों को ललकार सकते थे-
तुम अपनी करनी कर गुज़रो
तो दूसरी तरफ़ कमज़ोरों को दिलासा भी दे सकते थे-
ये दिन तो कई बार आये /सौ बार बसे और उजड़ गये।
फ़ैज़ सूफ़ी साहित्य से केवल प्रभावित ही नहीं थे बल्कि अपने समय के सूफ़ी संत जैसे मलंग साहब,आशिफ़ खान, वसीफ़ के संपर्क में भी रहा करते थे। उनके लिए प्रेम से बढ़कर कुछ नहीं था-
“आये हाथ उठाये हम भी,/ हम जिन्हें रसमे-दुआ याद नहीं/
हम जिन्हें सोज़े-मुहब्बत के सिवा/ कोई बुत, कोई खुदा याद नहीं।
फ़ैज़ के शायरी के कई मूड हैं,कई शेड हैं, और हैं कईं रंग और इसी में है समय,समाज और देश की चिंता। उनकी शायरी में राजनैतिक व्यंग्य भी हैं, समाज की वर्तमान हालत पर अफसोस भी। उनकी नज़्म ‘कुत्ते’पढ़कर आश्चर्य होता है की कुत्तों को प्रतीक बनाकर कैसे उन्होंने आम लोगों का खाका खिंचा जो अपनी ही कुव्वत को नहीं पहचानते-
ये गलियों के आवारा कुत्ते/ ...कोई इनको एहसासे-जिल्लत दिला दे/ कोई इनकी सोई हुई दम हिला दे/
तो ही कुछ बात बने...ये चाहे तो दुनिया को अपना बना लें / ये आक़ाओं की हड्डियाँ तक चबा ले
नहीं तो ये कुत्ते हैं- जो बिगड़ें तो एक-दूसरे से लड़ा दो/ ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखादो।
इन नज्मों को पढ़ते हुए एक सिहरन होती है, एक कंपकंपी- सी छूटती है। यह हमारे समय की वह सच्चाई है जिसे हम स्वीकारते तो है पर कभी-कभी इससे भागने को जी करता है। यह वह आईना है जिसके सामने खड़े रहकर खुश होना संभव नहीं।। देश-दुनिया की इस कड़वी सच्चाई से सबक लिया जा सकता था, बहुत कुछ सीखा जा सकता था पर वे क्यों सीखते जो गरीबों के रहनुमा बने फिरते रहे, इसमें उनका बड़ा नुकसान था। जिगर मुरादाबादी याद आते हैं- “उनका जो काम है वो अहले-सियासत जानें / मेरा पैगाम मुहब्बत है जहाँ तक पहुँचे।” और सच में एक सजग-संवेदनशील नागरिक के नाते फ़ैज़ ने अपना कविकर्म और कविधर्म बड़ी ईमानदारी से निभाया। उनके लिए शायरी ‘आर्ट फॉर द सेक ऑफ आर्ट’ भर नहीं थी, उनके लिए यह एक संघर्ष था जिसे हर आदमी ने अपनी क्षमता और योग्यता के अनुरूप करना था क्योंकि संघर्ष जीवन और कला दोनों ही की माँग हुआ करती है। निस्संदेह अपने तई फ़ैज़ ने ये संघर्ष भरपूर किया, मात्र स्वयं संघर्ष ही नहीं किया अपितु औरों को भी इसके लिए प्रेरित किया।
एक और हैं दिल को सुकूँ देती फ़ैज़ की बेहद नाज़ुक गज़लें जैसे “ गुलों में रंग भरे/ बादे –नौबहार चले”,“कब याद में तेरा साथ नहीं/ हाथ में तेरा हाथ नहीं”, “दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए गम आते हैं/ जैसे बिछड़े हुए काबे में सनम आते हैं” , “सुबह की आज जो रंगत है पहले तो न थी”..... फ़ैज़ की शायरी ऐसी श्रृंगारिक गज़लों से भरी पड़ी है जिन्हें आप अकेले में गाते-गुनगुनाते हैं। एक तरफ वे कहते हैं- “मेरे कब्ज़े में है कायनात/मैं हूँ आपके इख्तयार में”, “तेरा हुस्न दस्ते-ईसा/ तेरी याद रूहे-मरहम” तो दूसरी अंदर तक हिला देने वाली उनकी नज़्में हैं फिर चाहे वह –“यह दाग-दाग उजाला हो” या हम जो तारिक राहों से गुज़र आए” हो या कि “ज़र्द पत्तों का बन मेरा देस है” या “खत्म हुई बारिशे-संग’ हो “फिर बर्क फ़रोजा है सरे-वादिए –सीना” हो सूची लंबी है, ये वे नज़्में हैं जिन्हें हम अपने समय का दस्तावेज़ कह सकते हैं क्योंकि हर नज़्म अत्याचार और अनाचार की एक कहानी कहती है। गजल हो या नज़्म फैज ने जो लिखा बेजोड़ लिखा, बेमिसाल लिखा यही वजह थी कि उन्हें अपने चाहने वालों का प्यार भी मिला तो अपार मिला और वह देश की सीमा से परे मिला।
फ़ैज़ एशिया के पहले कवि हैं जिन्हें ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ मिला। उनका निधन 29 नवंबर 1984 को लाहौर में हुआ। इसी वर्ष उन्हें ‘नोबल पुरस्कार’ के लिए मनोनित किया था मगर राजनैतिक कारणों से उन्हें यह न मिल सका। हाँ मरणोपरांत 1990 में पाकिस्तान का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार ‘निशाने इम्तियाज़’ अवश्य मिला। सच कहा था उन्होंने- “फ़ैज़ थी सर बसर मंज़िल / हम जहाँ पहुँचे कामयाब पहुँचे”
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