Ek Nadi Ka Dard Poetry by Stuti Rai : स्तुति राय की कविता "एक नदी का दर्द"
एक नदी का दर्द
सुख रहीं हूं मैं
मेरा सतत प्रवाह धीरे - धीरे
रूक रहा है,
तुम मानवों ने, मेरी
सांसों को चलाने वाला
मेरा जंगल छिन लिया
जिसने मुझे अपने सांए तलें
सहेज कर रखा था, लू - थपेड़ों से
मुझे बचाया था,
मेरा हमसफ़र मेरा जंगल।
तुमने मुझे नदी से
मैला ढोने वाली
मालगाड़ी बना दिया।
याद रखों मानवों
जिस देश में नदियां सुखती हैं
वहां की सभ्यता भी
सुख जाती है।
मेरी अविरलता, निर्मलता
को सोख लिया,
मानव तूं भूल रहा है
नदियों का उद्धार
सभ्यताओं का पुनर्जीवन है।
भूल रहें तुम
हमारे भगवान कौन थे?
भ से भूमि, ग से गगन
व से वायु, अ, से अग्नि
न से नीर, ये पंचमहाभूत
यहीं थे तुम्हारे भगवान
लेकिन तुम अपने
बनावटीपन में सब कुछ
भूल चुके हों,
नीर, नदी और नारियों का
सम्मान नहीं करते हों,
तेरी ख़ुद की नादानियां
तुझ पर हावी हो रहीं
मेरे लिए तू आत्महत्याएं
करने लगा है,
मानव! मैं तेरे पवित्र एहसास
और कोमल भावनाओं से
संरक्षित होंगी,
तूं अपनी विद्या पर लौट आ
लौटा दें मुझे धरती के गर्भ में।
स्तुति राय
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