जन-सरोकारों की पक्षधरता : धन्य है आम आदमी

Dr. Mulla Adam Ali
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फारुक अफरीदी का व्यंग्य संग्रह

जन-सरोकारों की पक्षधरता : धन्य है आम आदमी

- बी. एल. आच्छा

         जनसरोकारों को लक्षित करता फारुक अफरीदी का व्यंग्य-संग्रह 'धन्य है आम आदमी' लोकतंत्र की जमीनी सच्चाइ‌यों का व्यंजक है। सत्ता के लिए राजबल, धनबल और बाहुबल के बावजूद मतदाता की वोट शक्ति के आगे नेताओं की संदेहग्रस्त झुंझलाहट कितने प्रपंच रचती हैं। वोट के लिए मुफ्तिया राग में बंटती वस्तुएँ दाँव पर लग जाती है। एक तरफ वोट पाने के लिए जनमुक्ति का सर्वलक्षी कल्याण - भाव, मगर शुभलाभ में हम और हमारा पूरा वंश। इन व्यंग्यों की यही खासियत है कि तलहटियाँ इस मुफ्तिया राग में लोकतंत्र के भ्रम को जी रही हैं और शिखर शक्तिमान चमक में निखर रहे हैं। आम आदमी और लोकतंत्र का यह शिखर व्यंग्यात्मक रूप में 'धन्य' हो जाता है।

           इन लोकतांत्रिक परिदृश्यों में आम आदमी और शासन व्यवस्था से लेकर साहित्य, भाषा, सोशल मीडिया, माफियावाद, झूठ के विज्ञापनी बाजार, आत्ममुग्धता के लेखकीय साक्षात्कार जैसे अनेक विषयों पर लेखक ने दरांतवाली कलम चलाई है। प्रत्यक्ष व्यवस्था के दिखाऊ भ्रमजाल से लेकर आत्म साक्षात्कार के गर्भनाल तक कुछ व्यंग्यों में प्रयोगशीलता जरूर रंग जमाती हैं, पर अधिकतर व्यंग्य निबंधात्मक शैली के हैं। पर निबंध विधा की एक विशेषता तो है ही, लेखक का पाठक से सीधा संवाद। अपने समय की धड़कनों और अवांछित के प्रति व्यंग्यात्मक प्रतिबोध को ये निबंध संजोते हैं। जनजीवन के शब्द और मुहावरेदानी की जीवंतता इन्हें आम पाठक की ओर ले जाती है। यद्यपि संवाद, कथात्मक विन्यास, विज्युअल चित्रण और छलांग लगाती मार की परिहासजनित बौद्धिकता व्यंग्य को अधिक प्रभावी बनाते हैं। इतना तो पाठक के हिस्से में उत्तेजक बनता ही है कि वह यथार्थ के साक्षात्कार के साथ वैचारिक स्पर्श पा जाता है। इन परिदृश्यों में व्यंग्य की कीलें चुभती रहती हैं और शीर्ष से लेकर तलहटी तक लोकतंत्र की वास्तविकताएं उजागर होती चली जाती हैं।

       कई अक्स हैं इन व्यंग्यों के और ये ही अक्स इन व्यंग्यों की परिधि को विस्तार देते हैं। लोक नेतृत्व और ब्यूरोक्रेसी के दिखाऊ और स्वयं-समेटू आचरण की फांक कई व्यंग्यों का कच्चा माल है। चाहे विधायकों को साधते रसायनों से मंत्रिमंडलीय नेतृत्व की संरक्षा की कवायद हो या ब्यूरोक्रेसी की लेतलाली में छुपे अपने करिश्मे हों, लेखक ने धन-बल और धनबल में "द्रव्य- युग" से प्रशासन का साधारणीकरण किया है। गवर्नेन्स की रूपरेखा में जो धन- रेखाएँ, जनता के लिए प्रलोभन, योजनाओं के जन- नामरूप, कार्पोरेट हितों की वकालत,हरतरह के ठेकों की वकालत जैसे मुद्दे खिंचे चले आते हैं। व्यंग्यकार की प्रहारक मुद्रा दोतरफा मार करती है-" मुख्यमंत्री जी ने निर्मल बाबा की भांति हाथ उठाकर अभयदान की मुद्रा में उनका समर्थन किया।

          लोकतंत्र में आजादी परम मूल्य है। चाहे अभिव्यक्ति की हो, या जीवन के लिए न्यूनतम जरूरतों को जन-सुलभ करवाने की। पर 'आजादी के साथ हुड़दंगी स्वैच्छाचार तो सोचनीय है।व्यंग्यकार ऐसे स्थलों पर निबंधात्मक नरेटिव से व्यंग्य को उतना चुभनदार नहीं बना पाता पर साहसिक रूप से बेखबर - बेअसर नहीं रहने देता- "माफियाओं को उन्मुक्त भाव से अपनी निर्बाध सेवाएं जारी रखने की आजादी है। सरकार को राजकोष व सुपाचन की अपूर्व शक्ति प्राप्त है।" ऐसे में भ्रष्टाचार के देशद्रोह और देशभक्ति के बीच की फाँक बहुत क्षीण सी नजर आती है। 'सरकार से साक्षात्कार 'व्यंग्य में चुभाचुभी के तेवर अपना रंग दिखा जाते हैं-" सरकार की जान सचिव रूपी तोतों में।.... "जुमलों के बादशाह" ...."जनता जिसतरह बढ़ती आबादी नहीं रोक सकती, वैसे हम भी अपनी संपत्ति बढ़ने से रोक नहीं सकते।" लोकतंत्र के ये मूल्य और इन अपमूल्यों की खुली आजादी।

         व्यंग्यकार का सामाजिक पटल भी रिवाजों और मन की असलिय‌तों को दृश्यों के सहारे व्यंग्यात्मक बना देता है। 'उमंगभरे उठावने,' शीर्षक ही एकदूजे की विरोधी रंगत का व्यंजक है। श्रद्धांजलि के अवसर पर मृतक के अनजान दिव्य गुणों की खोज श्रद्धा के झूठे रंग बिखेरती है। पर 'असत्यमेव जयते' में झूठ की ट्रेनिंग ही समकाल में जीने की योग्यता बन गयी है। और एक वक्रोक्ति- वाक्य तो इसका बेरोमीटर बन जाता है-" झूठ में शक्तिमान जैसी शक्ति हैं।" ये व्यंग्य नये व्यंग्य शब्द ही ईजाद नहीं करते, बल्कि मीडिया से लेकर बाजार तक की तमाम चमक के भीतरी धुँधलके को पाठक तक पहुंचा देते हैं। प्रशासन में या काम - निकालू अंदाज में 'चम्पोलोजी' जितनी मूल्यपरक है, उतनी ही चमकदार मीडिया में चीजों की- विज्ञापनी इबारत के दृश्यों में। और सारा तंज बाजार से गुजरते हुए नेताओं तक पसर जाता- "हमें तो मैगी टाइप तुरत-फुरत जैसी और शॉर्टकट सेवा देनेवाले जन- नेता, हमारे जीवन के कर्णधार , तारणहार चाहिए।" मूल्यों के सूप और उनके मसाले समय की पहचान करवा देते हैं।

          सोशल मीडिया की बंदरकूद तो समकाल की सबसे बड़ी हलचल है। ' फेसबुक की फनफनाती दुनिया' में फन्नेबाजी और बतंगड़ी की अंकुशहीन स्वतंत्रता लेखक की नजर में- "हर तरह की टां-टू करने की फुल फेसिलिटी है।" फेसबुक पर मुफ्तिया लेखन का माल और उस पर पराये के कब्जे - "यहाँ श्रोता भी हैं और सरोते भी, जो सुपारी की तरह आपको काट खाएं।" केवल चोरी- चकारी नहीं, भड़ास की निकृष्ट शब्दावली के जागरुक इस्तेमाल भी। लेखक की नजर में 'पंगाघर', आपके माल पर फेसबुकिया को मालिकाना हक। यौन- मूल्यों के साथ हर तरह की भड़ास का स्वच्छंद मुकाम।ऐसे में पत्रकारिता, अध्यात्म, लोकतंत्र, संहिताएं और कानून तो क्या, कॉमन सेन्स तक गच्चा खा जाते हैं।" भड़ास' व्यंग्य में अनेक कुलबुलाहटों के साथ ईवीएम को नोचने तक चले जाते हैं। इस समाजशास्त्रीय पर खेल और रेफरी पर निकलती भड़ास के साथ बारुदी चकरी की तरह अग्निफेरा सहते हुए साहित्य और पुरस्कारों के पल्लू तक को जला देता है।

           व्यंग्यकार साहित्य की दुनिया के असल पर मार करने से भी चूकता नहीं है। 'शॉल तो ओढ़नी है' व्यंग्य सम्मानों के नेपथ्य के कर्मकांड को भी पारदर्शी बना देता है। सम्मानों और दुशालों के लिए चोंच गड़ाती साहित्यिक तृष्णा के खटकर्मों की भी खासी ट्रेनिंग और पेशकशों का कच्चा चिट्ठा खुला है। यही नहीं आत्ममुग्धता और आत्मश्लाघा के इस दौर से कालजयिता के हो- हल्लों की मिलीजुली कवायद और सम्मान न मिलने पर अन्य लेखकों की कृतियों को कूड़े- कचरे का सम्मान दिलाती शिकवा-शिकायतें। पर सम्मान के शिखरत्व की अनमिली उपलब्धि से पस्त साहित्यिक व्यक्तित्वों के सम्मान अलावा एक और मिसाइल- मार व्यंजक है -"लेखक अपना लिखा ही पढ़ता है।औरों का पढ़ने पर रचनात्मकता प्रभावित होती है।"

           फारूक अफरीदी व्यग्यों में प्रतिरोध की शक्ति को अहम् मानते हैं। अलबत्ता प्रतिरोध का यह स्वर केवल सत्ता तक ही नहीं जन- संवेदन के सरोकारों तक जाता है। किसी हद तक वे विचारधारा की शब्दावली से बंधकर नहीं आते, पर व्यक्ति से लेकर नेता तक, योजनाओं से लेकर नौकरशाही तक, पारदर्शिता के दिखावे से लेकर अपारदर्शिता के नेपथ्य तक, सम्मानों से लेकर सम्मानों के अंदरूनी प्रपंच तक , आजादी के सुनहरे मूल्यों से लेकर उसके मनमाने दुरुपयोग तक, शिक्षकीय मूल्यों से लेकर शिक्षा के अपघात तक, सत्यमेव की निष्ठा से विचलित असूत्यमेव की कारगुजारियों तक, संवैधानिक निष्ठाओं में मुफ्तवादी प्रलोभनों के वोट-खींचू एजेण्डा तक इस तरह व्यक्त होते हैं, जिसमें आम आदमी केवल भुगतने के लिए विवश हो जाता है। 'मूल्य- युग' और 'द्रव्य- युग' का यह विचलनपरक द्वंद्व हमारे लोकतंत्र और सामाजिकता का चिंतनीय विषय है।

            इन व्यंग्यों में सहजता है। बोलती हुई भाषा का प्रवाह है, जो मुहावरों से व्यंग्य को जितना प्रकर्ष देता है, उतनी ही नये गढ़े गये शब्दों से। यह जरूर है कि वर्णनात्मक अंश व्यंग्य की मार को शिथिल करते हैं। और लेखक का अपना वैचारिक गद्य-व्यंग्य के बजाय निबंध का हिस्सा दिखता है। पर व्यंंग्यकार का समय- सजग प्रतिरोध और भाषाई तेवर अपनी झलक दिखा जाते हैं।

पुस्तक का शीर्षक : धन्य है आम आदमी 

लेखक : फारूक अफ़रीदी 

प्रकाशन वर्ष : 2021

 प्रकाशक : कलमकार मंच, जयपुर    

 मूल्य : रु.180/

बी. एल. आच्छा

नॉर्थटाऊन अपार्टमेंट
फ्लैटनं-701 टॉवर-27
स्टीफेंशन रोड(बिन्नी मिल्स)
पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु)
पिन-600012
मो-9425083335

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साप्ताहिक हिन्दुस्तान 1982 में प्रकाशित बीएल आच्छा जी का पहला व्यंग्य : गुटका संस्कृति

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