Email Ke DadaJi
ईमेल के दादाजी
- बी. एल. आच्छा
किसी ने मुझसे पूछ लिया - "ईमेल के दादाजी कौन है?" मैंने कहा- "अरे इसका भी कोई डी.एन.ए. होता है क्या?" अब ईमेल के दादाजी के आधार कार्ड का पता नहीं। न ही दादाजी की अंगुलियों के डिजिटल फिंगर प्रिन्ट। न ही सिर का कोई बाल। तो कैसे तलाशा जा सकता है? मगर पूछने वाला भी कबूतर की गर्दन में बँधी चिट्ठी जैसा था। दिमाग उसका चाँदी के पुराने कलदार जैसा खन- खनाता सा। बिन खनके वह मुझे 'लैटर बॉक्स' तक ले गया। बोला- "ये रहे ईमेल के दादाजी"।मैं भौचक्का रह गया। बोला- 'गजब की उड़ान है यार तुम्हारी।" वह बोला- "मैं ईमेल के दादाजी को बाज और कबूतर तक ले जा सकता था। पर उनका प्रमाण कैसे देता? वर्ना ट्विटर की चिड़िया का ख्याल पुरव्ता था।
मेरा दिमाग भी घूम गया। सोचा ही नहीं था कि हरी बत्तीवाला भारी भरकम रेडियो मोबाइल मुट्ठी में देश देशांतर का वीडियो बन जाएगा। सोचा नहीं था कि सरस्वती के सारे अवतार यूट्यूब बन जाएंगे। सोचा नहीं था कि महाभारत का पोथा पेनड्राइव में निर्गुणिया अवतार बन जाएगा। सोचा नहीं था कि लाखों बरस पहले धरती से अलग हुए चन्द्र और मंगल जैसा विस्फोट किसी सुपरपावर के राष्ट्रपति के ब्रीफकेस में अणु ताकत का कट्रोल बन जाएगा। सोचा नहीं कि कभी अमेरिका-इंग्लैण्ड में पल रहे नाती-पोती के लिए नये सूरदासको नयी पदरचना करनी पड़ेगी -"जसोदा कम्प्यूटर पालने झुलावै।" सोचा नहीं था कि ऑडियो- विडियो में लम्बे समय के लिए परदेश गयी पत्नी-प्रेमिका का मुस्कुराता विडियो- चेहरा वियोग- श्रृंगार को ही स्वाहा कर देगा।
याद आ रहा है शरद जोशी के व्यंग्य 'पोस्टऑफिस' का लाल डिब्बा। 'पोस्ट ऑफिस 'का हीरो बन गया था। हनुमान जी की सिन्दूर प्रतिमा की तरह।मगर यह कीड़ीकांप सींकिया पहलवान ईमेल भी लैटरबॉक्स दादाजी का पौत्र बन जाएगा -यह छलांग तो दूर की कौड़ी भी न बनी। अब देखो न,एक भी लैटर केपिटल नहीं। मगर जितना हल्का उतना ही सुपरसोनिक! दादा तो सड़क किनारे लाल प्रतिमा में खड़े के खड़े रह गये। चिट्ठी- डालक पुजारी भी बेरंग बरसों से पुते-अनपुते।
"चिट्ठी आई है आई है"- गीत सुनकर भावविभोर हो रहा था कि पौत्र ने पूछ लिया- "दादा! किसकी चिट्ठी? क्या आया है?" मैंने कहा-"बेटे, ये देश भक्ति का प्यारा गीत है।" वह बोला- "तो यह क्यों नहीं गाते - "ईमेल आया है आया है।" अब उस जमाने का टॉप हिन्दी साक्षर इस लैपटॉप के आगे कितना निरक्षर हो गया है। मगर दुखड़ा तो यह कि उस जमाने के स्मृतिचित्र खदबदाते हैं। चिट्ट्ठी मिलते ही पाँच मीटर की साड़ी हरेभरे पहाड़ी मैदानों - खेत- खलिहानों में कैसी लहरा जाती थी। चिट्ठी भी छाती से चिपककर सप्तम सुर में गाती थी। कैसे किताबों के बीच रोमान से भर देती थी। कैसे परदेशी भैया की चिट्ठी आने पर घरभर पढ़ लेता था।
सड़क पर लैटर बॉक्स दादाजी पैर गड़ाए खड़े हैं। इन्तजार में कि कोई तो आए। मगर महलों की पुरातन दादी गंवई झोंपड़ी के दरवाजे पर लगे ताले की तरह आते- जाते को निहारते हुए। शायद परदेस गया बेटा कभी ताला खोलने आ जाए। 'लैटर बॉक्स' बना ईमेल का दादा तो बेरंग है। निरक्षर सा। मगर अपने ही घर में पोते की गरज करता यह दादा कह रहा है- "बेटे! यह रचना ईमेल कर दो न।"
- B. L. Achha
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