आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व के विविध आयाम

Dr. Mulla Adam Ali
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Acharya Mahavir Prasad Dwivedi

Acharya Mahavir Prasad Dwivedi
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी : व्यक्तित्व के विविध आयाम

- बी.एल.आच्छा

                 किसी युग का अचार्यत्व कालजयी व्यक्तित्व की पहचान है। यह कालजयी व्यक्तित्व जितना अपने समकाल के साहित्यिक परिदृश्य को नई दिशा और अनुशासन देता है, उतना ही भविष्य की सृजन दृष्टि को भी; लेकिन अपने इतिहास और संस्कृति की जड़ों से संपुष्ट होकर। ऐसे व्यक्तित्व केवल अपनी भाषा और साहित्य की परिधि में सिमटे नहीं रहते, बल्कि देश देशांतर के भाषा साहित्य और ज्ञानराशि के साहित्येतर विषयों से समृद्ध होकर अपनी भाषा के वैभव को बढ़ाते हैं। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व इन सभी गुणों को आत्मसात करता हुआ एक और विशेषता लिए हुए हैं। आचरण की भाषा और समर्पण का उच्च आदर्श उनके वैयक्तिक और साहित्य जीवन का अनुशासन बने रहे।

               उनके जीवन प्रसंगों से गुजरा जाए तो लगता है कि कितनी अंधेरी घाटियॉं हैं, जिनके भीतर से उषा की लालिमा विकीर्ण होनी है और जो हिंदी साहित्य को नया प्रस्थान देने के लिए संघर्षरत हैं। यों इन अभावों से उस काल के अनेक साहित्यकार निकले हैं। द्विवेदी जी के संघर्षों, व्यक्तित्व के कठोर अनुशासन, भाषाओं के प्रति अनुराग, संस्कृत -अंग्रेजी- मराठी -गुजराती- बंगला के साहित्य से साक्षात्कार, प्राचीन साहित्य के अनुवाद और तलस्पर्शी आलोचना, स्वाभिमान और समर्पण, आचार्यत्व की शुष्कता में कोमल संवेदन, नये युग की प्रतिध्वनि और बदलती सामाजिक संवेदना, हिंदी के लिए व्याकरणिक अनुशासन, सामाजिक आदर्शों में नैतिक आस्था, गद्य का मानकीकरण, सरस्वती पत्रिका के प्रति समर्पण, निर्मम आलोचना दृष्टि के साथ साहित्य के अनुशासन वाली सृजन पीढ़ी का रचाव जैसे अनेक पक्ष न केवल आचार्य द्विवेदी को युगीन नामकरण से अभिहित करते हैं, बल्कि अनुवर्ती आचार्य रामचंद्र शुक्ल की पीढ़ी का भी वैचारिक आधार तैयार करते हैं।

          जीवन के घटना चक्र में ही किसी के तत्व को समझना उसी तरह प्रेरक होता है जैसे कहानी में द्वंद्वों, संवादों और कथानकीय मोड़ों में चरित्र का पक्ष उभर कर आता है। रायबरेली (उ.प्र.) के गांव दौलतपुर में 15 मई 1864 को जन्मे महावीर प्रसाद द्विवेदी की दौलत पितामहों के कवित्त-सवैये, थोड़ा सा संस्कृत का ज्ञान-प्रवाह और आर्थिक संकटों में दादी द्वारा पुस्तकें बेचकर परिवार का भरण पोषण ।पिता ईस्ट इंडिया कंपनी की पलटन में रहे। मगर 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के बागी। छुपकर भिक्षाटन और वल्लभ संप्रदाय के गोस्वामी जी के यहां नौकरी। फिर बच्चों की शिक्षा का संकट। इसलिए अमरकोश और दुर्गा सप्तशती के पाठ के साथ घर पर ही संस्कृत का थोड़ा सा ज्ञान। मदरसे में थोड़ी उर्दू की पढ़ाई। 26 मील की पैदल साप्ताहिक यात्रा कर रायबरेली के स्कूल में अंग्रेजी पढ़ी ,सो भी पीठ पर खाने का सामान लादकर। स्कूल बदलते गए ,फीस के संकट बने रहे। उन्नाव में चार साल में अंग्रेजी का ज्ञान। मगर नौकरी की अनिवार्यता ने स्कूल भी छुड़वा दी।

          रेलवे की नौकरी में और बाद में तार ऑफिस में बाबू।प्रतिभा से यहां भी कई तरह के काम कर वे झांसी में मुख्य टेलीग्राफ इंस्पेक्टर और अन्य पदों पर कार्यरत रहे। पर नये अंग्रेज अफसर ने जब उन्हें महज क्लर्क समझा और मातहतों को दबाने के लिए अत्याचार करने लगा तो अपनी निर्भीकता और स्वाभिमान के साथ संवाद करते हुए इस्तीफा दे दिया।अंग्रेज अफसर की मान मनोव्वल के बावजूद उन्होंने इस्तीफा वापस नहीं लिया। बल्कि पत्नी की सहमति से दृढ़ निश्चय और स्वाभिमान को अक्षत रखा ।यही वह धरातल था, जिसकी कंदराओं के भीतर से उनका व्यक्तित्व साहित्य के धरातल पर नये अनुशासन के रूप में उभरता है।

              रेलवे की नौकरी के दो सौ रुपयेऔर दूसरे पलड़े में आत्मसम्मान। नौकरी के दौरान उनके संस्कृत अनुवाद, भाषाज्ञान और व्याकरणिक अनुशासन, अंग्रेजी -मराठी- गुजराती- बंगला के ज्ञान के साथ हिंदी के व्याकरण और आलोचना का समर्थ तार्किक पक्ष इस तरह उभर कर आया कि हिंदी के पहले प्रकाशक और इंडियन प्रेस प्रयाग के संचालक चिंतामणि घोष ने उन्हें ससम्मान सरस्वती के संपादन का दायित्व सौंपा। सन 1904 से 20 साल आगे तक सरस्वती का संपादन किया। मगर शुरु में रेलवे के दो सौ रुपए और सरस्वती पत्रिका से तेबीस रुपए प्रति माह। तेबीस रुपए की छोटी सी दौलत से उन्होंने सरस्वती को न केवल इस युग की शीर्ष पत्रिका बना दिया, बल्कि दौलतपुर के इस अभावग्रस्त व्यक्तित्व ने हिंदी को अक्षय दौलत से समृद्ध कर दिया। कहां तो रेलवे की नौकरी और कहां हिंदी प्रेम के लिए रामचरितमानस और ब्रजविलास का नियमित पाठ। उस काल की 'कवि वचन सुधा' और 'भारतेंदु' पत्रिकाओं का पठन। छंद शास्त्र का शिक्षण। संस्कृत के स्तोत्रों का खड़ी बोली में अनुवाद ।मगर यही राह उन्हें शीर्ष तक लेकर गये।

        आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने आचार्य द्विवेदी के लिए ठीक ही लिखा है -"जिनसे नवीन विचारधारा प्रवाहित हो -ते नरवर थोड़े जग माही।" रचनात्मक साहित्य की दृष्टि से देखा जाए तो आचार्य द्विवेदी का अनुवाद कर्म ही ज्यादा है ।खड़ी बोली में उनकी कविताऍं 1903 में 'काव्य मंजूषा' संकलन में प्रकाशित हुई। खड़ी बोली में 'कुमारसंभव सार 'के पांच सर्गों की रचना मात्रिक छंदों में की।ब्रज भाषा में भी 'देवी स्तुति शतक' प्रकाशित हुई। पर मौलिक सृजन की अपेक्षा अनुवादित ग्रंथ और आलोचनात्मक निबंध ही उनकी साहित्य संपदा हैं।

                 परंतु 'कुमारसंभव सार', रघुवंश, हिंदी महाभारत, बेकन विचार रत्नावली ,स्वाधीनता, संपत्तिशास्त्र जैसे अनुवाद और पुस्तकें तथा हिंदी भाषा की उत्पत्ति, कालिदास की निरंकुशता, मिश्रबंधु का हिंदी नवरत्न जैसे समीक्षात्मक लेखों में द्विवेदी जी के कृतित्व के आयाम छुपे हुए हैं, जो उन्हें युग विशेष का आचार्य बनाते हैं। आचार्य वाजपेयी ने समुचित आकलन करते हुए लिखा है -"यदि सरस्वती के अंको में वे संशोधन, काटछांट और कायापलट एकत्र कर दिया जाए, जो उन्होंने मूल प्रतियों में किया था और जिनके कारण वे प्रतियां मुद्रित प्रतियों में अधिक दर्शनीय और संग्राह्य हो गई है तो यह युगीन संस्कारजन्यता ही है"। उन रचनाओं में द्विवेदी जी की छाप इतनी गहरी है कि उन्हें' द्विवेदी कलम 'से जाना जाता है।

         यह द्विवेदी जी के संपादन की सृजनात्मकता, भाषा नियमन और वैचारिक युगबोध का परिचायक है। इन संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद आलोचना से हिंदी आलोचना का फलक व्यापक हुआ है। संस्कृत में जो 'उपमा कालिदासस्य' और हिंदी में'सूर सूर तुलसी ससि' तक जो आलोचना अटकी थी, उसे नया अर्थ गौरव और युगांतर की दिशा मिली। खड़ी बोली की कविता को भाषा का नया अनुशासन मिला। हिंदी गद्य के चार प्रारंभिक गद्यकारों की चली आ रही भाषा को व्यवस्था मिली। संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से पुरातन राष्ट्रीय गौरव के साथ सोच का नया क्षितिज मिला। मसलन 'कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' निबंध नये सृजन और युगसम्मत नवसांस्कृतिक अनुशीलन बनते गये।

        आचार्य द्विवेदी ने 1920 में 'कविता और उसका भविष्य 'निबंध लिखा था। वे लिखते हैं- "भविष्य -कवि का लक्षण इधर ही होगा। अभी तक वह मिट्टी से सने हुए किसानों और कारखानों से निकले हुए मैले हुए मजदूर को अपने कार्यों का नायक नहीं बनाना चाहता था। वह राजस्तुति, वीरगाथा और प्रकृति वर्णन में लीन रहना चाहता था। परंतु अब वह क्षुद्रों की महत्ता देखेगा और तभी जगत का रहस्य सबको विदित होगा।" यह शब्दावली दौलतपुर के ब्राह्मण परिवार के उस साधारण व्यक्ति की है, जो बदलते युग की प्रतिध्वनि को ,साहित्य की मानव केंद्रित धुरी को, किसान -मजदूर जीवन के क्षुद्रता को देख-सुन रहा था और पुराने नायकवादी प्रतिमानों से निकलकर युग नायक के रूप में इनकी नई प्रतिष्ठा को आंक रहा था। इस नये नजरिए में भविष्य के साहित्य में लोकवादी सोच था।सांस्कृतिक पुनरुत्थान की अंतर्दृष्टि भी थी। बेकन रचनावली के माध्यम से अंग्रेजी साहित्य और वैज्ञानिक विवेक का समावेश था। आलोचना की आचार्य पद्धति, टीका पद्धति, निर्णयवादी सूक्ति पद्धति, लोचन पद्धति के स्थान पर समाज केंद्रित मूल्यवादी प्रतिमान आधार बनते गए। आचार्य द्विवेदी ने प्राचीन भारतीय साहित्य की शास्त्रीय जटिलता से निकलकर लोकधर्मी मूल्यों की नवीनता को स्वीकृति दी। तत्कालीन समाज की अपेक्षा के अनुरूप सोद्देश्यता, नैतिकता और विवेकपूर्ण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ सामयिक घटनाचक्र और वैश्विक उपलब्धियों से हिंदी साहित्य को जोड़ा। सरस्वती पत्रिका इसी कारण केवल साहित्यिक नहीं रही, जीवन के विविध क्षेत्रों और विषयों का बड़ा फलक बनती चली गई। रामविलास शर्मा ने उनकी रचना दृष्टि में नवजागरण के प्रवर्तन को रेखांकित किया है। डॉ.उदयभानु सिंह ने युग विधायक व्यक्तित्व में भाषा व्यवस्थापक के साथ साहित्य में जागृति उत्पन्न करनेवाले आंदोलक के जीवंत नायकत्व को रेखांकित किया है।

     संपादन में आचरण की सभ्यता का अर्थ है प्रकाशन के लिए नियमबद्धता और वैयक्तिक स्तर पर स्वयं संपादक द्वारा नियम का अनुपालन। इस मायने में वे जितने सिद्धांतवादी रहे ,उतने ही उसके अनुपालक। इसीलिए कई बार द्वंद्व खड़े हो जाते थे।पर द्विवेदी जीके निर्णय की अडिगता के आगे टिक नहीं पाते थे।चाहें जितनी निकटता हो और संस्थागत सहयोग भी,मगर उनके निर्णयों की सिद्धांतबद्धता और कर्मशील व्यक्तित्व के आगे प्रकाशन के मालिक चिंतामणि घोष तक हस्तक्षेप नहीं करते थे ।कारण यही था कि उनके उद्देश्य, हिन्दी की भाषिक व्यवस्था और नयी जीवन दृष्टि से पाठकों और लेखकों में जगह बना रहे थे।ये ऐसे सोपान थे, जिनमें भारत का सांस्कृतिक गौरव और हिंदी साहित्य में नए युग चेतना का प्रतिबिंब झलकता था। इस विराट दृष्टि के आगे नागरी प्रचारिणी जैसी संस्थाओं से मतभेद ,याकि केदारनाथ पाठक, श्यामसुंदरदास, बाबू बालमुकुंद गुप्त जैसे कई लेखकों से तक टकराहट भी हुई। मगर द्विवेदी जी की सिद्धांतबद्धता में भी उनके भीतर के कोमल पक्ष के कारण सिद्धांत -भूमि पर रिश्तों का सौहार्द भी स्थापित हो गया।

            द्विवेदी जी के व्यक्तित्व में एक सुधारक रूप इतना रचा बसा रहा कि साहित्य पवित्रता की सौंदर्य दृष्टि का प्रतिमान बनता गया। इससे कविता भीतर की संवेदना की झनझनाहट की अपेक्षा उपदेशपरक सोद्देश्यता से लक्षित होती गई ।पर यही क्या कम है कि रीतिकाल की श्रृंगारभूमि और भक्ति काल की प्रतिमा का अतिक्रमण करते हुए साहित्य में वास्तविक समाज की जीवंत धड़कनों का संचार होता गया। यह सही है कि उन्होंने निराला की 'जूही की कली' को उन्मत्त श्रृंगार के कारण लौटा दिया ।इस उन्मत्त श्रृंगार के कारण ही उन्होंने कालिदास कुमारसंभव के पांच सर्गों के बादअनुवाद नहीं किया। पर प्रेम का रंग गहरा न होता तो क्या दो देवियों के बीच वे अपनी पत्नी की प्रतिमा बिठा पाते?सो भी उस काल के विरोध को दरकिनार करके। पर जीवन के स्पंदन के कारण ही उन्होंने भारतेंदु के खड़ी बोली के गद्य को प्रतिष्ठित आसन दिया। यही उनकी जीवन पर लोकदृष्टि है ,जो सामाजिक लोकाचार में उपदेशपरक सोद्देश्यता तक ले जाती है। पर श्रृंगार की पट्टभूमि से खिसकाकर हिन्दी साहित्य कोअसल जीवन से, राष्ट्रीय-सांस्कृतिक मूल्यों से संक्रांत कर देती है। ऐसे में उद्दाम श्रृंगार, कल्पनाशीलता, भावसाध्य तन्मयता के लिए अवकाश कम ही होता है, क्योंकि आचारपरकता पवित्रता के सोद्देश्य संस्कारों की ओर उन्मुख करती है। आचार्य वाजपेयी में ठीक ही कहा है -"स्वभाव की रुखाई कपास की भांति नीरस होती हुई भी गुणमय फल देती है। द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य के क्षेत्र में कपास ही की खेती की- "निरस विसद गुनमय फल जासू।"

              द्विवेदी जी के आदर्शवादी प्रतिमानों में जितना राष्ट्रीय चेतना और गौरव का मुख्य स्वर है, हिंदी की छंद से बंधी काव्यधारा का नया रूप है, सामाजिक राजनीतिक धाराओं की जितनी प्रतिध्वनि है, कमजोर तबकों की दरिद्रत के प्रति जितनी संवेदना है, हिंदी कविता में कथोपकथन शैली में सांस्कृतिक गौरव के उदात्त चरित्रों की रचना है, गद्य में आदर्शवादी प्रतिमानों का विन्यास है, वह बदलते समय और जीवन की दिशा को संजोता है। फिर भाषा के जिस स्वरूप को विकसित किया है, वह भले ही उतना साहित्यिक या व्यंजनापरक न हो, मगर सामाजिक व्यवहार का संवाहक है। 

      युग के आचार्य का पारिवारिक और लोक हितैषी व्यक्तित्व भी कितना जमीनी है, यह तो उनके जनसहकार और दांपत्य राग से ही पता चलता है। जिस अंग्रेज अफसर के आगे वे नहीं झुके, उसमें उनकी पत्नी की भी दृढ़ता का संवाद था। मित्रों के आग्रह के बावजूद उन्होंने सरस्वती के संपादन के समय कोई सहायता स्वीकार नहीं की। जबकि तेबीस रुपये में निर्वाह करना कठिन था। इसके बदले अधिक लेख लिखकर वह धनराशि पा लेते थे। सरस्वती के संपादन के कठिन दायित्व में उनका लेखन, रचनाओं में संशोधन, उत्तर- प्रत्युत्तर, आलोचना- प्रत्यालोचना के साथ समयबद्धता और सामग्री की न्यूनता में स्वयं के लेखन से उसकी पूर्णता उनके कर्मशील व्यक्तित्व को दर्शाती है। यह अलग बात है कि इतने परिश्रम के कारण उनका स्वास्थ्य गिरता गया। पत्नी को मिर्गी रोग था और वह गंगा स्नान के समय बह गई। उन्होंने महावीर (हनुमान) मंदिर के पास एक और मंदिर बनवा दिया, जिसमें लक्ष्मी सरस्वती के बीच पत्नी की मूर्ति विराजमान कर दी। दांपत्य- राग का यह अनूठा उदाहरण है, जो विरोध के बावजूद कायम रहा। सरस्वती से सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें पचास रुपये मासिक सहायता मिलती रही। इस राशि का उपयोग भी निर्धनों की सेवा में करते रहे। उनकी जमीनी लोकसेवक की प्रतिमा भी बहुत प्रशंसित रही। वे दौलतपुर ग्राम के सरपंच बने, तो कानून की पुस्तकें पढ़ीं। आत्मरक्षा के लिए उनके पास बंदूक भी थी, ताकि कड़े न्यायिक फैसलों में वे निडर रहें।दौलतपुर में डाकघर, प्राइमरी स्कूल हॉस्टल खुलवाए।

            जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने किसानी का शौक भी पूरा किया। 'संपत्तिशास्त्र ' पुस्तक लिखकर जमीदारी की अंग्रेजी नीति के कारण किसानों के शोषण को भी जगजाहिर किया। गांव के किसानों से उनकी बोली में बातचीत, दूर के रिश्तेदारों का अपने परिवार में लालन- पालन, गांव के गरीबों की सहायता, कृषकों में जागरूकता के जमीनी संघर्ष आदि अनेक पक्ष है, जो सरस्वती के प्रख्यात संपादक के जीवन का सकर्मक उत्तर- पक्ष है। जो बातें साहित्य की नई दिशा के लिए किसानों और मजदूरों के जीवन से केंद्रित रहीं, वे जीवन के अंतिम वर्षों में जमीनी क्रियान्वयन बनती गई। उन्होंने कई पुस्तकों को विश्वविद्यालय में समर्पित किया और धनराशि भी। अपनी काया से रोबीले दिखने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, साहित्य में कठोर अनुशासन वाले संपादक, वैयक्तिक जीवन में अपने सिद्धांतों के अनुरूप जीने वाले साहित्यकार का दौलतपुर के किसानी जीवन से सहचार उनकी सहज भूमि और चिंतन -आचरण की सभ्यता के बीच एकाकारता को लक्षित करता है। 2 मई 1933 को नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा उन्हें अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया गया। इसका संपादन बाबू श्यामसुंदरदास और रायकृष्णदास ने किया था। यह साहित्य संवादों की तीखी आलोचना-प्रत्यालोचना के बीच सौहार्द की उस कोमल जमीन का परिचायक है, जो द्विवेदी जी के व्यक्तित्व का कठोर किंतु कोमल पक्ष भी है। यही नहीं, 21 दिसंबर 1938 को मृत्यु के कुछ माह पहले अपनी बची हुई धनराशि का दान काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रों के लिए तथा नागरी प्रचारिणी सभा के छोटे कर्मचारियों के लिए बंद लिफाफे में किया गया। विसर्जन का यह लिफाफा उनके आदेशानुसार मृत्यु के बाद ही खोला गया। यश की लालसा और दान के दिखावे से दूर उनका यह सहज सारस्वत व्यक्तित्व उन्हें जितना सहज मनुष्य के रूप में प्रतिष्ठित करता है, उतना ही हिंदी साहित्य के इतिहास में कालजयी आचार्य के रूप में।

सहायक संदर्भ ग्रंथ;

  1. हिन्दी साहित्य: बीसवीं शताब्दी - नंददुलारे वाजपेयी : लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  2. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी - रामविलास शर्मा

बी. एल. आच्छा

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