Narendra Kohli : Samaj, Jismein Main Rahata Hoon
सामाजिक केनवास पर लेखकीय स्मृति-दृश्यों का कोलाज
बी .एल. आच्छा
नरेंद्र कोहली की पुस्तक 'समाज जिसमें मैं रहता हूं' कुछ विशिष्ट है। एक लेखक के आत्मकेन्द्र में अपनी जीवन यात्रा का समाजशास्त्र भी उसकी तहों में बसा रहता है। जब ये स्मृतियाँ शब्दों की सहयात्री बनती हैं, तो कभी संस्मरण बन जाती हैं। कभी जीवनी के अंश। कभी डायरी की तरह रेशा- रेशा दिन विशेष का अनुभव पाठ! कभी इसी में वैचारिक स्पन्द झलक मार जाते हैं। कभी अनुभव निकट दृष्टि में क्रोध- क्लेश- हर्ष के अंतरंग-पाठ बन जाते हैं। कभी दूरदृष्टि में सबक और व्यंग्य के मिश्र-पाठ! पर तय है कि लेखक का 'व्यक्ति' जिस सामाजिक परिवेश से गुजरता है उसके संवेदनीय पक्ष उसके लेखन से चिपके नजर आते हैं। इस बहाने लेखकीय व्यक्तित्व जितना सामने आता है, उतना ही सामाजिक घरातल भी। एक तरह से सामाजिक अनुभवों की आत्मकथा, समाज-तंत्र से सनी डायरी, संस्मरणों की यथा-व्यथा, वैचारिकी के उन्मेष, लेखकीय स्वभाव की प्रतिकृति, सृजन-यात्रा की सांस्कृतिकी, लेखक -पाठक के सहकार, सृजन-संवाद के विशिष्ट पहलू, सृजन की राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान जैसे कई पक्ष समावेशी बनते जाते हैं।
नरेन्द्र कोहली की पुस्तक "समाज, जिसमें मैं रहता हूँ "इसलिए विशिष्ट बन बड़ी है कि इसमें वे खुद उतने सम्मूर्त नहीं होते, जितना कि लेखक के आसपास का समाज और वह भी इतनी विधाओं का संक्रमण करके जीवन के स्मृतिमान अंशों का कोलाज। 'समाज, जिसमें मैं रहता हूँ' का लेखक समाज-परिवार की नजरों' में जरा पुराने किस्म का सख्तमिजाज़ लगता है। हर कोण से यह उस पीढ़ी की विशेषताओं का प्रतिरूप है।चाहे वह शिक्षक के रूप में हो, पति या गृहस्वामी के रूप में हो,आचार-विचारों की सांस्कारिकता के रूप में हो, भाषाज्ञान और शब्द प्रयोग पर चौकस लेखक- प्राध्यापक के रूप में हो, अतिथि सत्कार के यथोचित मान- सम्मान के धारक रूप में हो, औचित्य और अनौचित्य के निदर्शक रूप में हो। यह टोका-टोकी बेबाक अभिव्यक्ति से बाज नहीं आती। न समझौतापरस्त होती है, न कहने से चूकती है। यही बात घर-परिवार से लेकर साहित्यिक-शैक्षणिक समारोहों तक बिन-चुप्पी के खरोंचें मार जाती है। असल में इतने परिदृश्यों में जो पात्र उतरकर आये हैं, वे जीवन्त घटनाओं के हैं। पर इन सबके सामने होकर पर भी कोहली जी नेपथ्य में उतने ही सचेत-सावधान है और कभी कभी तो खुद को ही नहीं बख्शते।
यह लेखकीय नेपथ्य इस जीवन्त सामाजिकी के बीच उन संधियों को पहचानता है, जो आयोजकों के कार्यसाधक प्रारंभिक व्यवहार के संजीदापन को और कार्य संपन्न होने के उत्तर- व्यवहार के सूखेपन को बखूबी व्यंग्य तक ले जाता है- "देखो ! कोई आया तो ठीक नहीं तो टैक्सी। लौटती हुई बरात वैसे भी चवन्नी की होती है।" और कहने में कोई चूक नहीं -'' कार्यक्रम से पहले वे आपके पीछे और कार्यक्रम के बाद आप उनके पीछे।"मगर ये व्यंग्योक्तियाँ अलग अलग परिदृश्यों में अपना कोलाज बनाती हुई अंत में एक फलसफे तक जाती हैं। यह फलसफा अनुभवों की निगमन पद्धति (Deductive Method) से उभरता है, उदात्त और अनासक्त नजरिये के साथ ।पहले सवाल- "सोचता हूँ कि यह समाज कैसा है? -- सारे लोग एक जैसे तो है नहीं कि समाज को कोई एक नाम दिया जाए। सब प्रकार के लोग हैं। आदर्श कुछ और हैं, व्यवहार अपनी सुविधा के अनुसार हैं।"
नरेन्द्र कोहली की यह पुस्तक उनके स्वर्गावसान के कुछ पहले की है, मगर वह भी कह जाती है, जो स्वर्गावसान के बाद भी दुनियादारी का सच है - 'यह प्रतिभा और सामान्यता का संघर्ष है। प्रतिभा का सम्मान होता है, किंतु वह सामान्य आदमी के आचरण में स्थान नहीं बना पाती। प्रतिभाशाली के संसार से विदा हो जाने के बाद लोग उन्हें पहचानते हैं। तभी उनको हार पहनाये जाते हैं।" बकौल रामनिवास यादव जैसे मित्र के बहाने-" लोग चाहते हैं कि विवेकानन्द और भगतसिंह पैदा हों, किन्तु उनके अपने घर में नहीं, पड़ौसी के घर में।" और यह फलसफा भी अनसुलझा- सा- "इन निष्कर्षों को कहां तक स्वीकार करूँ?" यह तो पाठकीय समझ के लिए जीवन की पुस्तक का खुला अंत है, निरंतरता की सामाजिकी का सार्वकालिक अनेकांत।
कोहली जी न तो समाज सुधारक हैं, न व्यवहारों के नियामक| पर जो विसंगत और सत्य से दूर है, वह उनकी प्रकृति को स्वीकार्य नहीं। अवसरवादी समझौते और अनुचित का पोषण तो दूर, भाषागत प्रयोगों पर भी उनका शिक्षक सोदाहरण बरस पड़ता है। फिर यह नहीं देखते कि वह किसी क्षेत्र का सबसे बड़ा समाचार पत्र है या कोई जानीमानी हस्ती | इन उदाहरणों में व्याकरण ही नहीं, अर्थ-दोष इतने ज्यादा हैं कि वे बिनटोके रह ही नहीं पाते। पत्रकार को भाषा का पाठ पढ़ाते हुए वं लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भाषा पर बेबाकी से कहजाते हैं - "हत्यारे ने घटना स्थल पर आकर मृतक की हत्या के काम को अंजाम दिया। सोचता हूँ। उन्हें समझाऊँ कि उसने हत्या के काम को अंजाम नहीं दिया, बस हत्या की।" आज्ञा और अनुमति, पहुँचा दूं- छोड़ दूँ, बाध्यता या विवशता, जमींदोज या धराशायी, व्यवसाय और व्यापार, वज़ह और बेवजह, नज्म और कविता, गोहत्या और गोकशी, अता और अदा जैसे अनेक शब्दों के बीच के भेद को सामने लाते हैं ,एक अनुशासी वैय्याकरण की तरह। मगर लोग उन्हें 'हिन्दी का तालिबान' कहते चूकते नहीं।पर यहाँ भी कोहली जी का व्यंग्य भी उन्हें लपेटने से चूकता नहीं-" तालिबान बहुवचन है, ,मैं अकेला तालिबान कैसे हो सकता हूँ?"
और सचमुच में कोहली जी उस पीढ़ी के अकेले संस्कारक नहीं हैं। उस काल के शिक्षक का भाषा-बोध और शब्दचयन की उपयुक्तता ही नहीं, व्यावहारिक सांस्कृतिकी भी इन व्यवहारों पर अंगुलि उठाती है। असल में इस स्वभाव में एक निर्लेप भाव ऐसा उगा है, जो लेखन के लिए उन्हें लेखन के लिए विश्वविद्यालयीन प्राध्यापकी से समयपूर्व सेवानिवृत्ति तक ले आता है। साहित्यिक या अन्य कार्यक्रमों में बुलव्वों के लिए अपने निर्भीक सत्यांश से विचलित नहीं होते। जैन मुनि की पुस्तक के विमोचन प्रसंग में कोहली जी और वैदिक जी दो ध्रुव हैं। दो आकांक्षाएँ हैं। और इस पर प्रहार करने में उन्हें लगता है कि सत्य के लिए 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति '। पर यह सब इन संस्मरणों में अपने को औरों से बेहतर दिखाने के लिए प्रहार के व्यंग्य नहीं, स्वभाव और लेखकीय आकांक्षा की अपनी प्रकृति है। छद्म को न जीना और सच को कह देना ।यही तो अभिव्यक्ति के खतरे उठाना है। यों हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रति अगाध आस्था वाले कोहली जी के लिए "बाणभट्ट की आत्मकथा" के अघोरनाथ का कथन यहाँ चस्पा करना उचित होगा- "किसी से नहीं डरना, न लोक से न वेद से। "यह छाप ही खाँटी व्यक्तित्व की पहचान बन जाती है।
इन संस्मरणों के संधि-स्थलों में कई सच्चाइयाँ आकाश झाँकती नजर आती हैं। शुरुआत में पचपन वर्ष के वैवाहिक जीवन की नोट-शीट पर पत्नी की यह टिप्पणी- "आपने जीवन भर घर का तो कोई काम किया ही नहीं।" मगर इस टिप्पणी में नारी- विमर्श की तर्ज पर फूटा यह पुरुष या पति - विमर्श भी कम मौजू नहीं है ।पूरी रामकथा है पुरुष दिनचर्या की। पर जैसे स्त्री के घरेलू कामकाज को मान्यता नहीं मिली है ,उसी तरह घरेलूमान में पति को भी। बहुत मासूमियत के साथ अपने घरेलू कामों की फेहरिस्त संस्मरण को रंजक बना देती है। और ये सारे परिदृश्य अलग-अलग पात्रों- घटनाओं से संबंधित होते हुए संवादी नाट्य- बंध बन जाते हैं। न अपने को छुपाने की चालाकी, न दूसरों पर नाहक प्रहार। लेखक जिस चट्टान पर खड़ा है, उससे पिघलता-फिसलता नहीं है ।इसीलिए अपने भतीजे के विवाह में नवग्रहों की पूजा और मंत्र- पाठ के समय जो बुद्धिशून्य उच्छृंखलता और पंडित से चुहल करती युवा-पीढ़ी को बिना टोके नहीं रहते। अलबत्ता उन्हें ही महसूस होता है कि मैं सब को रोककर उन्हें सुधारने क्यों लगता हूं? पर शास्त्र- विधि में लोक -रीति का हास- परिहास इस सांस्कृतिक व्यक्तित्व को स्वीकार नहीं। स्वामी विवेकानंद की जीवनी के लेखक को लगता ही है कि नरेंद्र कोहली के भीतर भी विवेकानंद के पुनर्सृजन का नरेंद्र समाया हुआ है।
इन संस्मरणों में सांस्कृतिक आस्था के विपरीत आचरणों में वे स्पष्ट और मुँहफट हैं, तो कई मुद्द्दों पर वे अनावश्यक लचीलापन नहीं दिखाते। राष्ट्रभाषा हिन्दी को सरल बनाने की वकालत करने वालों के सामने साफ साफ कहते है-' ज्ञान के जिस क्षेत्र जो शब्द हैं। वे तो बोले ही जाएँगे | आप विधि,विधान, संविधान, विधायक और इस प्रकार के अन्य शब्दों को सरल कैसे करेंगे? कृषि क्षेत्र की चर्चा करेंगे तो उन्हीं शब्दों का प्रयोग करेंगे, जो उस क्षेत्र है। रोगों और औषधियों के नामों को अंग्रेजी में कहा जाएगा तो अंग्रेजी को सरल करने का सुझाव आप कभी नहीं देंगे। तो हिन्दी के साथ अत्याचार क्यों ? "यही बातें एक आस्थावान हिन्दू की सतर्क सांस्कृतिक निष्ठा के साथ अमेरिकी जमीन पर भी उतरकर आई हैं, पर वे उस जमीन पर उनकी संस्कृति की हीनतर नहीं कहते। कोहली जी के भीतर की जमीन और आकाश पौराणिक भारतीय महाकाव्यों की सांस्कृतिक धारा के साथ विवेकानंद की नये भारत की वाणी से अनुगुंजित हैं और जीवन शैली में उसकी व्यावहारिक आकांक्षा।
संस्मरणों की इन स्मृति रेखाओं को इस पुस्तक के अंत से देखना जरूरी है। लिखा है, 29-7-2020 (राफाल का भारत पहुँचने का दिन)। एक शक्तिमय होते राष्ट्र की आकाशी गूँज । और इसी से लेखक के जीवन परिदृश्यों को देखें तो एक रील सी दृश्यमान होती चली जाती है। इसी से उनके व्यक्तित्व और स्वभाव की रेखाएँ खुलती नजर आती हैं। अपने व्यक्तित्व की पहचान के लिए उन्हें ज्योतिष हस्तरेखाविद के सामने हथेली नहीं फैलानी पड़ती। वे जानते हैं-"मैं भी घरघुस्सू किस्म का अंतर्मुखी आदमी हूं। अपनी ओर से बढ़कर न किसी से परिचय कर सकता हूं, न मित्रता इसीसे अनेक लोग मुझे अहंकारी भी मानते हैं। जो हूँ सो हूँ, अपना क्या कर सकता हूँ। "और इस प्रकृति से टकराते कई परिदृश्य - समय लेकर प्रकाशक का लेखक के पास समय पर न पहुँचना और लटकाते रहना। साक्षात्कार लेने वाली महिला के अटपटे सवाल निरंकुश जी का अंकुशविहीन व्यवहार! पद्मश्री प्राप्ति के लिए यह पूछना कि इस उपलब्धि के लिए किसको पकड़ा? गुड मॉर्निंग और नमस्ते की फांक और वोट माँगने आई महिला से हिन्दी - अंग्रेजी को लेकर मुठभेड़। राँची में दीक्षांत भाषण के समय महज दस मिनट के संबोधन का लिए लिखित निर्देश और श्रोताओं की अब अनबुझी प्यास। कोहली जी इन प्रसंगों की बेबाकी में न अपने को छुपाते हैं, न सामने वाले को बख्शते हैं- "अकड़ू और अशिष्ट व्यक्ति हूँ, पर अपनी करतूत के विषय में नहीं बताएँगे।" ये लोग चाहे साहित्यिक पृष्ठभूमि के हों या अपने ही घर के भाई-भतीजे, भारतीय परिवेश के हों और अमेरिकी जीवन के परिदृश्य, मगर कोहली जी की जिह्वा और कलम खरी- खरी कह जाते हैं।
यह जिह्वा और कलम तो इतनी बेबाक है कि इन संस्मरणों में जैसे उन्हें लड़ाका-सी बना देती हैं। और यह अनुचित भी नहीं लगती।रांची हो या कोटा या छत्तीसगढ़ के बुलव्वे !
अतिथि प्रबंधों में जरूरी आत्मीयता तो दूर, अनेक कार्यक्रमों में जोत देने की कवायद लेखक को थका देती है। कोटा में तुलसी प्रसंग या छत्तीसगढ़ में लतीफ घौंघी की षष्टिपूर्ति पर इतने लदे - फदे कार्यक्रमों और टुच्चक- टुच्चक अनिर्धारित यात्राओं के बावजूद किसी नये कार्यक्रम में जोत दिये जाने पर कितना खरा और खारा- सा उत्तर आयोजकों के चेहरे पर स्याह बादलों को उतार देता है-"साहित्यकार कोई स्मारक तो नहीं है, जिसे जब चाहे बुलाएँ। वह पत्थर नहीं है, कुतुबमीनार लालकिला या ताजमहल नहीं है। मनुष्य है। काम करता है, तो थकता भी है। आप अपना व्यवहार देखते नहीं, जीवन भर उनके प्रति अपने मन में विष लिए घूमते हैं।"
पुरस्कारों की राजनीति और साहित्यकारों के मदिरापान की सामान्य अवधारणा के बारे में भी कई परिदृश्य हैं। मगर जब श्रोताओं पर प्रभाव के लिए कोहली जी के लेखक पर पद्मश्री हावी कर दी जाती है, तो राँची के का समारोह में वे कार्यक्रम संयोजिका को भी बख्शते नहीं है। सच भी है कि इन आकर्षक सम्मानों और उपाधियों से श्रोताओं को खींचा जाता हैं, तो लेखक कहीं पीछे रह जाता है। फिर साहित्यकारों का परिचय भी इन्हीं में सिमटकर रह जाता है -"लेखक को जानता इतना सरल नहीं है। वह बहुत थोड़ा सा बाहर होता है और उससे कहीं अधिक अपने भीतर होता है।" और सच्चाई यही कि कोहली जी का आंतरिक व्यक्तित्व जिन पौराणिक कृतियों के पुनर्सृजन, देश की संस्कृति के गुणगान की मिशनरी आस्था, विवेकानन्द की निर्भीक वाणी के पुनर्संचार से जुड़ा है, वही लेखक और श्रोता का वास्तविक धरातल है। उनकी कृति 'महासमर 'में वही जीवन्त है, तभी तो कोई अपरिचित पाठक उसके सभी खंडों की पचास प्रतियाँ मित्रों- पाठकों तक अपने खर्च से पहुंचा देता है। और लेखक की यही मिशनरी आस्था उसे राँची के सेंट जेवियर्स क्रिश्चियन कॉलेज में दीक्षान्त भाषण के लिए खींचकर ले जाती है। दोनों ही अलग-अलग धर्म-संस्कृतियों के होने के बावजूद लेखकीय सत्ता को सर्वोपरि कर देते हैं। तब के राँची में ही रामकथा के आस्थावान फादर कामिल बुल्के और आज के नरेन्द्र कोहली युगीन पाठ बनकर एक हो जाते हैं।
यह पुस्तक एक तरह से लेखक के भीतर जीवंत उसके अनुभव के हिस्से का समाज है और समाज के अनेकानेक परिदृश्यों में उगा हुआ लेखक। दोनों ही टकराते भी नजर आते हैं और पाठकों द्वारा हिलगाये जाते भी। बोलता लेखक भी है, बोलता समाज भी है। पर लेखक और संदर्भित समाज की परतों को खोलते-सहेजते इन संस्मरणों की विशेषता न कथाकथन की वर्णनात्मक शैली है, न निबंधों का नरेटिव। बल्कि में परिदृश्य नाट्यरंगों की तरह संवादी हैं ।पात्रों के भीतर तक झाँकते और उनसे भीतर से उगलवाते हुए ।अलबत्ता जो असंवादी नरेटिव है, उसमें भी लेखक उन पात्रों की प्रकृति और व्यवहारों के साथ अपने को भी खंगालता जाता है। कभी तल्खी में, कभी ऊपर में न दिखते- मगर भीतर में झाँकते दृष्टिबोध में। कभी व्यंग्यात्मक लहजे में- "संरक्षक - का जो अर्थ मेरे अनुभव के शब्दकोश में है, वह है वह व्यक्ति जो संस्था के लिए कोई काम न करता हो और संस्था उसके लिए पलक- पांवड़े बिछाये रखती हो। उसे बोझ न कहकर संरक्षक कहा जाता है।" ऐसे ही कई सूक्तिवाक्य या व्यंग्य- सूक्तियाँ या अनुभवतिक्त- वाक्य भी नुकीला स्पर्श कर जाते हैं-
"लिखना और बोलना दोनों ही काम वाणी के हैं ,अर्थात् सरस्वती के वरदान हैं।" ... "साहित्य क्षेत्र में नाम कटवाना एक प्रकार का पुरुषार्थ माना जाता है।" ....."मैं आपका अतिथि हूँ, बंदी नहीं।"
अपने अनुभव के हिस्से के विविध परिदृश्यों का कोलाज बनाते ये संस्मरण नाट्य-संवादी संरचना में जितने विज्युअल हैं, उतने ही अभिव्यक्ति में सहज-संप्रेषी | शब्द प्रयोग की से सजगता और कथा-प्रवाह सी शैली तो बाँधती ही है, पर दृश्य के भीतर दृश्य, कथा के भीतर से उगती कथा के भी कई बंध हैं, जो उस अनुभव को पाठको में धंसा देते है। अलबत्ता कतिपय प्रसंगों में लेखक यदि अपने भाषण या व्याख्यान की विस्मृति के बजाय सारभूत को लिख जाते तो महासमर और राम-कृष्ण की पौराणिक कथाओं या विवेकानंद की जीवनी की लेखकीय छवि की तरह उनकी सांस्कृतिक छवि की गहरी झलक मिल जाती । "समाज, जिसमें मैं रहता हूँ" निश्चय ही संस्मरणात्मक शैली में नवीनता और नाट्यरंगों की सी पर दृश्यात्मकता लिए हुए है। और कथाकथन शैली से हटकर जीवंत संवादिता और परिदृश्यों की सहज बुनावट इसे विशिष्ट बना देती है।
बी. एल. आच्छा
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