Nilu Nilima Nilofar novel by Bhisham Sahni
भीष्म साहनी का उपन्यास 'नीलू नीलिमा नीलोफर’
सन् 2000 में प्रकाशित भीष्म साहनी का और एक उपन्यास ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’। सांप्रदायिकता की समस्या को लेकर कई वर्ष पहले भीष्म साहनी का उपन्यास आया था, ‘तमस’। देश में फैली धर्मान्धता, राजनीतिज्ञों द्वारा फैलाई जाने वाली हिंसा, घृणा, तनाव, अविश्वास के बेबाक सच्चाई का चित्रण तमस की विशेषता है। दो प्रेम कथाओं के जरिये भावना, लगाव, प्रेम, समर्पण, एकता को तरल, कोमल संवेदनशीलता, भावुकता, परंपराओं का खंडन, उससे निर्माण होनेवाली विडंबना को केंद्रीय आधार बनाकर सांप्रदायिक सौहार्द की स्थापना में बहुत ही रोचक उपन्यास ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’ है।
प्रेम भावना को जातिगत, धर्मगत, वर्गगत, प्रांत, नस्लीय आधार पर हम विभाजित नहीं कर सकते। प्रेम एक नितांत वैयक्तिक और सर्वोत्कृष्ट एवं पवित्र, निर्मल जल समान भावना है। इसके आधार पर रिश्तों का ढांचा खड़ा होता है, मानवीयता बनी रहती है। अन्यथा सब कुछ तितर-बितर हो सकता है। धर्म के ठेकेदार उसे वैयक्तिकता की श्रेणी में रहने नहीं देते खासकर अंतरजातीय, अन्तरधर्मीय, प्रेम विवाह के मामले में हिंदू-मुस्लिम, दलित-ब्राह्मण युवक-युवती प्रेम के मामले में एक संकीर्णता, कट्टरता, असहिष्णुता और एक दूसरे को शत्रु के रूप में देखने का भाव तुरंत पैदा होता है जो सांप्रदायिक जातीयता के कारण। लगातार भारत में धर्म का स्वरूप बदल रहा है। केवल स्वार्थ की पूर्ति एवं राजनीति के हाथ की कठपुतली बन चुका है, धर्म। सांप्रदायिक लोग धर्म के आधार पर सामाजिक ध्रुवीकरण तुरंत पैदा करते हैं और दो धर्मों को शत्रु के रूप में एक-दूसरे के सामने खड़ा करते हैं। धार्मिक मान्यताओं को लेकर काफी घमासान दोनों में छिड़ता है और उसकी अनिवार्य परिणति दंगों, हिंसा, हत्याओं में होने लगती है। एक संप्रदाय अपने हितों के सुरक्षात्मक मुद्दे को उठाकर दूसरे द्वारा असुरक्षा पैदा होने के भाव का निर्माण करता है। आज भारत में सर्वत्र सांप्रदायिकता की विद्वेष-अग्नि फैल चुकी है। इसलिए हर भारतीय होने से पहले या तो हिंदू होता है या मुसलमान, सिक्ख, बौद्ध जैन, क्रिश्चियन, दलित, आदिवासी होता है।
सांप्रदायिक लोग सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिए धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतंत्र का सबसे पहले विरोध करने लगते हैं तो कट्टरपंथी अपनी गौरवशाली परंपरा का बखान कर उसकी रक्षा और पुनर्स्थापना करना चाहते हैं। मसलन हिंदुत्व उसकी उसी का रूप है। परिणामस्वरूप यह देश किसका है? हिंदूओं का या मुसलमानों का? जैसे प्रश्न उभर कर आते हैं। देश अब प्रोपर्टी बन चुका है, और उस पर अधिसत्ता प्रस्थापित करने के लिए ही संघर्ष हो रहा है। इस देश पर अपना मालिकाना हक जतलाकर उसे ‘हिंदू राष्ट्र’ के रूप में विकसित करने की चाह हिंदूओं में है। यहीं से दो धर्मों के बीच अलगाववादी भावना का निर्माण हो रहा है। उसके बढ़ने के अन्य कारण भी है जैसे- आधुनिक पूंजीवाद, उद्योग, शिक्षा, मध्य वर्ग का सशक्त होना, आर्थिक विषमता सामाजिक, सांस्कृतिक पिछड़ापन, मानसिक रुग्णता भावना आदि।
प्रेम को धर्म के भीतर बाँधना जब शुरू होने लगता है, तब सांप्रदायिकता पैदा होने लगती है। नीलू उर्फ एक कट्टरपंथी मुस्लिम घर में पैदा हुई लड़की के मन में प्रेम का अंकुर खेलने लगता है, हिंदू युवक सुधीर के लिए। दोनों एक दूसरे को बेहद चाहने लगते हैं। दोनों को यह पता भी है कि उनके प्रेम को सफल होने में कई समस्याएं आ सकती है। दोनों के घरवालों को जब इस बात का पता चलता है, तब आपने-अपने धार्मिक संस्कारों के चलते वे उसका विरोध करते हैं।
सुधीर के पिता कहते हैं, “न किसी से पूछा, न बताया और आज हमें नोटिस दे रहा है कि मुसलमानी से ब्याह करेगा। हरामी! दूर हो जा मेरी आंखों से।“ सुधीर के पिता ऊंची जाति के नहीं थे, पर हिंदू थे। स्वभाव से ‘पियक्कड़’ और ‘परंपरागत संस्कार’ उन पर हावी थे। उन्हें प्रेम विवाह से चिढ़ थी, वह भी मानता था कि प्रेम विवाह करने वाले युवक-युवतियां गिरे हुए लोग होते हैं जिनका नैतिक पतन हो चुका होता है। उसे भी प्रेम उछुखलता और कामुकता नजर आती थी।... “युवतियों के प्रेम करना तो और ही घृणास्पद है, जघन्य पाप है। लज्जा स्त्री का जेवर है, उसे ही खो दिया तो पीछे क्या रह गया।..गाली, बाजार में मुंह फाड़ कर हँसना, लड़कों के कमर में हाथ डाल कर घूमना.. यह गिरावट नहीं तो क्या है?” तो नीलू का भाई हमीद कहता है, “तुम हमारे खानदान के मुँह पर कालिख पोत कर गई हो। हमारे खानदान की कोई इज्जत-आबरू को तुमने मिट्टी में मिला दिया है। हमारे वालिद नजाकत के मारे किसी को मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहे.. मुँह से भले ही कोई कुछ न कहें पर लोग इशारे करते हैं। इस नजर से हमारी तरफ देखते हैं, जैसे उन्हें हमारा कोई भेद मालूम हो गया हो.. तुम तो गुलछर्रे उड़ती रही हो। तड़पते तो हम रहे हैं.. तुम उसे खत डाल सकती है, कि वह दीन कबूल कर ले, कलमा पढ़ ले। हम लोग उसे छाती से लगा लेंगे, वह हमारा अपना हो जाएगा। अगर दीन कबूल नहीं करें तो उसके साथ हमारा रिश्ता अपनों जैसा नहीं हो सकता है।“ एक परंपरागत संस्कारी हिंदू बाप का मन और एक परंपरागत कट्टर मुसलमान भाई का मन किस प्रकार होता है यह उसका उदाहरण है। दोनों से पता चलता है कि रस्मों, रिवाजों, धर्मों की बात जब आ जाती है तब दोनों एक दूसरे के आमने-सामने खड़े हो जाते हैं अपने-अपने धर्म की लकुटियाँ थामें!
सांप्रदायिकता के संबंध में एक तीसरा वर्ग भी महत्वपूर्ण है, किंतु वह किसी प्रकार का सार्थक निर्णय नहीं लेता। वह अपने तर्कों से प्रश्न की जड़ तक पहुंचने का नाम मात्र प्रयास करता है, वह है देश का बुध्दिजीवी, मध्यवर्ग जिसके प्रतिनिधि है प्रो. सेठी, डॉ. गणेश, उनकी पत्नी, डॉ. सहगल, डॉ. वर्मा, शर्मा, चावला, डॉ. असलम, रघुनाथ आदि। ये सबके सब समाजशास्त्री, दर्शनशास्त्री, इतिहासविद अपनी अर्धांगिनियों सहित नीलू-सुधीर की शादी की पार्टी में इस प्रेम विवाह पर चर्चा करते है। डॉ.असलम और हेमा के प्रेम विवाह पर चर्चा करते है- “सुना है, तुम पर पत्थर पड़े थे, पुष्प वर्षा हुई थी और तुम जान बचाकर भागे थे। कामदेव ने तो एक ही बाण चलाया, पर भाइयों ने तो पत्थरों की बौछार ही कर दी।“ एक समाजशास्त्रीय कहता है “अंतरजातीय विवाह होने लगे तो एक बहुत बड़ी समस्या का हल हो जाये।“ एक का मानना है कि, प्रेम विवाह, अंतरजातीय विवाह से परेशानियाँ बढ़ेंगी। प्रो. सेठी नीलू से को कहता है “मुहब्बत फूल से ज्यादा नाजुक और फौलाद से भी ज्यादा मजबूत होती है।“ तुमने बड़ी हिम्मत का काम किया है और स्वयं नीलू के मन में प्रश्न है कि मैं ने कौन-सी हिम्मत की है। वह मात्र अपने प्यार को पाने की चाहत रखती है। उसके मन में प्रेम, लगाव, संवेदनाएं भरी है, न कि हिम्मत का काम, साहस का काम करने की भावना। ये सभी प्रतिक्रियाएँ मध्य युगीन बुद्धिजीवियों की हैं, जो सिर्फ बहस ही कर सकते हैं। निष्कर्ष कुछ भी नहीं, न वे भावना को समझते हैं, न ही उसे व्यवहारिक, क्रियात्मक, संवेदनात्मक रूप देते है, यही उनकी सीमा है।
नीलू और सुधीर भागकर शादी करके शिमला पहुँचते है, छिपकर जीवन जीने लगते हैं लेकिन हमीद वहाँ पर उनके खोजते हुए पहुँच जाता है। किसी तरह अपनी बहन को बहला-फुसलाकर माँ का हाल सुनकर अपने साथ, अपने गाँव लेकर चलता है। नीलू अब कुछ ठीक-ठाक होगा, यह सोचकर सुधीर के कहने पर हमीद के साथ गाँव आती है। रास्ते में ही वह हमीद के रवैया और इरादे को जान जाती है। हमीद सुधीर के बारे में भला-बुरा कहने लगता है। उसे भी गालियाँ देने लगता है और जबरदस्ती उसका ‘हमल’ (बच्चा) गिरवाता है। तभी उसका गाँव में प्रवेश कराता है। बेबस नीलू जब अपनी माँ के सामने चली आती है तब वह उसकी तरफ बदहवास नजरों से उसके शरीर पर पड़े खून के धब्बे को देखकर समझ जाती है, की उसका बच्चा हमीद ने गिरवाया है। तब चीखते हुए हमीद से कहती है, “मेरी बेटी की कोख भरी हुई थी, तूने उसका हमल नुचवाकर घोर पाप किया है।“ परंतु हमीद इसे पाप नहीं मानता है। वह तो इसको ‘सबाब का काम’ बताता है। नस्लीय शुद्धि की बात हमीद जैसे धर्मांधों के मन में दिखायी देती है। उसके लिए ऐसे घृणास्पद कार्य करने किसी प्रकार की हिचकिचाहट नहीं करते किंतु ‘माँ’ माँ होती है वह किसी भी धर्म की होने से पहले सिर्फ माँ होती है। इसलिए बेटी की उजड़ी कोख देख कर परेशान होती है, तिलमिली उठती है। अंत में वही अपनी बेटी को तहखाने से निकाल कर उसे उसके पति के पास जाने के लिए कहती है। मुस्लिम स्त्री में स्वतंत्र चेतनावस्था को भीष्म साहनी ने रेखांकित किया है। अतः नीलू उसके संघर्षों का सामना करते हुए अपने प्रेम को पाने में सफल होती है। धर्मान्धता को तोड़ते हुए वे दोनों दिखाई देते हैं। दूसरे शब्दों में सांप्रदायिकता से निजात पाने का यह बढ़िया रास्ता है। किंतु कठिनाइयों से भरा हुआ प्यार सारी दीवारें तोड़ता है।
इसके साथ एक दूसरी प्रेम कथा भी है, नीलिमा और अल्ताफ कि। यह नीलू की सहेली है दोनों के प्रेम में सहजता है। नीलू प्रेम को सर्वस्व मानती हुई धर्म के बंधनों को तोड़ दी है किंतु नीलिमा धर्म परंपराओं दादी, पिताजी के लिए प्रेम को छोड़ देती है। उसकी संस्कारी दादी माँ कई बातें कह कर उसका ब्याह सुबोध नामक अपनी जात बिरदारी वाले लड़के के साथ कराती है। नीलिमा का जीवन बड़ा कष्टतर होता है। उसे चाहिए, उसके जैसा अल्हड़, हंसमुख, दिल खोलकर जीने वाला पति परंतु सुबोध बड़े रोब, कसावट से रहने वाला आधुनिक जीवन को संयत और सँवारकर जी ने वाला। उसके साथ रहने रहते समय नीलिमा ‘फ्रीज‘ हो जाती है, करीने से हंसना, बोलना, खाना-पीना, उठना-बैठना उसे बोझ लगने लगता है। उसका सारा अल्हड़पन, चंचलता, खिलखिलाहट गायब हो जाती है। उसका पति उस पर सिर्फ अधिकार चाहता है जिसके बल पर उसका परिवार अनुशासनात्मक ढंग से चलता है। इन आदतों को नीलिमा ढोती जाती है।
दादी की परंपरा में अपने आप को ढालती है नीलिमा। उसके पिता के संबंध में लेखक का कहना है, “बड़ी उम्र का हर व्यक्ति परंपरावादी होता है... न्यों ही हम बड़े हो जाते हैं, परंपरा के खेल में लौट जाना चाहते हैं। वहां हम सुरक्षित महसूस करते हैं। खेल के बाहर जीवन की चुनौतियों से हमें डर लगने लगता है। परंपरा के खेल में पहुंचकर हम आँख मूंदकर निश्चिंत हो जाते हैं।“
हिंदू समाज में स्त्रियों की स्थिति बड़ी विचित्र है। जैसे नीलिमा अपने प्यार को छोड़कर परंपरावादी रास्ते पर चलती है, वह सुबोध के साथ रहकर आत्महत्या करने तक की सोचती है। वह यह समझ जाती है कि शादी के बाद स्त्री का जीवन अस्तित्वहीन हो जाता है। हर बार स्त्री को उसके पति और उसके घरवालों के माफिक ढलना पड़ता है। नीलिमा पुरुष वर्चस्व के अधीन रहकर जीवन जीने वाली नारी है। नीलू के लिए प्रेम की भावना जीवन ज्योति की तरह रही है, जिसके लिए वह कई संकटों से गुजरती है। नीलिमा मात्र मन में एक कचोट, कसक लेकर अपने आपको सिर्फ ढोती है।
सांप्रदायिक सौहार्द प्राप्ति का मार्ग नीलू-सुधीर के प्रेम जैसे काँटों से चलकर प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि कट्टर धर्मवादी चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, हर समय धर्म और राजनीति का रोड़ा डालकर साफ-सुथरे, प्रेम, मैत्री, समानता, भाईचारे, विश्वास के रास्तों को असुरक्षित करते हैं। हमीद जैसे प्रवृत्तियों से निपटना नीलिमा की दादी माँ और सुधीर के पिता जैसे परंपरागत संस्कारों से मुक्त होना जरूरी ही नहीं बल्कि अनिवार्य है, आने वाले समय के लिए।
हमीद के में डॉ.एम.जी. बिन्दु का कहना सही है कि “सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों उनका स्वर ही हमीद के मुँह में निकला है, इंसानियत की विवेक शीलता उसमें नहीं है। अपने विरुद्ध खड़े रहने वाले हर किसी को चाहे वह सगे-संबंधी हो भाई-बहन हो, वह कुचल डालेगा। मनुष्यता का अंश उसमें नहीं है।“ हमीद और सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों का उद्देश्य “भारत की बहुलतावादी संस्कृति तोड़कर, एकल संस्कृति की स्थापना उनका मुख्य लक्ष्य है। बाबरी-मस्जिद जैसी अड़चनें इसी विध्वंसात्मक हरकतों को ही दिखा रही है। हिंदू-मुसलमान के बीच का प्रेम भी इस विध्वंसात्मक के लिए कारण बनने की संभावना है... सांप्रदायिकतावादियों द्वारा फैलाई जा रही रक्त शुद्धि की भावना उपन्यास में हमीद द्वारा काम कर रही है।“ स्त्री चाहे हिंदू हो या मुसलमान अपने स्वतंत्र विचार भावना से जीने की अधिकारी, सांप्रदायिकता के कारण नहीं रही है। इसलिए नीलू भी अपने आप को सुधीर जैसे बना लेती है। डॉ.एम.जी. बिंदु ने इस उपन्यास के संबंध में ठीक कहा- “इसकी कहानी एकदम प्रासंगिक है। इसने नीलू और नीलिमा दो प्रमुख नारी पात्रों की जिंदगी द्वारा समाज की समस्याओं जैसे सांप्रदायिकता, अवसरवादी राजनीति शोषणतंत्र, नारी शोषण आदि को चित्रित किया है। साथ ही साथ यथार्थ और कल्पना के बीच की टकराहट को भी दिखाया गया है।“
यह स्पष्ट है कि प्रेम सांप्रदायिकता को पराजित करने के लिए काफी है। इसलिए अंतरधर्मीय विवाह होना चाहिए किंतु उसके लिए भारी कीमत चुकानी पड़ती है यह सच्चाई उपन्यास में व्यक्त हुई है।
ये भी पढ़े;