आत्मवृत्त में साहित्य के समकाल का कोलाज :
माफ करना यार
बी. एल. आच्छा
'माफ करना यार' पुस्तक के बहाने जितना कथाकार बलराम से रूबरू हुआ जा सकता है, उससे अधिक उनके समकाल के साहित्यिक प्रवाह से। इस पुस्तक में सहयात्री होते हुए ऐसा लगता है, जैसे ब्रह्मपुत्र के महानद में एक बड़े से क्रूज़ पर कई पीढ़ियों के लोग सवार हैं। जैनेंद्र- अज्ञेय से लेकर कामू काफ़्का तक। हिंदी की समवर्ती पीढ़ियों के साथ नये हस्ताक्षरों को भी एकसाथ बिठाए संवादी हुआ जा रहा हो, उनके जीवन और कई -कई किताबों के साथ ।कितने व्यक्तित्व, उनके जीवन से साक्षात्कार, कितनी पत्रिकाएं, कितनी समीक्षाएं, कितने सहकार- विकार, कितने अंत:संघर्ष, पत्र -पत्रिकाओं के संपादन -कक्ष, कितने अंत: प्रवाह, पाठकों के लिए साहित्यिक पत्रिकाओं का रोमान, पत्रिकाओं के भीतरी दांवपेंचों का कार्डियोग्राफ।और यह पुस्तक शब्दों में सपने संजोए उस लेखक की है, जिसमें कथाकार होने का रोमान भी है और पत्रकारिता के संघर्षों में अवसाद के हल्के थक्के भी। मगर गतिशील मुद्रा।
यह महज संस्मरणात्मक और आत्मकथात्मक विधाओं की सृजनात्मक गड्ड-मड्ड नहीं है, न उनका फ़्यूजन। बल्कि वैसा ही जैसे नदी- नालों के संगमन बिंदु पर जल- प्रवाह एकदूजे को थाप देते हैं और देर- सबेर सहप्रवाह की हिस्सेदारी। उसीतरह इसमें अनेक अंतर्कथाएं एक दूजे के रंगों से लड़ती- भिड़ती अंततः एक प्रवाह बन जाती हैं। प्रवाह कभी मटमैला, कभी नीलांबर परिधान-सा भी। कभी बोधिवृक्ष की पानी में झांकती परछाइयों के रंगों- सा भी। हां, साहित्यिक पत्रकारिता के रोमानी रंग जब यथार्थ से मुठभेड़ करते हैं, तो क्लेश भी होते हैं और सधते हुए वे पुनर्नवा भी हो जाते हैं।
इस पुस्तक के कई सिरे हैं और कई रंग। कई कई स्वाद हैं। मगर बेस्वाद को भी बलराम यों कह जाते हैं-" साहित्य और पत्रकारिता के जिस घर में शरण ली, वह उतना पवित्र नहीं निकला।" पर लेखक का वह उत्तुंग शिखर भी ऊर्जस्वित है, जब वह कहता है -"जन्नत के बजाय दोज़ख में पहुंच गए, लेकिन हमने दोज़ख को जन्नत बनाने का ख्वाब देख डाला। "यही जीवट है, जो इन तमाम स्मृतियों में, कटाकटी के साहित्यिक परिदृश्य में, इनामों- इकरामों में तेजाबी संवाद भी फेंकती है। सुलझनों के रास्ते भी तलाशती है ।नए साहित्यिक उभार को भी जगह देती है। व्यक्तित्वों से टकराती -संवाद करती है। जीविका की उठापटक में अपनी साहित्यिक पहचान को कसक नहीं बनने देती। यह भी कि इन संस्मरणों या आत्मकथात्मक वृत्तों में जिन चरित्रों से टकराहट है, उनके अच्छे पक्षों से किनाराकशी नहीं करतीं। सुखद संस्मरण वे ही होते हैं, जो अपने उत्तुंग शिखर के लिए दूसरों के चरित्रों को स्याह नहीं बनाते ।बल्कि उजले और स्याह को, श्वेत और श्याम को संपूर्णता से संवेदी बनाते हैं। अलबत्ता इन संघर्षों में बलराम की अप्रतिहत आस्था सृजन- कर्म से लक्षित रहती है।
'माफ करना यार 'जीवन की जन्म-गंगोत्री से निकलकर अपने पाट बनाती नदी की तरह सिलसिलेवार नहीं है। कभी-कभी तो लगता है यह सचमुच में कई अंशों में अपने बहाने औरों की कथा बन गयी है। बल्कि अपने सृजन -दशकों के समकाल की कथा बन गई है। इतने साहित्यकारों के सृजन- पार्श्वों की छायाएं जुड़ती चली गई हैं, जिनसे लेखक का सृजन- कर्म भी जुड़ा है। उसके ताप भी हैं। पर इससे ज्यादा यह कि लेखकीय जीवन के साथ ये परिदृश्य हिंदी के साहित्य सृजन को प्रतिबिंबित करते जाते हैं। इसलिए बड़ी तरतीब से हिंदी के पीढ़ीदार हस्ताक्षरों के साथ संवाद करते ये परिदृश्य अनेक अध्यायों में विभक्त हैं। जैनेंद्र - अज्ञेय - शमशेर से लेकर उदयप्रकाश -विश्वरंजन तक। ये परिदृश्य रचनाओं का केवल परिगणन नहीं करते, बल्कि जीवन के पार्श्वों के साथ समीक्षात्मक संवाद रचाते हैं। हिंदी की श्रेष्ठ कृतियांऔर कृतिकार, साहित्यिक पत्रकारिता के संघर्ष इस तरह बिखरे -जुड़े संयोजित हुए हैं, इनमें इतिहासबद्धता की झलक दिख जाती है। समकाल के साहित्यिक और वैश्विक साहित्य-दर्शन की शिक्षाएं भी। इन्हीं में लेखक का जीवन- संघर्ष भी और सृजन के पाठ भी।
बलराम के अंतरंग में बसा है गांव और गांव से शहर आकर महानगरों में बसे लोग। महानगरीय परिवेश में भी इसीलिए उनके व्यक्तित्व में ग्राम्य सहृदयता हरी-भरी है ।और कथा- साहित्य में यही पूरी तरह फैला हुआ। मगर सपनों में बसी साहित्यिक पत्रकारिता की दुनिया है, जो महानगरीय है।ये दोनों जब-तब एकाकार हो जाते हैं। जब बलराम शुरुआती जीवन में ही धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में कहानियों के प्रकाशन से जगह बनाते हैं। ऐसी ही पत्रिकाएं उनका जीवन-राग बन जाती है। कानपुर के छोटे से कस्बे शिवराजपुर के रामसहाय इंटर कॉलेज में गणित की कक्षा में जैनेंद्र की कहानियों का पठन- अनुराग हेडमास्टर से चार रूल खाने के बाद भी खिसकता नहीं है। और न ही कॉलेज की पत्रिका के लिए कहानी अस्वीकार करते हुए गोविंद सर की चुनौती से-" तुम !अरे तुम! कहानीकार बनोगे? तुम लोगों का असली काम है खेती-बाड़ी करना। वही तुम करोगे और कहानीकार कभी ना बन सकोगे, समझे!" मगर यह लगन और तपन अज्ञेय जैसे व्यक्तित्व से शब्द- वर्षा पा जाती है, 'कलम हुए हाथ 'कहानी संग्रह भेंट करने के दौरान-"तुम्हारी 'शिक्षाकाल' और 'पालनहारे' देखी थी धर्मयुग में। अपनी कहानियों की गहराई बनाए रखना। प्रेमचंद और रेणु से तुम्हारी कहानियां भिन्न है। यह भिन्नता बनी रहेगी तभी महत्वपूर्ण हो सकोगे। "यह नजरिया बलराम को अपनी जमीन देता है और अन्य कथाकारों को भी साहित्यिक पत्रकारिता की उनकी जमीन।
'दैनिक आज' की डेस्क से शुरु हुए बलराम को 'सारिका' में चयन के लिए साक्षात्कार में जो सवाल पूछे गए वे' माफ करना यार 'के व्यापक फैलाव की कुंजी हैंऔर बेबाक व्यक्तित्व की मुखर आवाज। इंटरव्यू में अज्ञेय ने दुनिया के दो शीर्ष उपन्यासकारों के नाम पूछे और हिंदी उपन्यासों में उनकी समस्तरीयता वाले उपन्यासों के नाम। लेकिन एक सवाल और उसका उत्तर बेहद मौजू। सवाल था -"लेखक बड़ा होता है या संपादक?" और उत्तर था- "लिखते हुए लेखक और संपादन करते हुए संपादक। ईमानदारी से काम करें तो दोनों ही बड़े हो सकते हैं। लेकिन अंततः तो लेखक ही बड़ा होता है।" साफगोई, कथा- साहित्य का व्यापक पठन-पाठन, देश-विदेश के कथा- साहित्य का क्षितिज कर्मक्षेत्र की स्पष्टता और उत्तरदायिता, निर्णायक उत्तर और बेबाकी। ये ही बातें इस पुस्तक में हर कहीं पसरी पड़ी हैं। मगर ढेर सारी पुस्तकों की सूची में नहीं, उनकी अंतरंग समीक्षा में। दर्शन की किताबों में नहीं, साहित्यिक अंत:प्रवाहों को रचते वैश्विक- राष्ट्रीय साहित्य में। संपादन क्षेत्र में सहकर्मी की अपने संपादकों से निरंतर लड़ंत-भिड़ंत और स्नेहभरी दुनिया में।
ये बातें बलराम के व्यक्तित्व की दिशाएं भी बनाती हैं।एक कथाकार अपने केनवास में ग्रामांचल की सहृदय हरीतिमा के साथ महानगरीय बोध को फैलाए हुए है। एक समीक्षक कितने ही साहित्यकारों के जीवन और उनकी कृतियों से हिंदी समीक्षा को उनका अंतर्पाठ दे रहा है। एक सुधी व्यक्तित्व हिंदी के महानतम और युवतम रचनाकारों के जीवन को परसता हुआ उनके व्यक्तित्व को अपने आत्मकथात्मक-संस्मरणात्मक परिदृश्यों में रचा बसा रहा है।इस बहाने इन रचनाकारों का आत्मसंघर्ष ही नहीं, समकालीन रचनाकारों के बारे में अवधारणाओं को भी समीक्षा- पटल पर ला रहा है ।समकालीन लेखकों के बारे में समकालीन लेखकों की टिप्पणियां एक दिशा देती है और बलराम की समीक्षा दृष्टि भी अपनी राह बनाती है ।शमशेर के बारे में अज्ञेय कहते हैं-" शमशेर क्रांति के कवि नहीं, प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं।वे खुद को कबीर और जायसी की परंपरा में पाते थे।" निर्मल वर्मा के कथा- साहित्य को लेकर बलराम की यह टिप्पणी-" निर्मल वर्मा की दुनिया बहुत मायावी है ।वह मोहन राकेश और कमलेश्वर के गद्य से भिन्न एक जादुई संगीतमय भाषा में हिंदी के लिए नितांत नया सिंटेक्स विकसित कर रहे थे।" ऐसे ही इसी काल में यह नजरिया भी -"मोहन राकेश और कमलेश्वर को लेखकों की एकांत दुनिया से सख्त एतराज था। उनका मानना था कि वे लेखक सामाजिक संदर्भों की अवहेलना कर जीवन से असंपृक्त लेखन कर रहे हैं, जिनकी रचनाओं में सामाजिक सरोकार लगभग नहीं है।" इस तरह के अनेक समीक्षात्मक संदर्भ पुस्तक को साहित्य विमर्शों का पटल भी बना देते हैं । क्रांति और विद्रोह में फर्क बताते हुए बलराम पाठकों को अल्बेयर कामू तक ले जाते हैं, तो मलार्मे पर बात करते हुए उसके विमर्श को रमेशचंद्र शाह के एक शब्दानुवाद 'चिदावरण भंग'तक। कभी कामू के बचपन की दुनिया की स्मृति के सहारे दो बुराइयों तक ले आते हैं ले जाते हैं-" उनमें पहली है आत्मतोष और दूसरी होती है दूसरों की ऊंचाई और सफलता के प्रति विद्वेष और कुढ़न।" निश्चय ही यह अंतरंग साक्षात्कार की राह है, जो जीवन और सृजन के लिए मार्गदर्शी है।
इसी तरह साहित्यिक परिदृश्य में छाए बेगानेपन और कुहासे के साथ वे जमीनों को बंजर करने वाली धड़ेबंदी और विचारधाराओं के मारकाट पर अपनी बात कहते चूकते नहीं हैं-"एक सीमा के बाद क्या तो वामपंथ और क्या दक्षिणपंथ दोनों ही मनुष्य को पार्टी कार्यकर्ता या रोबोट में बदल देते हैं। उसे सहज मनुष्य नहीं रहने देते। "गद्य- पर्व के बहाने वे जितनी खुली नजरों से नामवरीय आलोचना को देखते हैं, उतनी ही व्यापकता से संस्कृति -पुरुष अज्ञेय को। इसी राह पर चलते हुए लेखक अपने जीवन विस्तार के साथ अनेक लेखकों के अंत:वृत्त इस तरह समाहित करता है कि नागार्जुन, अज्ञेय, त्रिलोचन, राजेंद्र यादव, नामवरसिंह, ज्ञानरंजन, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, सुरेंद्रप्रताप सिंह, कन्हैयालाल नंदन राजेंद्र माथुर, विष्णु खरे, आलोक मेहता, रवींद्र कालिया, गीताश्री आदि अनेक साहित्यकारों के जीवन और साहित्य के कुछ पार्श्वो को समेटे हुए वे आत्मकथा का हिस्सा बन जाते हैं। पर उसका प्रतिफलित यह कि साहित्य के तमाम आंदोलनों, टकराहटों और वैचारिक संस्पर्शों के साथ वे बातें सामने आती हैं, जो समकालीन हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में भी सहायक हो सकती हैं। समीक्षा पद्धति को भी दिशा दे सकती हैं। साहित्यिक पत्रकारिता की रोमानी छवि के साथ उसके कांटों और भीतरी कसमसाहटों को सामने लाती हैं ।नौकरी में खो-खो के खतरे और ईर्ष्याजनित अंतर्विरोधों को भी। पर बलराम का सबसे बड़ा सकारक पक्ष है उनका सशक्त पाठक। नये- पुराने सैंकड़ों लेखकों की पुस्तकों पर गहरी नजर और समीक्षात्मक दृष्टिपात। लगता है कि उनमें एक प्रोफेसर- पत्रकार -लेखक का गठजोड़ बहुत सृजनात्मक है, जो न केवल भारतीय कथा- साहित्य से, बल्कि जैनेंद्र से लेकर अल्बेयर कामू, लोठार लुत्से, फ्रेंज काफ़्का, चेखब तक जाता है।
और यह पाठ- कुपाठ से नहीं उनके अंतरंग जीवन और दर्शन से और भी पुष्ट होता जाता है। इन नामचीन लेखकों के अंतःवृत्त और साहित्यिक संस्पर्शो से कई सूत्र हाथ लगते हैं। मसलन कमलेश्वर मानते थे कि नागार्जुन हमारे समय के कबीर हैं, जो शासन विरोधी बनकर ही सुखी रह पाते थे। नामवर सिंह के 'गद्य पर्व' की खासी चर्चा के साथ वे लिखते हैं-" काश! यह दुंदुभी वाणी की बजाय कलम से बजाने का कुछ अधिक अवसर इन्हें मिल जाता।" कमलेश्वर को लेकर यह टिप्पणी -"ऐसा था कमलेश्वर का टैलेंट हंट का अंदाज। दूरदराज और ग्रामीण इलाकों में रहने वाले अनजान लोगों में भी ऐसी प्रतिभाएं खोजने का और उन्हें बड़े प्लेटफार्म पर खड़ा कर देने का।" पत्रकारिता के करियर ,संघर्षों और छटपटाहटों से छनकर आता बलराम का मर्म वाक्य-" रूपक के रूप में कहें तो कन्हैयालाल नंदन से मैंने पत्रकारिता के प्राथमिक पाठ पढ़े। राजेन्द्र माथुर से डिग्री के, लेकिन पत्रकारिता में डॉक्ट्रेट के पाठ मैंने विष्णु खरे से ही पढ़े। "विष्णु खरे से इतनी खरी- खोटी होने के बाद भी उनके बारे में यह टीप कितनी वस्तुनिष्ठ है -"लेकिन विष्णु खरे ने घटिया रचनाओं को कभी तरजीह नहीं दी।"
दरअसल आत्मकथा और आत्मकथ्य के वृत्त तो इस पुस्तक में न्यूनतम हैं। जन्म, माता- पिता, ग्रामांचल तो यत्र- तत्र बिखरे से हैं। बल्कि जिस सुंदर प्रेम -प्रतिमा सलमा को लेखक बसाए हुए हैं, वह भी कभी रह- रह कर एक दो पंक्तियों में अंत तक झलक जरूर दे जाती है। मगर वृत्त और अंत:स्वर नहीं बन पाती। पाठक सोचता ही रह जाता है, इस रोमानी दृश्य- पाठ के लिए ।मगर पत्रकारिता की खुरदुरी जमीन के पाठ रह- रहकर इस आत्मकथा का पाठ्यक्रम बन जाते हैं या साहित्यिक प्रतिभाओं की रचनाओं का अंतर्पाठ। याकि जाने-माने साहित्यकारों के जीवन और संस्थाओं से जुड़े प्रसंग जो उनकी बायोग्राफी के अनुच्छेद गढ़ जाते हैं।
बलराम के बाहर -भीतर के संघर्षों और व्यक्तित्व के पक्षों को समझने के लिए पत्रकारिता के संघर्षों के कथांशों को लक्षित करना ही होगा। नवभारत टाइम्स में प्रमोशन न मिल पाने के कारण जो कसमसाहट रही और आर्थिक हानियों के उपायोजन के लिए जो युक्तियां अपनानी पड़ीं, उसका भी एक अलग ही कोण है, जो सच को उगलता है और ऐसे वरिष्ठों को कठघरे में भी खड़ा भी कर देता है ।विष्णु खरे से टकराहटों के ऐसे ही अध्याय में उस साक्षात्कार का यह तिलमिला देने वाला विनम्र जवाब -"आप तो मेरे अग्रज हैं आपने कई किताबें लिखी हैं। कुछ पुरस्कार भी हथियाये हैं ।मगर दूसरी कंपनियों के (पायोनियर जैसे) अखबारों में भी आप जब- तब लिखते रहे हैं। नौकरी छोड़ कर फुलटाइम राइटर बनने का काम पहले आप करें। विश्वास कीजिए, आज आप छोड़ेंगे, कल मैं भी छोड़ दूंगा।" विनम्रता भी और चुनौती भी। और आचरण के द्वैत पर उठी हुई उंगली भी ।राह की समानता के लिए प्रतिबोध दिलाने का तेवर भी। आर्थिक हानि का दंश तो है, पर नौकरी को दांव पर लगाकर सच्चाई से मुठभेड़ करने की आमने -सामने की संवादी- चुनौती भी। पर इसमें भी संवादी तल्खी और बॉडी लैंग्वेज के बाद भीतर की यह परत भी-" थोड़ी सी आर्थिक क्षति और अपमान का जहरीला घूंट पिला कर घनी मानसिक शांति का स्वामी उन्होंने हमें अनजाने में ही हो जाने दिया। इसलिए उनके प्रति मन में क्रोध नहीं करुणा का भाव शेष रह गया।"
इस तरह के और भी प्रसंग हैं, जो सच्चाई से रूबरू करवा देते हैं। एक शब्दयात्री महज नौकर पत्रकार के दायरे में कैसे सिमटा रह सकता है? अपने संपादन की पत्र-पत्रिकाओं में भी नहीं और अन्य प्रकाशनों पर सीमाबंदी भी। यह जो फाइटिंग स्पिरिट है बलराम की, बेबाकी में उनके सर्जक व्यक्तित्व की मुखर जबान बन जाती है- "हमारा लिखा सब कुछ तो आप छापेंगे नहीं ।यह जो हमारा गाड़ी भर लेखन है कहां छपेगा? क्या इसे हिंद महासागर में फेंकवा दिया करूं?" इसीलिए सहयात्री साहित्यकारों के अन्यत्र प्रकाशित होने पर खरे सवाल उठाए हैं" प्रयाग शुक्ल, विनोद भारद्वाज और अन्य लोग जब- तब यत्र- तत्र 'संडे ऑब्जर्वर 'लिख सकते हैं, तो सिर्फ हम पर प्रतिबंध क्यों ?" और ये शिकवे और थोड़े तीखे नमकवाली जबान साहित्यकारों के समागम में भी। हिंदी अकादमी दिल्ली में कथा- पाठ के दौरान राजेंद्र यादव की व्यंंग्य- मुद्रा वाले शब्दों के प्रत्युत्तर में बलराम कह जाते हैं-" आपके हंस ने हमारी कहानी छापी नहीं, फिर भी कसम तोड़कर कथा- पाठ में पधारने के लिए आपको धन्यवाद।" पर बाद में पछतावा यह कि कटाक्ष क्यों किया? और इस अनायास व्यंग्य के लिए यह एहसास -"वैसा ही लगाव बना रहा जैसा कि अपने बहुत प्रिय के खराब हो जाने के बावजूद बना ही रह जाता है।"
साहित्यिक मित्रों के साथ अनेक प्रतिच्छवियां आकर्षित करती हैं। साहित्य की दुनिया में जीवन व्यवहार के लिए ये तरल रूप कितने साधक होते हैं और सारे कांटे -कंकरो में स्नेह निर्झर को बहा देते हैं। सारिका में ज्वाइन करने के जाते समय जेब में साठ रुपए और दो जोड़ी कपड़े। मगर दिल्ली में राजकुमार गौतम ने एक महीने तक घर में स्नेह पूर्वक टिकाया बलराम को। और सुरेश उनियाल ने किराए के एक सौ चालीस को भी आधा कर दिया। और यही दोस्ती के घर की देहरी बन गई ।यही नहीं संपादन की दुनिया में कितने ही छपने पर खुश होते हैं और न छपने पर नाराज। पर धीरेंद्र अस्थाना ने मन का बैरभाव त्यागकर यारी के लिए हाथ बढ़ाया तो उसका हाथ पकड़ने में कोई संकोच नहीं किया। असल में बीच- बीच के वृत्त जीवन व्यवहार के स्नेहिल गणित को भी सिखाते हैं , एलजेब्रा के छोटे फॉर्मूलों की तरह, जो फैल कर बडा कैनवास रच लेते हैं ।
साफगोई भी एक साहसिक चरित्र है ।कोई संकोच नहीं लेखक को यह कहने में कि माध्यम का पेट भरने के लिए पत्रकारिता में अनेक लोगों को ऐसा करना पड़ता है ।इसी चक्कर में बलराम के हजारों नाम न सही, पर लेखन-छपन में दसियों नाम बन जाते हैं -प्रेम नारायण से बलराम ,प्रेम अंशुमाली, अखिलेश्वर, अग्निशेखर, मुजीब शेखर, जॉन, नटराज, संन्यासी, अमलतास वगैरह। जब इन नामों से छपी कहानियां बलराम के कथा -संग्रह में दिख जाएं तो मित्रों की आंखों में सवालिया मुद्राएं, असल जानकर मुस्कुराती हैं। पर एक और रूप, जो मित्रों के सृजन का क्षेत्र बन जाता है। शिवमूर्ति की कहानियां प्रकाशन के मुकाम पर लगती नहीं थीं।अच्छे कथाकार के बावजूद। धर्मयुग में बलराम की कहानियां छपीं जरूर, मगर धर्मवीर भारती से संवादी साक्षात्कार न होने के बावजूद शिवमूर्ति की कहानी के साथ भारती जी को पत्र लिखा। शिवमूर्ति की कहानियां धर्मयुग में छपने लगीं। भारती जी इन सिफारिशों के संपादक नहीं थे। पर रचना का बल मजबूर करता था ।इस मायने में शब्दों के सहयात्री बलराम कुछ सीख भी दे जाते हैं। 'लोकायत 'के संपादन में भी इसीलिए वे खूब जमे। पर किसी अकादमिक प्रोफेशनल की तरह उन्होंने 'प्रेमचंद रचनावली 'और दो हजार पृष्ठों के "विश्व लघुकथा कोष" का प्रकाशन किया ।वह भी साहित्यिक पत्रकारिता के साथ साहित्य संवर्धन का एक बड़ा उपक्रम है।
"माफ करना यार" आत्मकथा या संस्मरण बनते -बनते समकाल का साहित्य कोलाज भी बन गयी है। जैसे साहित्यिक समय ही इसका नायक हो। आत्मकथा में उगते हुए स्वयं लेखक का इंगित भी यही है। इसीलिए आरंभ में ही 'अपने बहाने औरों की कथा' में वह अकेले नहीं साहित्यकारों की बिरादरी के साथ आया है। यह उसकी साहित्य और पत्रकारिता के प्रति मूल्यगत निष्ठा का अंतरंग परिचय जितना व्यापक हुआ है, उतना ही युगीन साहित्य के प्रति लेखक का सम्मोहन भी। इसलिए 'माफ करना यार 'जितना सच कहने के लिए यह शीर्षक विनम्र है, उतना ही आत्मकथा की चौखट का लंघन करने के लिए भी। आत्म-व्यंजना की धुरी से युगीन साहित्यिक परिदृश्य की व्यंजना इस पुस्तक की बड़ी सफलता है, सार्थकता है।
पुस्तक का नाम : माफ करना यार
लेखक का नाम : बलराम
प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2016
मूल्य : ₹395
बी. एल. आच्छा
फ्लैटनं-701टॉवर-27
नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट
स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स)
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