श्रीनरेश मेहता : काव्य - व्यक्तित्व और भाषा की स्पंद चेतना

Dr. Mulla Adam Ali
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श्रीनरेश मेहता : काव्य - व्यक्तित्व और भाषा की स्पंद चेतना

 बी. एल. आच्छा

        कवि और कविता वहीं सार्थक होते हैं, जब वे काव्य-भाषा को व्यक्तित्व की स्पन्द चेतना में रंग देने को विवश कर देते हैं। तब केवल स्वानुभूत नहीं आता। केवल प्रकृति दृश्यों की चित्रभाषा लाक्षणिक नहीं बनती। केवल नये प्रयोग और बिम्बधर्मिता काव्य वैभव को रंजक नहीं बनाते। केवल यथार्थ का समय बोध अपने खुरदुरेपन को नहीं रचता। बल्कि इन सबके साथ कवि और कविता का दिक्काल अवतरित हो जाता है। तब अतीत का सांस्कृतिक राग नया अनुष्टुप रचता है। दर्शन अपने स्वानुभूत में तरल-सा छिटक जाता है। तब इतिहास, दर्शन, यथार्थ, युगीन सत्यों के अनेकवर्णी परिदृश्य और इनमें पगी काव्य व्यक्तित्व की स्पन्द चेतना नयी भाषा को गढ़ती है।

       श्रीनरेश मेहता की काव्यभाषा और काव्य- पुरुष का सोच सर्वथा अलग है। 'अरण्यानी से वापसी' कविता से इस पहचान को लक्षित किया जाए -"कविता/ जब केवल विचार होती है/ तब वह / परम पुरुष की लीला /तब वह /आत्म उपनिषद होती है। पर, जब वह /भाषा के भोजपत्र पहन लेती है/ तब वह/ आनन्द के मंत्र /आसक्ति के पद / तन्मयता के कीर्तन/ विनय की प्रार्थना / और लालित्य गान के / अपराजित हिमालय और अक्षत उपत्य‌काओं से उतरती हुई/जलते मानवीय मैदानों में पहुँच कर / विराट करुणा/पीड़ा मात्र बन जाती है/ मेरी अरण्यानी! / मेरी इस वैष्णवता को भी परीक्षा देनी होगी / मेरी इन प्रार्थनाओं को भी अपने समय/ और कोटि कोटि लोगों के बीच / एक कविता / एक घटना/ एक मनुष्य-सा घटित होना ही पड़ेगा।" कितनी तपोवनी- सी भाषा है; तपोवनों की ऋचाओं जैसी। कैसा स्व-अनुभूत है, जो भीतर के गुहालोक से निकलकर कोटि कोटि मनुष्यों तक जाता है। कैसा क्षण है, जो युगों की सांस्कृतिक चेतना से लिपटा होकर भी अपने समकाल और अपनी धरती पर लौटने के लिए प्रतिबद्ध है। कैसा इतिहास राग है, जो दार्शनिक-धार्मिक- से शब्दजाल मे पसरकर भी युगीन अर्थों का स्फोट करता है। वैष्णवता के पीले वस्त्र, कर्मकाण्ड, भक्ति और पुष्टि के बोल आज के परदुखकातरता के मूल्यबोध मे ढल जाते हैं। सर्वथा नयी व्यंजना, नयी काव्यभाषा, काव्यव्यक्तित्व की नयी पहचान। सांस्कृतिक चेतना के इतिहास बिन्दु से साम्प्रतिक मानवीय सोच की काल-यात्रा।

          लगता है कि सारा परम्परागत दर्शन, शास्त्रीयता के बंध, अनुष्ठानों का कर्मकांड, प्रकोष्ठबद्ध शब्दावली, प्राचीनता के मद्धिम रंग पिघलकर एक नये काव्य-पुरुष को, नये काव्य व्यक्तित्व को, नयी काव्यभाषा को रच रहे हैं। तब कवि संज्ञाओं में नहीं अटका रहता, उसके भावकत्व को उकेरता है। 'राम' से केन्द्रित होकर भी 'रामत्व' की तलाश करता है। फिर तो प्रकृति और पुरुष की की दार्शनिकता भी सम्प्रदायों के प्रकोष्ठों को चरमराकर संपूर्ण सृष्टि को ही कविता बना लेती है। तब सारे काव्यबिम्ब वानस्पतिक स्पर्श और जैविक चेतना से, उस स्पन्द- चेतना को रच देते हैं; जिसमें प्रकृति अपने रंगों में रंगी नजर आती है, पर उसका कर्ता अलक्षित ही रहता है। नरेश मेहता का काव्य भी अपने कर्तृत्व से मुक्त शब्द-यज्ञ बन जाता है - " जब तक यह काव्य का शब्द यज्ञ सम्पन्न होता रहेगा; तब तक यह सृष्टि, पुरुष और प्रकृति की मिथुन-मूर्ति बनकर लीला करती रहेगी। अत: हम चाहें तो कह सकते हैं कि समस्त जैविकता के लिए किये गये शब्द- यज्ञ का नाम ही काव्य है।" (अरण्या पृष्ठ-11) पशुओं, और वनस्पतियों और पदार्थिक सत्ताओं में भी देवत्व को अनुभव करने वाले ऋषि-व्यक्तित्व का 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की चेतना से स्पंदित यह काव्य ,भाषा के पुरानेपुन में भी सर्वथा आधुनिक है। सनातन और वैष्णव से पुरानेपन को खंगालकर शाश्वती का युगीन बोध- 'मंत्र-गंध और भाषा' कविता की ये पंक्तियाँ ग्रंथों का अतिक्रमण ही नहीं करती, काव्य- भाषा का भी अतिक्रमण करती हैं-

"इसीलिए मैं एक भाषा का अनुभव करता हूँ

जो ग्रंथो में नहीं होती 

क्योंकि उनमें फूल, मंत्र नहीं होता,

जबकि कौन विश्वास करेगा कि

फूल भी मंत्र होता है

क्यों कि फूल

एक शब्द ही नहीं सम्पूर्ण भाषा है।"

                         (उत्सवा, पृष्ठ 51)

           छायावाद ने भी उपनिषदों का खुला आकाश रचा था। प्रकृति की सुकुमारता को रूप-रस-गंध आदि का एन्द्रिय स्पर्श दिया था। युगों की चट्टानों पर पदचाप को सुना था। प्रकृति जागरण के साथ जनजीवन और स्वतंत्र राष्ट्रीय जागरण का नाद रचा था। 'न जाने नक्षत्रों से कौन, निमंत्रण देता मुझको मौन'- जैसी रहस्यपरक कौतूहल वाली कविताओं में अलक्षित विश्वकर्ता से योजित किया था। लाक्षणिकता को मोतियों की आभा की तरह रचकर नयी काव्यभाषा से स्थूल पर प्रहार किया था। पर नरेश मेहता की काव्यभाषा और उनका काव्य- व्यक्तित्व धार्मिक-साम्प्रदायिक से लगने वाले शब्दों से तनिक भी परहेज नहीं करता, बल्कि उनकी भावसाध्य तरलता से मानवीय चेतना की सामाजिक प्रतिबद्धता में रूपांतरित कर देता है।

    तय है कि ऐसे विराट व्यक्तित्व को भारतीयता के सांस्कृतिक प्रवाह की कालधारा से जितना जुड़ना पड़ेगा, उतना उसे युगानुरूप नव्यार्थ देना होगा। और ऐसे नव्यार्थ के लिए भाषा का अतिक्रमण करना होगा।

    ऐसी विराट चेतना के लिए, नये अर्थों के सृजन के लिए वह काव्य की सत्ता को ही वहाँ तक ले जाता है, जहाँ काव्य-पुरुष और सृष्टि-पुरुष अलग नहीं रह जाते- " सारा अध्यात्म, सारा विज्ञान काव्यात्मकता ही है।... अध्यात्म जिसे 'पुकार' कहता है,वह विज्ञान का 'गुरुत्वाकर्षण' है। यह पुकार' या गुरुत्वाकर्षण किस प्रकार मन और देह दोनों पर संयुक्त और पृथक् प्रभाव और निर्मिति करते हैं; इस पर भी विचार किया जाना चाहिए।(अरण्या, पृष्ठ 18 )

        नरेश जी की कविता भारतीय सांस्कृतिक आत्मा का नया रूपायन हैऔर आतंरिक पुकार भी। और यह भी लुकछिपकर नहीं, सारी पारम्परिक शब्दावली के नये अर्थों की वैश्विकता में। यह एक तरह से भारतीयता को जानने की पुनर्दृष्टि है। छायावाद में जिस अतीत गौरव, राष्ट्रीय जागरण, स्थूल के प्रति सूक्ष्म विद्रोह, काव्य की छंद मुक्ति, लाक्षणिकता और दार्शनिक चैतन्य से अपने को सर्वथा भारतीय बना दिया। नरेश मेहता आजादी के बाद भारतीयता को समाज और समय से जोड़ रहे थे;सांस्कृतिक चैतन्य के साथ, परदुखकातरता के वैष्णवी भाव के साथ। यह समय गाँधी का था। वैष्णवी-चेतना को समय और समाज की जमीनी आकांक्षाओं को नरेश मेहता के काव्य में समझा जा सकता है- 'वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पुराई जाणे रे।"

        एक ओर यह काव्य-व्यक्तित्व वैदिकता के तलीय अर्थों का सन्निवेश कर रहा था, तो दूसरी ओर विश्वसभ्यताओं के आंतरिक विश्लेषण के साथ आज की आर्थिक-वैज्ञानिक-प्रौद्योगिक प्रवाह की बाजार दृष्टि को -" आपस में लड़ना ! अपना पक्ष कमजोर करना और बाजार व्यवस्था का प्रतिरोध किये बिना अपना वर्चस्व फैलाने का अवसर देना। इसके परिणाम तो भुगतने ही होंगे। "नरेश मेहता के काव्य में आकाशी दार्शनिकता है, पर जमीनी पकड़ भी। तभी तो वैदिकता की आर्ष- भाषा 'इन दिनों' नंगे पैर'काव्य संग्रह की क्रूर इतिहास -भाषा तक जाती है। 

       नरेश मेहता भारतीय सृजनात्मकता के रासोत्सव की भाषा गढ़ते हैं, तो उसमें न जाति का, न भाव का, न भाषा का ; किसी का भी विरोध नहीं है। वे अलग अलग व्याख्याओं में एक ही सत्य को पाते हैं। इसीलिए निर्गुण- सगुण, सान्त-अनन्त, आत्मवादी-भोगवादी एक ही सामाजिक समवाय में अपनी सृजनात्मकता में विभेदक नहीं होते। वैष्णवता भेदपरक नहीं होती। सृजनात्मक उदात्तता पर कितने ही आक्रमण हो जाएँ;पर आस्थाएँ जड़ों में बनी रहती है- "राजनीति पराजित हो सकती है, मगर सांस्कृतिक अस्मिता नहीं।" इसीलिए उनकी कविताओं में दर्शन की जितनी शक्तिमय परतें है, प्रत्यक्ष दृष्टि से यही वे गाँधी में देखते हैं। यही पाते हैं कि गाँधी में कबीर का विद्रोह है और तुलसी का संगमन। तब नरसी मेहता का इकतारा और गाँधी के अहिंसक सत्याग्रहियों की पुकार भक्ति युग की युगान्तर पुकार को रच देते हैं। इसीलिए शब्दयज्ञ की सांस्कृतिक शब्दावली लोकोत्तर के बावजूद लोक से विमुख नहीं होती। उसमें कालहीन अनन्तता की विराट क्षितिज भी हैं, धरती पर प्रकृति के उत्सव की प्रति-सृष्टि भी ।पर एक चैत्य पुरुष की काव्य सर्जना भी है, पर इन सब में। भक्ति की परंपरागत शब्दावली को गलाकर एक तरल वैष्णवी विश्वात्मकता को युग और समाज सापेक्ष अन्तर्दृष्टि भी। भूमंडलीकरण की उत्तर- आधुनिकता के साथ यदि इस विश्वात्म-भाषा को रखा जाए तो युगीन यथार्थ का सांवला चेहरा और गहरा हो जाएगा। 

      छायावादी चैतन्य और काव्यभाषा के अगले सोपान के साथ यदि नरेश मेहता को समझा जाए तो एक समूची सांस्कृतिक यात्रा एन्द्रियता के बजाए जैविकता में प्रत्यक्ष हो जाती है- प्रार्थना धेनुएँ, देह-बांशी, कीर्तन-पंक्तियों सी दुर्वाएं, धूप की ब्राह्मणी, मेघों की लिखित गायत्रियाँ नदियाँ, धरा को वस्त्रित करती वनस्पतियाँ, कोमल गांधार -धूप, संपूर्ण वानस्पतिकता-पीत चंदन लेपित विष्णु आकाश, मेघों का त्रिपुण्ड, पंचपात्री ताम्रता, तापसी कुन्दनता, नदियों के अनंत यज्ञोपवीत , विष्णुवर्णी नीलाम्बर, अमानुषी वनपर्वत, पत्र लिखी भूषाएँ, उपनिषदीय आश्रमता, अग्नि की गैरिककरुणा, वृक्षों में नैसर्गिक साधु-चरित, करुणा की कांवर, पृथिवी एक भागवत कथा, विराट वानस्पतिक पाण्डुलिपि, काल-वृक्ष। यह सारी शब्दावली उपनिषदीप चैतन्य को विश्व कुटुम्ब तक ले आती है। वानस्पतिक - जैविक भाषा, जड़ प्रकृति में चैतन्य का संधान, विश्वात्मा का मनुष्यता चैत्य स्वरूप और अन्ततः राग भाव के साथ इतिहास का निर्ममबोध।

         नरेश मेहता काव्य के उस महाबिम्ब के चितेरे है, जिसमें सृष्टि का 'गायत्रिन् 'अलक्षित होकर भी प्रत्यक्ष है, सृष्टि के महाकाव्यत्व में। इसीलिए वह ग्रंथ-भाषा का उपयोग करता हुआ भी उसमें अटकता नहीं है, बल्कि उसके साध्य भावकत्व को मनुष्यता के नये अनुष्टुप में प्राणवन्त बना देता है-

"धरती को जो भोजपत्र की गरिमा देदे 

और उस पर सीता-रेखाएं खींच

विभिन्न बीजाक्षरों में 

कहीं गेहूँ की गायत्री

कहीं यव के अनुष्टुप और

कहीं ईख के स्तोत्र लिख

धनधान्य का महाकाव्य रच दे

और तब भी

कहीं रचयिता होने की प्रतीति ही नहीं

ऐसा असंपृक्त,

सर्वहारा नहीं हो सकता

हाँ, उपेक्षित हो सकता है।

पर ऐसी अनात्मता केवल ऋषि में ही संभव है।"

       इन काव्य समिधाओं में समाधि- भाषा रची- बसी है। कैसा अनासक्त और अनाविल भाव सृष्टि के महाकाव्य को रच रहा है। ये पंक्तियां छायावाद के मानवीकरण को कितना आगे ले जाकर कितना बड़ा केनवास रचती हैं। मानवीकरण तब अलंकार मात्र नहीं रह जाता। यह तो मानवीय प्रज्ञा के अखिल सृष्टीत्व में चैत्यपुरुष बन जाता है मानव मात्र का। यह सृजनात्मक प्रज्ञा पश्चिम के 'व्यक्तित्व से पलायन' या 'पर्सनल पर्सनेलिटी - इम्पर्सनल परसनेलिटी' से कितना दूरतर ले जाती है।

       वैष्णव व्यक्तित्व में सिरजी इनकविताओं की सांस्कृतिकता वानस्पतिक या जैविक स्पर्श से ही चैतन्य नहीं प्रकटती। यह तो उनकी संवेदनीयता का नया रूप है, तरलता से सांस्कृतिकी को युगान्तर तक ले जाने की बिम्बात्मकता। मगर इन कविताओं का लक्ष्य तो 'पीर पराई जाणे रे' की वैश्विकता है। और यह पराई पीर केवल वायवीय कलात्मकता हो, ऐसा नहीं है-

"इतिहास की बर्वर-जयकारों को सुनकर

सारे पशु-पक्षी भाग रहे हैं.

बस्तियाँ तक, वीरान हो गयी हैं

और लोग?

क्या कहीं है ??

आग और इतिहास ही जययात्राएँ

ऐसे ही गुजरा करती हैं।"

और 'अरण्या' काव्य संग्रह की समूची वानस्पतिकता के बीच ये पंक्तियाँ कितनी समकाल से टकराती हैं- "व्यक्तियों,घरों', 'दीवारों और भाषाओं

सबसे कहना पड़ेगा कि

उतार फेंको ये आग्रहों की वर्दियाँ पोस्टरों के वस्त्र

ये मनुष्यता के अपमान है। 

भाषा को दोगला बना देने वाले ये भाषण 

भाषा को गाली बना देनेवाले ये नारे

अपने स्वत्व और देह पर से नोंच फेंको  

जो कि गुदनों की तरह

तुम्हारे शरीर पर गोद दिये गये हैं।"

                     (अरण्यानी पृष्ठ-60 )

       नरेश मेहता इतिहास की वर्तमानता में उस क्रूरता के दृश्यों को रचते हैं तो ' पिछले दिनों नंगे पैरों" की काव्य- भाषा ही बदल जाती है। और यह उनकी समय सापेक्ष वैचारिकी का हिस्सा है, जो सेमेटिक- हेमेटिक संस्कृतियों की ऐतिहासिक हलचलों के आधुनिकतम त्रास को पहचानती हैं। पर इस काव्य संग्रह में मध्यकालीन आक्रमणों के ध्वंस और महाभारत कालीन अश्वत्थामा की कथाओं के क्रूर प्रसंगों से न केवल यंत्रणाओं के परिदृश्य रचे गये हैं, बल्कि इतिहास दर्शन और मानवीयता के रक्तरंजित खंडहरी परिदृश्य इतिहास दर्शन रच जाते हैं। असीरगढ़ के किले के सूनेपन में वही प्रकृति, वे ही पुष्प, वे ही जलाशय हैं: पर उन्हीं के भीतर से एक क्रूर सन्नाटा चीखता-सा है। इस किले के प्रत्यक्ष सम्मूर्तन में जिस ऐतिहासिक सन्नाटे को कवि बुनता है, उसी में टिटहरी की आर्तता की करुण पुकार क्रूर इतिहास और मनुष्यता की विवशता का संवेदन रच जाती है।

          यह संवेदन ही वैदिकता की तरलतम भाषा के विन्यास को तोड़ता है, क्योंकि कवि मूर्ति नहीं ,बल्कि अंतरंग पुकार है - "व्यक्ति में से जब पुकार नहीं सुनाई देती/ तो उसे मूर्ति ही समझना चाहिए ।"(पृ. २) यह विन्यास मुगलिया शिल्प और यातनाओं के क्रूर इतिहास के लिए अरण्यानी की काव्य- भाषा का अतिक्रमण करता है -

"वस्तुतः गढ़ियों, किलो, चौकसियों, सरायों

और छावनियों' की गांठोंवाला इतिहास का एक जाल -

एक खूँखार जिरहबख्तर

और हिनहिनाते घोड़ों के

टिड्डी दल

रक्त प्यासी तलवारों 

और दहशत पैदा करनेवाले

फ़तह के दमामों की तबाही में

सभ्यताओं, संस्कृतियों, कलाओं और बस्तियों पर

फौलादी शिकंजे सा फैला देते हैं।" 

      यह भाषा पिछली काव्य भाषा की तत्समता में कितना भ्रंश ला देती है। जैसे लिपि ही बदल गयी है सभ्यता की -" इतिहास मे चमगादड़ों सा लटका / समय को पंजों में दबाये/ उड़ने की प्रतीक्षा में /मौन !!" यह दृश्य बंध, यह सन्नाटा, ये पंजे और पत्थर बना चीत्कार इस क्रूरता का स्तब्ध इतिहास है।

     और यही सन्नाटा इतिहास दर्शन के वीराने की ओर ले जाता है-" वास्तव में तो मनुष्य का बीतना/ स्थान को / इतिहास बना देता है। और समय का बीत जाना/ इतिहास को खंडहर ।" यह काव्य- भाषा इतिहास के अंधेरे तहखानों में मनुष्य की आर्त पुकार है। और 'अरण्या' की काव्य- भाषा की वानस्पतिक जैविकता की गंध- भाषा के ठीक उलट यह इतिहास- भाषा रक्तपिपासा की क्रूरता तक जाती है--'"जानवरों के थनों में/ खून पीते कीड़े चिपके रहते हैं।" यह चिपकना क्रूर स्मृतियों का सादृश्य बिम्ब है। और इस क्रूरता का यह दृश्य-

"गुलाम के खून से

इतिहास के ग़ालीचे कहीं खराब न   

हो जाएं

इसलिए एक खच्चर गाड़ी पर

लहू टपकाते इस शब्द की लोथ को   

हटा दिया जाता है।

ताकि कुलीनताएँ और संभ्रांतताएँ 

लहू और माँस हो गये

इस शब्द को देखकर

गश़ न खाने लगे। "

        (पिछले दिनों नंगे पैर, पृष्ठ 83)

      इस इतिहास बोध की वर्तमानता उनके काव्यनाट्य 'संशय की एक 'रात' में व्यक्ति और समष्टि के द्वंद्व को तार्किक दर्शन में मानवीय बनाती है,तो प्रवाद पर्व में प्रति- इतिहास रचती हुई साधारण जन की मुखर अभिव्यक्ति में राजसी गरिमा को चुनौती देती है- "क्या अधिकार | केवल राज्य/ राज पुरुषों या / इतिहास पुरुषों के ही होते हैं? अनाम साधारण जन के कुछ नहीं होते राम?" लोकतंत्र में मनुष्य और साधारण मनुष्य की अभिव्यक्ति इतिहास को चीरती हुई आज तक आती है -" एक अनाम साधारणजन की तर्जनी- समय के पत्रों/ और लोगों के इतिहास-निरीह नेत्रों में। जब एक एक जलता प्रश्न/ उत्कीर्ण कर देती है/ जैसे प्रति-शिलालेख हो।" 'महाप्रस्थान 'में महाभारत की युद्धकथा अंतत: मानवीय आस्था के निर्वेद भाव तक जाती है-"भीम/ मैं राज्यान्वेषी नहीं/मूल्यान्वेषी रहा हूँ/ राज्य जैसी अपदार्थता के लिए/ अपने ही रक्त/ कौरवों का नाश?/ मेरे लिए असंभव था बन्धु।" (पृ.67) पर युद्ध के तात्कालिक धर्म का अनासक्त होकर निर्वाह करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं- 'इसीलिए उन दिनों की स्मृतियां/ मुझे भी स्मरण आती हैं/ पर सालती नहीं /आच्छादित नहीं करती। यही निर्वेद की भूमि है।" (वही, पृष्ठ 100)

           नरेश मेहता के काव्यबिम्ब, दृश्यांकन, सादृश्य जितने प्रकृति की रासलीला के चितेरे हैं, उनके सरोकार मनुष्य के जीवन की सहज यात्रा से भी गहरे हैं। 'पृथिवी' के लिए यह रूपांकन प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म और मनुष्य से कितना संवलित है- "पृथिवी/ दूर्वादल की भाषावाली / एक भागवत कथा है/कभी सुनी है?/ दिन के कथावाचक से यह माधवी गाथा कि/ वनस्पति-वस्त्रा पृथिवी / एक भागवत कथा है?" रूपक अलंकार की पुरानी भाषा कितनी मानवीकृत पृथिवी का ग्रंथ बन गयी है। अलंकार शास्त्र भी ऐसे रूपान्तर से कितना उदात्त और नया हो जाता है। पर यह 'प्रार्थना- धेनुओं 'के रूपक से अलग मानव जीवन से कैसे आरोपित होकर काव्यभाषा का नया सादृश्य, नया बिम्ब रच जाता है- "  

"पेड़ के गाउन

हवा में सरसराते उड़ रहे हैं।

केवड़े की हरी तलवारें खड़ी इस धूप में

दे रही पहरा 

क्योंकि छोटे मोरपंखी

नोचने का कर रहे अभ्यास" 

          (बोलने दो चीड़ को, पृष्ठ-12)

       अब इस कंपन को सरसराहट को , कभी थरथराहट को, कभी स्पर्श को, कभी गंध को ,कभी आँखों के उत्सव को, कभी प्रकृति के तरलतम रूप को कितना महसूस किया जा सकता है। पर केवड़े की हरी तलवारों की वानस्पतिक जैविकता में छोटे मोरपंखी नृत्य क्रूर की काव्यभाषा एक उदात्त संरक्षण की जीवनदृष्टि को उतार लाती है। पाठक के भीतर यह काव्य- भाषा गूँजने सी लगती है। तब कवि- कथन सार्थक हो जाता है- "मानवीय वाद्य का नाम भाषा है।" और यही कोमलतम के संरक्षण की संवेद्य भाषा कवि के स्वप्न तक ले जाती है-

पुत्र मेरे

देहजीवी हम नहीं 

दृष्टिजीवी हैं।

हमारा भूगोल काटेगा नहीं इतिहास हम तो यज्ञ हैं

यज्ञ गाथा हैं

हमारी पुस्तक खुले खेतों खुली है 

रक्त हस्ताक्षर तुम्हारा चाहिए।

       (बोलने दो चीड़ को, पृ. 45)

   नरेश जी की काव्य भाषा, काव्य-व्यक्तित्व सांस्कृतिकता, ऐतिहासिकता और काल प्रवाह में अपने समकाल तक आए बगैर नहीं रहते। यही उनके काव्य का दिक्काल है, सोच की मानव केन्द्रितता है, साधारणजन की लोकतांत्रिक प्रतिष्ठा है, युद्धों के बीच मूल्यान्वेषण की तर्कशीलता है, इतिहास को चीरकर युगसत्य को जानने-पहचानने की यथार्थ दृष्टि है। एक प्रज्ञा पुरुष उनके सारे अन्तर्द्वंद्वों में राह निकालता है, तटस्थ भाव से उसे पहचानता है-"प्रत्येक व्यवस्था के पास/ अपने बघनख होते हैं अर्जुन! / सुदूर भविष्य में / क्या यह नहीं संभव है कि / राज्य व्यवस्था समाज से स्वतंत्रचेता व्यक्तियों को ही/ या तो समाप्त कर दे/ या उन्हें इतना विवश, पंगु बना दे/ कि उनका अग्नि व्यक्तित्व/ राज्य-व्यवस्था की निरंकुशता को/ कभी चुनौती ही न दे पाये/अकेला दुर्योधन ही/ दुर्विनीत नहीं था अर्जुन !/व्यवस्था का मुकुट धारण करते ही/किसी भी व्यक्ति का मनुष्यत्व नष्ट हो जाता है।" यह प्रज्ञा इतिहास बिन्दु की तात्कालिकता नहीं, मनुष्य की सतत यात्रा के लिए अनवरत संघर्ष के मूल्यबोध की प्रज्ञा है। 

       एक बात और भी है। नरेश मेहता ने इतिहास प्रसिद्ध पात्रों को नया व्यक्तित्व दिया है, पर उनके साथ न तो छेड़छाड़ की है, न विचारधाराओं के लेप लगाये हैं। बस सांस्कृतिक प्रज्ञा और समकाल की मूल्यमानता का अनवरत परीक्षण - पोषण किया है। इसीलिए इतिहास के ये चरित्र आज की प्रज्ञा से पोषित है। दूसरे यह भी कि इनमें भारतीय इतिहास दृष्टि के उजले पक्षों का संधान अन्तरात्मा के रूप में किया गया है, जो हमारी विरासत की सन्निधि है। सारे मिथकों, पौराणिक कथानकों, इतिहास के घटनाचक्रों, जय-पराजयों में वे क्रूरतम अध्यायों के साथ उजले पन्नों से संस्कृति को कालजयी बनाते हैं। हजारों साल की यह यात्रा यों भी मृत्युमुखी संस्कृति की नहीं हो सकती, बल्कि क्रूर सत्ताओं के बीच भी शक्तिबीजों को संरक्षित करती संघर्षमयी संस्कृति की जीवट को ज्योतिर्मय बनाती है। यह एक तरह से इतिहास - प्रतिइतिहास की विवेक प्रज्ञा है, जो कोहरे को धोकर सांस्कृतिक उजास में शक्तिमान बना देती है। जिन्दगी का गद्य नरेश मेहता को उपन्यासकार बना देता है, सांस्कृतिक यात्रा का नवोन्मेषी संवेदन उनकी काव्य सत्ता को रचता है। सच तो यह है कि नरेश मेहता काल के एक बिन्दु पर चक्रित नहीं है? काल की अक्षय धुरी पर वे हज़ारों साल के इतिहास, दर्शन, संस्कृति और मूल्यों के साथ समाजसापेक्ष संधान से शब्द और अर्थ को सनातन चेतना से जोड़ देते हैं। इसीलिए वे इतिहास की कोहरा- भाषा नहीं, प्रज्ञा की जीवटभरी ज्योत्स्ना है।

बी. एल. आच्छा

फ्लैटनं-701टॉवर-27

नॉर्थ टाउन अपार्टमेंट

स्टीफेंशन रोड (बिन्नी मिल्स)

पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)

पिन-600012

मो-9425083335

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