कौन बनेगा मुख्य अतिथि (हास्य व्यंग्य)
"मुआवजे का मौसम", "अपनी डफली अपना राग" के बाद इंडिया नेटबुक्स नोएडा से सद्य प्रकाशित मेरा तीसरा व्यंग्य संग्रह "कौन बनेगा मुख्य अतिथि" (ISBN978-93-95503-280) अब पाठकों के लिए उपलब्ध है। संग्रह की भूमिका लिखी है वरिष्ठ व्यंग्यकार ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त, दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्राध्यापक डॉ हरीश नवल जी ने संग्रह में राजनीति, शिक्षा, साहित्य, समाज की विसंगतियों पर कुल 48 व्यंग्य रचनाएं हैं, जो आपको जरूर पसंद आएगी। यदि समय संभावना हो तो दी गई अमेजन लिंक पर जाकर घर बैठे पुस्तक मंगवा सकते हैं।
Kaun Banega Mukhya Atithi is a satire collection book written by Mukesh Rathor. Amazon Link: https://amzn.eu/d/d9xfpaT
ASIN : B0BW95LHFW
Paperback : 118 pages
Publisher : India Netbook (19 February 2023)
मुकेश राठौर - मो : 9752127511
भूमिका
ग्रामीण परिवेश के भीतर का व्यंग्य उघाड़ता है यह संकलन
डॉ. हरीश नवल
हिंदी गद्य व्यंग्य संसार में यथार्थ ग्रामीण परिवेश संदर्भित व्यंग्य लिखें जाते रहे हैं किंतु मुकेश राठौर की भांति बहुत कम ने ऐसा लेखन किया,जो किसी एक संकलन विशेष में अधिकांशत: व्यंग्य इसी परिवेश के हों। इसे अतिशयोक्ति न समझा जाए कि जैसे व्यंग्य उपन्यास लेखन में श्रीलाल शुक्ल ने 'राग दरबारी' के रूप में जो बहुत बड़े फलक पर ग्रामीण व्यंग्य गाथा दी,मुकेश राठौर ने अपने व्यंग्य में लघु खंडों के माध्यम से देने का प्रयास किया।
अपने तीसरे व्यंग्य संग्रह 'कौन बनेगा मुख्य अतिथि' में समकालीन ग्राम्य दर्शन व ग्राम्य चेतना का व्यांगिक कथातामक लेखा-जोखा मुकेश राठौर ने बड़ी शिद्दत से दिया है। फैंटसीन्मुख कल्पनाशीलता को शाब्दिक पंख देकर उन्होंने अपनी निजी शैली विकसित की है।
पाखंड और भ्रष्टाचार के विविध रूपों का निरूपण करते हुए इस संकलन में लेखक ने जो चरित्र गढ़े हैं,उनमें 'भिया' प्रमुख है। भिया लोकल स्तर के एक मध्यम दर्जे के राजनेता है जो आला दर्जे के राजनेता बनने का सपना देखते हैं। संकलन में उनकी चारित्रिक विशेषताएं तथा क्रियाकलाप मुख्यतः 'एक अस्पताल हो मेरे नाम का', 'पंचायत चुनाव में भिया का नया प्रयोग', 'भिया पर टिके का उल्टा असर', 'भिया की शोक यात्रा', 'राजनीति में भिया का स्वर्ण पदक', 'बदलाव की बयार में बहे बबन भिया' और 'सियासत में गमछे की माया' में देखे जा सकते हैं जिनके प्रतीकार्थ देश की राजनीति से जुड़ते हैं।
राजनीतिक कथ्य को लेकर भिया के अतिरिक्त 'गुमशुदा माननीय की तलाश', 'माननीय तुम कब आओगे', 'पंचायत चुनाव का टलना' और 'ऐसी स्याही लगा दो साहेब जी' में भी भ्रष्ट नेतागिरी पर खासे कटाक्ष हैं।
साहित्यिक संदर्भों से युक्त व्यंग्यों में 'कौन बनेगा मुख्य अतिथि', 'किताबें तो छपती रहेगी, लेकिन...', 'रुपए किलो साहित्य', 'भ्रम से दिग्भ्रम तक', 'साहब की पुस्तक का लोकार्पण', 'जिसे पाठक समझो निकलता है लेखक' तथा 'व्यंग्य अड्डे का सरदार' व्यंग्यों में साहित्यिक राजनीति और उसके काले कारनामों का श्वेत कच्चा चिट्ठा पक्की तरह खोला गया है।
सरकारी कामकाज की बखिया उधेड़ते व्यंग्यों में 'जात न पूछो बाबू की', 'साहब खाने के शौकीन है', 'साहब, मैं और बकरी', 'जो कहने में अच्छा न लगे', 'सर्वर स्साला साहब बन गया', 'अफसरान और किसान' व 'बागरोटी खाने पटवारी जी आए' उल्लेखनीय है।
मीडिया को लेकर 'इस वक्त की बड़ी खबर' खेल राजनीति पर 'आईपीएल में कल्लू की नीलामी' तथा शिक्षा पर चोटीला व्यंग्य 'मास्साब की मूर्ति' पाठक को भीतर तक कचोटती है।
अन्य नोटिसेबल व्यंग्यों में 'बद्री के सपने में बापू','प्रपंचतंत्र', 'गधों की सरकार', 'जब मुर्गा लौटकर न आया', 'कोई रायचंद कोई जॉयचंद', 'बाबूजी बोलते क्यों नहीं', 'गुमशुदा नैतिकता की तलाश'... जो मुकेश राठौर के व्यंग्यकार की रेंज दर्शाते हैं।
यह संकलन कतिपय नवीन मौलिक उद्भावनाएं उद्घाटित करता है जिनमें से एक 'स्वप्न शैली' के माध्यम से रचनाकार की कल्पनाशीलता और उसके सरोकार भली-भांति प्रकट होते हैं। एक विशिष्ट उदाहरण है 'सूरज हड़ताल पर'। हर प्रकार की मिलावट और प्रदूषण होते देख सूरज घबरा गया। उसे लगा कहीं वह भी बोतल, सिलेंडर, गमले की तरह सोलर प्लेट का होकर न रह जाए। अतः वह हड़ताल पर चला गया। अंधेरा हुआ तो इस अंधेरगर्दी का लाभ गिद्ध लेने लगें...। समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा आमजन का शोषण इस व्यंग्य के माध्यम से लेखक ने दर्शाया है।
संवादात्मक शैली के नव्य प्रयोग 'कौन बनेगा मुख्य अतिथि' व 'पुतले और जूते का संवाद' बहुत प्रभावी लगे हैं। भ्रष्टों के पुतले बनाकर जलाना और उनपर जूते फेंक कर अपमानित करने में बहुत से लोग स्वयं को सम्मानित महसूस करते हैं। प्रदर्शनकारियों द्वारा एक बार एक पुतला और जूता स्थल पर छूट गए। पुतला जलने से बच गया तो उसने जूते से पूछा, "जूते भाई मेरी तुमसे कोई जाति दुश्मनी नहीं, फिर चाहे जब क्यों मुझे पीटते रहते हो?" जूता बोला, "क्या करूं मैं औरों के हाथ की कठपुतली हूं।" इस पर पुतले ने कहा कि "...तो फिर औरों से कहो कि बिन वजह क्यों पीटते रहते हो?" तब जूते ने उत्तर दिया, "माफ कीजिए, वे भी क्या कर पाएंगे क्योंकि वे खुद भी औरों के हाथ की कठपुतली है। पुतले के पूछने पर कि ये 'और' आखिर है कौन? इस पर जूते की ओर से व्यंग्यकार ने जो उत्तर दिया, "वे जो देश को कठपुतली समझते हैं।" शेषांश आप पढ़ेंगे और सराहेंगे।
व्यंग्य भाषा के लिए व्यंग्यकार नए शब्द गढ़ते हैं अथवा नए अर्थबोध देते हैं। इस संकलन में ऐसे बहुत से शब्द हैं जैसे मत्याचक, मरघटोनिक्स, जंगलिता, गुप्ताया, रोडपति, टीकाजीवी, जॉयचंद, मतग्राही, रसचूसक, सटिप आदि जिनसे संदर्भित व्यंग्य रचना में नवीन अर्थबोध हुआ है। मुकेश राठौर ने अंग्रेजी शब्दों को जस का तस और बदलकर भी कई प्रयोग किए हैं, जिन्हें 'हिंग्लिश' के अंतर्गत भी रखा जा सकता है। कहीं तो उनका प्रयोग नैसर्गिक लगता है किंतु कहीं-कहीं अतिरेक होने से आरोपित भी लगे हैं। 'धैर्य का डेम', 'गेस्ट फिक्सेशन', 'सटिप', 'टेंशिया',' उनके जूतेयुक्त लेग' को हैंडशेक करने और अपनी पीठ को उनसे हैंडबेट करवाने वाले...।
देशज भाषा और मुहावरों का प्रयोग अलबत्ता इस संकलन को समृद्ध बना रहे हैं। आंचलिक प्रयोगों ने संकलन को विशिष्ट भी बनाया है। कुछ शब्द जिनके वाक्य प्रयोग से अर्थ स्पष्ट हुए, भले लगे जैसे बिदागी, गुंजाट, टप्पर, सई साट, ओटला, बगराना, रांगन, बिछायत, भिनसारे, अटाटूट, मेढ़, बुगदा, गुहान, चुनियारे, पाड़े, खट-करम, खेड़ा, सुपड़ा, आगकाड़ी, धूपकाड़ी, आड़ेढट्ट, टिक्कड़, कोने-कुचेले, जान-बड़वें, कवेलू, कड़, ढिलंगी, डोकरी, मचक, निथरना, गंदाया आदि-आदि। सच में यह कमाल है मुकेश राठौर की देशज भाषा संपदा का तथा इन शब्दों के ऐसे प्रयोग का कि अर्थ समझने में कठिनाई नहीं होती।
लेखक जितना सूक्ष्म पर्यवेक्षक होगा लेखन उतना ही बेहतर होने की संभावना से युक्त होगा। व्यंग्य के लिए विशेष रूप से ऐसा माना जाता है। व्यंग्यकार मुकेश राठौर की दृष्टि स्कैन करती है और विसंगति, विद्रूप को परख कर सूक्ष्मअतिसूक्ष्म निरीक्षण करती है और मानो सत्व उद्घाटित होता चलता है। ग्राम पंचायत का चुनाव हो, कोरोना का टीका नदारत हो,कार्यालय का निरीक्षण हो, नेता गायब हो, अपने को किसान कहने वाले अफसरान हो, कहीं किसी किसम का अतिक्रमण हो, साहित्यिक गुटबंदी हो, दानपेटी को हजम किया जा रहा हो, बर्डफ्लू की आशंका हो, गांधीवाद की हत्या हो, साहित्य कबाड़ में बिक रहा हो,पौधारोपण का पौधहरण हो,पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा हो, झूठी रिपोर्ट हो... मुकेश राठौर तह तक पहुंच जाते हैं और जिस कलात्मकता से सच को सामने लाते हैं उनके व्यंग्यकार की सार्थकता सप्ष्ट से स्पष्टतर होती चलती है।
कथातत्व की प्रमुखता होने से लेखन की दीर्घकालिकता और रोचकता बरकरार रहती है। इस संकलन में तात्कालिक बोधक रचनाओं को छोड़कर जो विषय सनातन हैं, वे रचनाएं दीर्घजीवी होंगी। ऐसा विश्वास बनता है।
इसी प्रकार रचनाओं में नाटकीय तत्व होने के साथ-साथ चित्रोपमता होने से संकलन की कई रचनाएं मानो हम पढ़ने के साथ-साथ देख भी रहे हैं। प्रायः रचनाओं के समापन अंश में व्यंग्य अधिक प्रखर हुआ है। सूक्तिपरकता भी संकलन में भरपूर है। 'प्रपंचतंत्र' के अंतर्गत पांच बोध कथा रूप में लघु व्यंग्य है,जो अपना प्रभाव छोड़ते हैं। सर्वाधिक प्रभावित करते हैं संकलन के भाषिक प्रयोग जिनमें से कतिपय उदाहरण दृष्टव्य हैं।
"नेता कमीशन से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या?"
"कोरोना का टीका लगने पर भिया को ईमानदारी याद आ गई।पहली डोज में जब यह हाल है तो दूसरी डोज में कहीं गांधीजी न उनमें उतर आए!"
"अपने कंपनी मेड इन दो हाथों को भी वे लंबे न कर पाए।"
"बिन बारात तो वर के गले में भी वरमाला नहीं डलती।"
"समयानुकूल वे विचार कर धारा में बह लेते हैं।"
"कुर्ते का खीसा फूला होने से दिल नहीं मिल पा रहे थें।"
"मास्साब की लू उतारने के बाद भी साहब का पारा नहीं उतरा।"
"प्रजनन की द्विखंडन विधि द्वारा एक से दो दरी बना दी।"
"एरियर टीए,डीए वगैरह की छोटी-छोटी बूंदों से बने बादल सरीखा होता है।"
"अंडरग्राउंड साहब ग्राउंडनट की तरह पोषित होते रहे।"
"उनकी शोक यात्रा से कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गई।"
"जात की बात फास्फोरस से ज्यादा ज्वलनशील होती है|हवा में आग पकड़ती है। जाति की डोर नायलॉन की होती है।"
"पुलिस बैक्टेरिया जैसी होती है,दोस्त भी दुश्मन भी।"
"आज के दौर में पैसों के पेड़ ही प्राणवायु दे सकते हैं।"
"साहब स-अर्थ ही बुलाते हैं, व्यर्थ नहीं।"
"सांप और साब बदला लेते हैं।"
"नदी और भ्रष्टाचार की रिवायत है,वे ऊपर से नीचे की ओर बहते हैं।"
"मतदाता पर पांच-दस घंटे का भरोसा नहीं और मतग्राही पर पांच साल का भरोसा?"
"लाठी कमजोर के हाथ हो तो उसकी केवल भैंस हो सकती है,देश नहीं।"
"औलाद की तरह नींद भी बुढ़ापे में साथ छोड़ देती है।"
शेष पुस्तक आपके हाथ है,पढ़ते जाइए और अपने मन की समीक्षा करते जाइए। मुझे पुस्तक जैसी लगी और चूंकि भूमिका के लिए प्रिय मुकेश राठौर का प्यार भरा आग्रह था सो मैंने सॉफ्ट समीक्षा (बतर्ज मुकेश जी की भाषा) कर दी है। इस बहाने मुझे हमारे बाद की तीसरी पीढ़ी के होनहार व्यंग्यकार की यह पुस्तक की पांडुलिपि पढ़ने को उपलब्ध हो सकी,मेरा सौभाग्य है। इसी भांति का व्यंग्य और ऐसे ही युवा व्यंग्यकारों के हाथों हिंदी गद्य व्यंग्य लेखन का भविष्य सुरक्षित है और रहेगा। यह मेरी कामना भी है और आशीर्वाद भी।
डॉ. हरीश नवल
23042, वेब्रिज स्क्वायर
ब्रॉडलैंड, वर्जीनिया_20148
(अमेरिका)
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