हिन्दी लघुकथा: संघर्षों में अस्मिता को तलाशता नारी चरित्र
बी. एल. आच्छा
नारीत्व की प्रतिष्ठा के बावजूद आज साहित्य में उस आवाज की खोज की जा रही है, जो नारी- व्यक्तित्व और उसकी अस्मिता की समानता का दर्जा दिलवा सके। भारतीय साहित्य में वैदिक वाचक्नवी जैसी विदुषी की तर्कशीलता से लेकर नारी को दैवीय पूज्यता का आसन तो मिला, पर व्यावहारिक रूप से समाज में उसकी चुप्पी पर पितृसत्ता का पुंसवादी सोच हावी रहा है। हमारे यहाँ जेंडर की समानता नागरिक अधिकारों में उतनी बाधक नहीं बनी, जितनी कि पश्चिम में फिर भी वह सोच दूरन्त समाज में ध्वनित होता रहा 'जिमि स्वतंत्र होई बिगरिहि नारी। अर्थ और - देह का नारीवादी परिप्रेक्ष्य पुरुषवादी समाज में चरित्र और शोषण के उन आयामों को रचता रहा, जिसमें मूल्यांकनकर्ता मर्दशैली में था।
पश्चिम में पुरुषवादी सामाजिक व्याकरण में उदारवादी पूँजीवाद ने थोड़ी सी जगह दी। फ्रेमवर्क दरका तो स्त्री की सामाजिक पड़ताल ने उसकी क्षमता और रूढ़ विश्वासों पर नये विचार रोशन किये। स्त्रियोचितता का जैविक तर्क खंडित हुआ, अच्छे-बुरे की नियंत्रणवादी मरदाना दृष्टि प्रश्नांकित हुई। उस गुलामी पर भी न केवल तीर चलाये गये, बल्कि पुरुषवादी नरमीली सहानुभूति को भी यथार्थ का आईना दिखाया गया। और यह सोच उसे अस्मिता, स्वतंत्रता, व्यक्तित्व-सम्पन्नता, स्वामित्व को समानता तक ले गया, जो 'तिरिया चरित्तर' के सामाजिक व्यंग्य में, न केवल लिंग आधारित वर्चस्व में समानता को ध्वस्त करता था, बल्कि घरेलू और राजनीतिक तानाशाही में शोषण का हथियार बनाता था। नारी के त्याग, तपस्या, समर्पण जैसे दैवीय गुणों के बावजूद उसके घरेलू श्रम को प्रतिष्ठा नहीं मिली। यश और अर्थ के पुरस्कारों से भी वह वंचित रही। नारी के लिए पुरुषवादी पाठ और पुरुष के लिए पाठ-विहीनता; यह शताब्दियों का सच है।
भारत में स्त्रीवाद और नारी स्वतंत्रता का पाठ अपने सामाजिक- सांस्कृतिक भूगोल से जुड़ा है। संस्कृति के आदर्श में उसकी पूज्यता आस्था स्वरूप है, पर उपस्थिति बहुत कुछ बायोलॉजिकल उसकी पहचान समर्पण, देह की पवित्रता पारिवारिक त्याग और पुरुष निर्भरता पर है। सारे प्रतीक वृक्ष और लता के हैं, कभी वे बेहद रोमानी हो जाते हैं और कहीं स्त्री को पुरुष पर लिपटी अमरबेल बना देते हैं। ऐसे अनेक मुद्दे हैं, जो संस्कृत साहित्य में भी स्त्री की पहचान के तर्क को मंडित नहीं करते और हिन्दी साहित्य में भी नारी देह को सौन्दर्य और शोषण का प्रतिमान बना लेते हैं। गोदान की 'सिलिया' एक प्रतीक है, तो कमलेश्वर की 'मॉस की दरिया' दूसरा यथार्थ और नये साहित्य में यह अस्मिता अपनी स्वतंत्रता के तर्क को पुख्ता बनाती हैं, तो घर की दीवारें टूटती नजर आती हैं। इसीलिए साहित्य में भी नारी- उत्पीड़न, दहेज-प्रथा, घरेलू हिंसा, छेड़खानी, बाल-विवाह कन्या भ्रूण हत्या, कामकाजी महिलाओं के पारिश्रमिक में भेदभाव, महिलाओं के प्रति वस्तुवादी सोच, मजहबों धर्मों में कसमसाती आजादी, कार्यक्षेत्र में पुरुषवादी नायकत्व, नारी देह का बाजारवादी विज्ञापन, अपहरण और आतंक की शिकार महिलाओं की समस्याएँ, हिन्दी साहित्य में भी तर्कशील स्त्रीवादी आवाज के रूप में उभरकर आई हैं।
पर ऐसा भी नहीं कि 'स्त्री' को निर्दोष मानकर उसकी ही हिमायत की गयी है। जहाँ उसके मातृत्व भाव को प्रतिष्ठा मिली है, वहीं सास-ससुर के प्रति उपेक्षाभाव को भी प्रश्नांकित किया गया है। जहाँ देह की पवित्रता के सवाल संदेहों के मोथरेपन को दरकाते हैं, वहीं अपने भोगवाद में पारिवारिक जीवन को छिटकाती स्वतंत्रता प्रश्नांकित हुई है। जहाँ कमजोर स्त्रियों के शोषण पर तीर चलाये गये हैं, वहीं उनके व्यक्तित्व को उच्चतर समाज की स्त्रियों की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र और अस्मितापूर्ण चरित्र के रूप में प्रतिष्ठा मिली है।निश्चय ही हिन्दी लघुकथाओं में वे आयाम उभर आये हैं, जो पुरुषवादी सोच और परिप्रेक्ष्य में नारी के यथार्थ को सामने लाते हैं और पुरुषवादी सोच से टकराकर नारी की आवाज को तलाशते ही नहीं, बल्कि उसे मुकाम पर पहुँचाते हैं। इस प्रकार के लेखन में जहाँ पुरुष-लेखन भी नारी के साथ विवेकशील तर्क को पुरजोर बनाता है, वहीं महिला लेखन में भी अस्मत और अस्मिता के सारे दंश अपने तेजाबीपन के साथ उभरे हैं। कई बार यह कहा जाता है कि महिला लेखन में पुरुष-विरोधिता की गंध का अभाव है, मगर वास्तविकता यह है कि 'तिरिया चरित्तर' के नये रूपों में स्त्री का व्यक्तित्व संघर्षशील, अस्मितापरक और जेण्डर समानता में पुख्ता हुआ है, चाहे वह कमजोर वर्ग की स्त्री हो या उच्चतर कामकाजी स्त्री।"
प्रेमचन्द की लघुकथा 'देवी' में उस विधवा का चरित्र त्याग और अनासक्ति का जीवंत प्रतीक बन गया है, जो दस रुपए के सड़क पर पड़े नोट को फकीर के हाथों में बिना किसी मुखरता के दे आई है। तो ऐसा ही नारी चरित्र हिन्दी लघुकथाओं में मातृत्व की भावसाध्य पावनता में अपनी सुगंध बिखेरता है। या 'मातृत्व'' भी नारीवाद की दृष्टि में पुरुषवादी सोच है, जो उसे स्वामित्व और स्वतंत्रता की संभावना से अलग करता है। पर हिन्दी की लघुकथाओं में मातृत्व का यही उजला रूप संस्कारों की निधि है। यह अपनी ही रोशनी से न केवल पारिवारिक उजलेपन को बल्कि नारी की सत्ता को भी चिर-संभवी बना देता है। सुकेश साहनी की लघुकथा 'दूसरा चेहरा' में यह संरक्षण भाव सर्दी के दिनों में पिल्ले को अपनी रजाई के पायताने में पिलटा कर भाव-संवेदी बना देता। है, तो सूर्यकान्त नागर की लघुकथा 'माँ' में बेटों के द्वारा अलग की गयी माँ बहू के गर्भ में पलते तीसरे बच्चे को भी जेहन में बसाये भावनामय उल्लास के साथ खाना पकी रही है। प्रतापसिंह सोढ़ी के संपादन में 'माँ' केन्द्रित लघुकथाओं का समूचा संकलन प्रकाशित हुआ है। पश्चिम की धारणा से अलग हमारे सांस्कृतिक- सामाजिक भूगोल का यह पैमाना है। सुकेश साहनी की 'ओए बबली' पानी के बाजारवादी विज्ञापनों के मोहक संसार के बीच मातृत्व के इसी गुण को बेटी बबली तक विस्तार देती है। मधुदीप की 'ममता', अशोक भाटिया की 'मोह' जैसी अनेक लघुकथाएँ इस उत्कट भाव को बुनावट देती हैं। यही नहीं, नये सामाजिक द्वन्द्वों में मातृत्व को विस्थापन, कलह और उपेक्षा में धकेलने वाले पात्र सामाजिक मूल्यांकन में खलनायक सा खिताब पाते रहे हैं। एक और परिदृश्य इन लघुकथाओं में उभर कर आया है, जहाँ नये जमाने में शिक्षा और करियर की चिंता माँ को मैडम के सख्त चेहरे में रूपांतरित कर देती है और वे अपने बच्चों में हर कमी को दूर करती और हर योग्यता को लादती नजर आती हैं। बलराम अग्रवाल की 'पीले पंखों वाली तितलियाँ 'जैसी अनेक लघुकथाएँ इस धुरी पर रची गई हैं, जहाँ बच्चे के कोमल संवेग पर माँ की झन्नाटेदार थप्पड़ इसी की प्रतिक्रिया है। संतोष सुपेकर की 'उसी माँ ने', वाणी दवे की 'तेरी बदसूरत माँ में जहाँ मातृत्व को करुणा- जल से मंडित किया गया है, वहीं कोमल वाधवानी 'प्रेरणा' की लघुकथाएँ विमाता-बोध की चुभन को 'नयी माँ' के बजाय 'माँ' के रूप में संबोधित होते देखना चाहती हैं।
नारी चरित्र का अस्मितापूर्ण व्यक्तित्व हिन्दी लघुकथा में तेजस्वी बना है। विशिष्ट बात यह है कि उनमें निम्न और कमजोर बर्ग की स्त्रियों की जबानें और स्वेच्छा का कर्मतंत्र झलकता है। कमल चोपड़ा की 'कैद बामुशक्कत' में पत्नी और कामवाली के बीच बेबाक आजाद नारी के तेजस और अस्मितापूर्ण रूप की झलक देती है- 'ओ मालिक! ये चिकचिक मुझे पसंद नहीं। मैं तेरी बीवी नहीं हूँ, जी इस तरह गाली- गलौच से बात करेगा। घर की बहू नहीं, जो थप्पड़-लात खा के पड़ी रहूँगी।' एक तरह से यह पारिवारिक संस्थाओं में जड़ होती हुई औरत की प्रतिमा पर चोट है और चुनौती का स्वर भी । 'बदला' लघुकथा में बेटी अपने पिता के प्रलोभन को इसी तरह लाल आँखें दिखाती है। 'उसका एक 'होना' में ठाकुर को व्यंग्यात्मक रूप से कहती है- “ठाकुर साहब, एक आपके होने की ही तो चिन्ता है।" मधुकान्त की 'बोध' और 'शुरुआत' लघुकथा सतेज होती औरत का प्रतिमान बन जाती है। नारी निकेतन पहुँचा कर मुक्ति दिलाने वाले खद्दरधारी से कहती है, 'वहीं से तो धन्धा शुरू हुआ है।' चित्रा मुद्गल की 'बयान' - लघुकथा का यह मारक, संवाद पुलिसिया चरित्र को छितरा कर रख देता है -"न, वो मेरी बेटी है....मेरी बेटी की चलती फिरती लाश। घर आइए दरोगा साहब और उस बच्ची को गौर से देखिए । मेरी बेटी बरामद हो जाएगी।' विक्रम सोनी की 'मीलों लंबे पेंच', चित्रा मुद्गल की 'व्यावहारिकता', जगदीश कश्यप की 'गृहस्थी' नारी अस्मिता के विविध पार्श्वों को बुनती लघुकथाएँ हैं। परन्तु भगीरथ की 'फूली' अपने पति भानिया को कहती है- "सुबह पैली काम तेरा वीरजी करेगा, बता। आज तो वीरजी को भगा के ही मानूँगी।" और भानिया के डील (शरीर) में उतरा यह देवता-प्रेत भाव चुपचाप काम में लगा देता है।
औरतों और मर्द के विभेद पर टिका पितृसत्तात्मक सोच और सामाजिक व्यवस्था का ढाँचा केवल ऊपरी नहीं बल्कि औरत की। छातियों तक सांस्कारिक जड़ता के रूप में रचा-बसा है। इस मायने में चित्रा मुद्गल की लघुकथा 'दूध' में माँ के मर्दवादी संस्कार पर बेटी ही तीखा प्रहार करती है- 'तो मेरे हिस्से का छातियों का दूध भी क्या तुमने घर के मर्दों को पिला दिया था? यह सोच नारी को भी पुरुष के पक्ष में खड़ा कर देती है, जो बेटे-बेटी के फर्क से गुजरते हुए कन्या भ्रूण हत्या तक झाड़ी में फिंक जाते हैं। लड़कावादी बीज यदि नारी देह में नहीं उग पाते तो सारा दोष स्त्री का ही होता है। लेकिन यही स्त्री वैज्ञानिक तर्क के साथ अशोक भाटिया की लघुकथा 'भीतर का सच' में आँख मिलाते हुए कहती है- 'औरत के पास तो सिर्फ एक्स गुण होते हैं, मर्द के पास एक्स और वाई, दोनों। अगर मैं कहूँ कि आपसे सिर्फ एक्स गुण ही आए तो.......।' श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा 'आदम जात का यह संवाद 'ऐसी हालत में अगर पत्नी पर हावी रहो तो शर्तिया लड़का पैदा होता है। बस...'" मधुदीप की लघुकथा शासन में तो पतित्व की अकड़ बीमार पत्नी के लिए चाय बनाने के लिए भी नरमीली नहीं हो पाती। 'मर्द' की पारिभाषिकता को मुखर करने। में औरत का यह संस्थागत रूप भी कारक है, जो सास के रूप में जमा हुआ है। सास-बहू के द्वन्द्व में अनेक लघुकथाएँ टकराती नजर आती है। अशोक भाटिया की 'श्राद्ध' और 'बराबरी', मधुदीप की 'अपनी अपनी जिन्दगी", बलराम की लघुकथा 'बहू का सवाल' इस विमर्श के कई कोण रेखांकित करती हैं। परन्तु रामेश्वर कांबोज हिमांशु की लघुकथा 'नव जन्मा' का जिलेसिंह लड़की पैदा होने पर घर में छाये अवसाद को ढोल के 'तिड़क-तिड़- -तिड़क घुम्म, तिड़क घुम्म' के जोश में बदल देता है। कन्या भ्रूण के प्रति बदलती मानसिकता सामाजिक यथार्थ के भयावह परिदृश्यों पर अपना झंडा जरूर फहराती है। अन्तरा करवड़े की 'ममता' लघुकथा में भी बेटी का व्यवहार बेटों के व्यवहार पर सवाल खड़ाकर बेटी के समर्पण को रेखांकित करता है।
पति-पत्नी के साहचर्यपूर्ण पारिवारिक जीवन में सौहार्द और खटास के कथानकों में भी नारी का समर्पण उसकी अहंता को खंडित नहीं करता। भागीरथ की 'सोते वक्त', रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' की 'उजाला', संतोष सुपेकर की 'उसका मैन्यू', राजेन्द्र पाण्डेय की 'लंगड़ा', श्यामसुन्दर अग्रवाल की 'घर' और 'टूटी हु ट्रे', वीरेन्द्रकुमार भारद्वाज की 'प्यार', शकुंतला किरण की 'सुहाग व्रत' जैसी लघुकथाएँ दाम्पत्य की सारी खटपट में 'अभावों उलाहनों में भी सांस्कारिक गठबंधन को टूटने नहीं देती यह अलग बात है कि यथार्थ के खुरदुरे अक्षों वाली लघुकथाएँ इ दरकते हुए पारिवारिक जीवन को सच्चाइयों तक ले जाती हैं। फिर अधिकतर लघुकथाकार इस भावनामय सांस्कारिकता के अंदरूनी संस्कारों से कथाक्रम का 'द एण्ड' करते हैं। बलराम ज्योति जैन, मीरा जैन, संतोष सुपेकर, सूर्यकांत नागर, योगेन्द्र शुक्ल आदि व लघुकथाओं में यह भाव-तत्व मुखर हैं।
यों तो भारतीय समाज में वाणी का लोकतंत्र असलियत के मुहावरों -कहावतों में मुखर रहा है। 'घर की मुर्गी दाल बराबर इसी व्यंजना को नारी की ओर ले जाता है। 'मरद' के श्रम को घी-दूध मिलता है और वंश परम्परा चलाने वाली 'औरत' को बचा- खुचा। घरेलू श्रम की पहचान को दरकिनार करना पुरुषवादी सोच हिन्दी लघुकथाओं में अनुगूंज बना है। कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘और ऊँचा पद' में कंट्रास्ट मुखर है - 'मैडम' काम से लदी आ रही है और 'कामवाली बाई' पति के कहने पर काम छोड़कर खुशी का इजहार करती है। लेकिन अशोक भाटिया की लघुकथा 'स्त्री कुछ नहीं करती' में तो बिन साँस लिए घर के लिए अनवरत खटने वाली औरत तो मशीनी यंत्र है, रात देर से सोने वाली सुबह सवेरे जल्दी उठने वाली। फिर भी उसका वजूद सिफर है। लेकिन माधव नागदा की लघुकथा 'सृजन' में पति-पत्नी के श्रम की समान पहचान प्रशस्ति पाती है। कमल चोपड़ा की 'वेल्यू' में छोरियों की वेल्यू को प्रश्नांकित किया गया है।
नारी के स्पर्श के बिना धरती की कोई चीज मनोहारी नहीं होती। इस आप्त वाक्य की उज्ज्वलता जितनी सैद्धान्तिक है, उतनी ही धुँधली भी। नारी देह का भोग्या स्वरूप सदैव ही गर्हित रहा है, परन्तु वही शोषण का यथार्थ भी है। यही नहीं, जेण्डर की विषमता का पुंसत्ववादी सोच इस शोषण में ही मर्दानापन पाता है। 'मर्द' के ढ़ाई अक्षर शोषण में 'मरद' के तीन अक्षरों में लंबायमान हुए हैं। देह और काम की स्वतंत्रता नारी का पक्ष-पोषण नहीं करती। उसके चरित्र की कसौटी भी पुरुष का नजरिया है। ऐसा नहीं कि नारी चरित्र की सात्विक प्रतिभा का लघुकथाओं में अभाव है, पर देह-शोषण के अंधेरे पक्ष लघुकथाओं का हिस्सा बने हैं। अशोक शर्मा की लघुकथा 'संस्कार' और 'समझ', कमल चोपड़ा की 'एक उसका होना', कुमार नरेन्द्र की छोटे बड़े हरे टुकड़े, प्रबोध गोविल की 'शिनाख्त', सतीश राठी की 'आटा और जिस्म', चित्रा मुद्गल की 'मर्द', युगल की 'औरत', सुकेश साहनी की 'नपुंसक', प्रबोध गोविल की 'शिनाख्त', प्रियंका गुप्ता की 'भेड़िया', 'सत्या शर्मा 'कीर्ति' की 'फटी चुन्नी' और 'लौट आओ माई', सीमा सिंह की 'अंधकार', पारस दासोत की 'कामवाली बाई' मर्दानगी और 'सिन्दूर की रेखा', श्यामसुन्दर अग्रवाल की 'टूटा हुआ काँच', जैसी लघुकथाएँ नारी के देह शोषण, व्यभिचार और घर-समाज में भय के परिदृश्यों को मुखर करती है।लेकिन इन्हीं देहलोभी परिदृश्यों में रूप देवगुण की लघुकथा जगमगाहट संदेहों के बीच चारित्रिक आश्वस्ति की किरणें फेंकती है।
नारी के आधुनिक रूप को देह और व्यक्तित्व के स्तर भी कई कथानक मिले हैं। उनमें मांसलता के साथ सजा-संवरा आकर्षण है और देह की जैविक मांग भी। बलराम अग्रवाल की लघुकथा' लगाव' और सुभाष नीरव की 'जयंती' ,सुकेश साहनी की 'फाल्ट' जैसी लघुकथाओं में पति-पत्नी के रिश्तों-बातों में गरम- ठंडी सहजता है। पर सुकेश साहनी की ही लघु कथा 'आधी दुनिया' में आधुनिक युवा का फिल्मी सपना है पत्नी के बारे में। यह लघुकथा नये शिल्प में पत्नी को इतना आक्रांत करती है कि पुराने और नये सारे बंध और रूढ़ सामाजिकता युवा सोच में अतिक्रामक पुरुषवाद का मुहावरा बन जाते हैं। भगीरथ की 'चेहरा' आधुनिक सोच का एक परिप्रेक्ष्य है, तो सुकेश साहनी की 'कसौटी' में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नारी के देहाकर्षण से बाजारवादी सोच के खुलेपन का व्यापार । ड्रिंक, डेट, मेल फ्रेंड्स, बेडरूम शेयर, किसिंग, नेट सर्फिंग, पोर्न साइट्स, चैटिंग, एडल्ट हॉट रूम्स, साइबर फ्रेण्ड्स, सीक्रेट फाइल्स, वेब कैमरे उसे आधुनिकता की खुली भाषा देते हैं भूमण्डलीकरण की बाजारवादी सतह पर। यों अशोक शर्मा की 'समझ' और 'संस्कार' लघुकथाएँ देह की माँग, मांसलता को सहज बनाती हुई संस्कार को मूल्य देती हैं। पर सुभाष नीरव की लघुकथा जानवर में युवती देह के आकर्षण में युवा के भीतर उगे जानवर को भी पहचान कर छिटक जाती है। इस परिप्रेक्ष्य में भगीरथ की 'कन्विन्स करने की बात', रामेश्वर कंबोज की ‘स्क्रीन टेस्ट' और 'अश्लीलता' प्रभावी लघुकथाएँ है। सुकेश साहनी की 'वायरस' लघुकथा इस संक्रमित रोग के घरों-बच्चों तक अतिक्रमित होते जाने का संकेत देती है।
यों तो नारी के विविध आयामी रूपों, कमजोरियों को शक्ति बनाने वाले तेजस व्यक्तित्व, दहेज जैसी दानवी माया और पारिवारिक समाजशास्त्र के रूखेपन में संघर्षमय अस्तित्व को रोपने की ताकत, त्याग परिवार को सिंचित करने की अमोध शक्ति, देह माँस के भुक्कड़ गिद्धों को चुनौती देने की बुद्धि और शक्ति, कामकाजी जिन्दगी में अपने व्यक्तित्व को अक्षत रखने की व्यवहार-कला, नेतृत्व की कामयाबी जैसे अनेक पक्ष हैं, जो लघुकथाओं में उभर कर आये हैं। पर उनके भीतर भावनाओं के रसायन अधिक संजीदा है और बुद्धि की समझ भी कारगर। इसीलिए अशोक शर्मा की लघुकथा 'कामधेनु' के रूप में अपने अस्तित्व की सार्थकता को जितना समझती है, उतना ही शोषण की तमाम शक्तियों से मुठभेड़ करती हुई अपनी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई उस पुरुषवादी दुनिया से लड़ती है, चाहे भावनाओं के प्रगाढ़ रस से या संघर्ष की तेजोमय शक्ति से। हिन्दी लघुकथाएँ पश्चिम के स्त्रीवाद से पृथक् अपने वास्तविक समाजशास्त्र और सांस्कृतिक भूगोल के केनवास पर रची गई हैं।
बी. एल. आच्छा
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