एक स्ट्रेट फॉरवर्ड व्यंग्य : पंचायत

Dr. Mulla Adam Ali
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Ek Straight forward Vyang : Panchayat

Ek Straight forward Vyang Panchayat

एक स्ट्रेट फॉरवर्ड व्यंग्य : पंचायत 

- बी. एल. आच्छा

       डॉ. पिलकेद्र अरोरा द्वारा आयोजित स्ट्रेट फॉर्वर्ड ऑनलाइन व्यंग्य-पंचायत में धर्मयुग काल के नामवर व्यंग्यकार डॉ.सूर्यबाला, डॉ. प्रेमजनमेजय, डॉ. हरीश नवल, डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी के साथ नयी पीढ़ी के डॉ. आलोक पुराणिक से साक्षात्कार। कोरोना काल में तकनीक का सृजनात्मक इस्तेमाल। श्रोताओं के संवादी सहकार के बीच सवालिया तीरों से कुछ उगलवाने की भरसक कोशिश, जो व्यंग्यकार की सृजन -भूमि और उसके नजरिए तक ले जाती है। तात्कालिक सवाल, जो भरपूर शोध सामग्री से उपजे हैं और व्यंग्यकारों के अकृत्रिम इंस्टेंट जवाब। कई बातें हाथ लग जाती हैं। मसलन व्यंग्य की सृजन भूमि का आरंभिक परिवेश और बदलाव की नवोन्मेषी प्रयोगशीलता। कभी व्यंग्य विधा के सृजन- कोण। समकालीन व्यंग्य पर दृष्टिपात। कभी व्यंग्य की शास्त्रीयता में फांसने की कोशिशों से निकलते हुए अपने क्षेत्र में नई गोलंदाजी ।न सही यह व्यंग्य की कार्यशाला, न अकादमिक अंदाज, न व्यंग्य की कसौटियों की सृजन सीख; मगर ये संवाद भरी पंचायत में व्यंग्यकार को अपने अनकहे को कह जाने या उससे बच निकलने की खूबियों तक ले जाते हैं। इतना जरूर है कि यह खुला मंच इन व्यंग्यकारों से जितना सुनता है, वे हस्ताक्षर होने की पहचान के साथ व्यंग्य आलोचना की राह के लिए बहुत कुछ दे जाते हैं ।एक तरह से व्यंग्य के कच्चे-पक्के के नोट्स भी।

             यों तो पूर्ववर्ती आलोचना पद्धतियों में बायोग्राफिक्स भी आलोचना का हिस्सा रही है। आखिर जिस परिवेश से रचनाएं आकार लेती हैं, लेखकीय सूजन में बदलाव के बावजूद उसका अंतरंग समाया होता है। इन संवादों में शास्त्रीय सवालों से लगभग परहेज रहा है, मगर आरंभिक परिवेश से संबद्ध सवाल सकारक हैं, क्योंकि वह परिवेश और रुचियां ही इन व्यंग्यकारों को व्यंग्य की ओर धकेलती हैं। और वही समूचे जीवन का व्यंग्य-राग बन जाता है। प्रेम जनमेजय को पिता के अध्ययन कक्ष में रखे कबीर व्यंग्य की ओर खींच ले जाते हैं। हरीश नवल को सरस्वती पूजन की संस्कारिता के साथ व्यंग्य -सरस्वती ही हल्के हाथों से व्यंग्य का बल्लेबाज बना देती है। आलोक पुराणिक को अर्थशास्त्र का बाजार ही व्यंग्य के पीले चावल का आमंत्रण दे जाता है। पारिवारिक हास- परिहास और टीका- टिप्पणियों के साथ किताबिया शौक में व्यंग्य ने ही सूर्यबाला को व्यंग्यकार के रूप में चुना है। ज्ञान चतुर्वेदी मानते हैं कि व्यंग्य का भार उठाने के लिए कई कई खंभों की आवश्यकता होती है, जिसमें संबंध, मित्रता, क्षमता, परंपरा, पूर्वज भी शामिल हैं। और खास बात यह भी कि इन सभी ने हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल आदि की सृजनभूमि को प्रणाम करते हुए अपने व्यंग्योन्मेष की सृजनभूमि को रचा है।

                डॉ. पिलकेंद्र ने इन शीर्ष व्यंग्यकारों को उनके ही कथनों से जितना उलझाया है, उतने ही व्यंग्य सृजन और व्यंग्यालोचन के अक्स भी खुले हैं। मसलन करुणा और संवेदना व्यंग्य की बीजभूमि है, पर पल्लवन की रचना प्रक्रिया में लेखक के अपने अपने अक्स। प्रेम जनमेजय हास्य के अलगाव के साथ व्यंग्य को आक्रोश और बेचैनी तक लाते हैं, तो सूर्यबाला प्रहार के बजाय मासूमियत की उत्सभूमि तक। हरीश नवल अपनी सौम्य मुद्रा में आक्रोश को रचना की आग का अंतरंग मानते हैं। 'हरी, वरी और करी' से बचनेवाला उनका व्यंग्यकार आग के प्रदर्शन को व्यक्तित्व का हिस्सा नहीं बनाना चाहता है।आलोक पुराणिक व्यंग्य के अलग-अलग स्कूलों के बीच कोई बुनियादी अंतर नहीं देखते। बल्कि करुणा और संवेदना को मूलभूत मानते हैं। और यही करुणा या प्रेम ज्ञान चतुर्वेदी में अच्छे मनुष्य को संजोने की शल्यक्रिया के रूप में व्यंग्यशील बना रहता है। अलबत्ता विसंगतियों के दुखार्त से टकराते रहने का माद्दा अपनी व्यंग्यात्मक सृजनशीलता में करुणा से ही उपजा है। उसमें रंजकता का लेपन, व्यंग्य को अधिक धारदार बनाने के लिए भी हो सकता है। क्योंकि पश्चिम में मॉन्तेन ने इथोस और पेथोस के रसायनों से सैटायर को रचा है। पर करुणा व्यंग्य की उत्स भूमि है। यह परसाई की स्पिरिट धारणा की तरह चर्चित है। यदि आचार्य रामचंद्र शुक्ल को याद किया जाए, तो करुणा ही ऐसा मनोविकार है, जो दुख के वर्ग में होकर भी दुखार्त के साथ खड़े होने पर सुख देता है। विसंगतियों के खुरदुरे सामाजिक पठार पर व्यंग्यवाणी का लोकतंत्र श्रेष्ठ मनुष्यता को ही लक्षित करता है। करुणा उसका संवेदन है और वाणी की शल्यक्रिया उसके औजार। यहां सभी व्यंग्यकार इन स्कूलों की वैचारिक विशिष्टता के बावजूद सहमत नजर आते हैं।

 

                   कई सारे व्यंग्य प्रश्न इन साक्षात्कारों में उभरे हैं।व्यंग्य विधा की स्वीकृति तो है, पर इससे किस तरह नामित किया जाए -गद्य व्यंग्य, व्यंग्य निबंध या व्यंग्य। यह भी की व्यंग्य में तात्कालिक विषयों में प्रतिभा की चमक को खपाना क्या निरर्थक है? सायास लेखन और अनायास लेखन व्यक्तिपरक है या व्यंग्य विधा की गुणवत्ता का मान। क्या सोशल मीडिया पर प्रकाशन की जो बेरोकटोक छूट है और लाइक्स का सूचकांक, वह व्यंग्य की गुणवत्ता का साधक है? लोकप्रियता के प्रतिमान को ज्ञान चतुर्वेदी सिरे से खारिज करते हैं। यह भी कि कालजयी व्यंग्यकारों की कई रचनाएं समय ही खारिज करता जाता है। पर कई रचनाएं नये समय में भी अपनी पहचान को क्यों कर अनिवार्य बनाए रखती है? यह भी की प्रतिबद्धता लेखन के प्रति है या व्यक्ति और विचारधारा से? यह भी कि व्यंग्य विधा के शास्त्रीय मूल्यांकन की कसौटी जरूरी है याकि व्यंग्यकार इस शास्त्रीय चौखट को तोड़कर नया सृजन करता रहता है। यह भी कि लेखक अच्छा मनुष्य न हो, पर उसकी रचना अच्छी है तो क्या उसके लेखन की अनदेखी होनी चाहिए? अखबारों में व्यंग्य के आकार या शब्दों की तुला भी रचना की अभिव्यक्ति को सीमित करती है। यह स्थिति व्यंग्यकार को उपन्यास के बड़े क्षेत्रफल तक ले जाती है। इसके ठीक उलट व्यंग्य की अर्द्धाली या हाफलाइनर अखबारों में चल पड़ता है। इन सवालों से ये साक्षात्कार गुजरे हैं। फिर भी व्यंग्यकारों और आलोचकों की खुली विचार - संगति में आमने-सामने की मांग करते लगते हैं।

              इन ऑनलाइन साक्षात्कारों का एक सुखद पक्ष है, पाठकों- दर्शकों की प्रतिक्रिया जनित उपस्थिति का। व्यंग्य- पंचायत का आधार पाठक ही है। आखिर यही तो रचना को या विमर्श को उन्हीं के बीच संप्रेषणीय होना है। खुशी इस बात की है कि इस पंचायत में व्यंग्यकारों की बिरादरी भी श्रोता के रूप में सक्रिय रही। महज नमस्कार से उपस्थिति दर्ज करवाने की अपेक्षा व्यंग्य की समझ और शब्दावली से लैस होकर। सवाल, अवधारणा, प्रतिक्रिया, सहमति -असहमति की माकूल भाषा में सहभागी रही। इन शीर्ष व्यंग्यकारों ने अगले साक्षात्कारों में शामिल होकर विमर्श को पुख्ता बनाया है।

              'साक्षात् व्यंग्यकार' ऑनलाइन प्रसारणऔर प्रकाशन की स्थायी उपलब्धि है। डॉ. पिलकेंद्र अरोरा का श्रमसाध्य प्रयास और डॉ. नीरज सुधांशु के सहयोग का फलित। व्यंग्य विमर्श के लिए एक संवादी संदर्भ का स्वागत।

B. L. Achha

फ्लैट नं-701, टॉवर-27
नॉर्थ टाऊन, स्टीफेंशन रोड
पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)
पिन-600012
मो-9425083335

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