उच्च शिक्षा में गुणवत्ता : दिशा और दृष्टि
बी. एल. आच्छा
आजादी के बाद उच्च शिक्षा के विस्तार की संकल्पना अनिवार्य थी। संवैधानिक प्रतिज्ञाओं के अनुकूल नागरिकता के विकास के लिए आज भी जरूरी है। परंतु विकास की राष्ट्रीय जरूरतों और वैश्विक मानदंडों को देखते हुए अब गुणवत्तायुक्त शिक्षा अपरिहार्य होती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय बाजार, पेटेंट, बौद्धिक संपदा अधिकार, शिक्षा के अंतरराष्ट्रीय मानक, भूमंडलीकरण और विश्व बाजार की प्रतियोगिताओं को देखते हुए ज्ञान के उन्नयन और कौशल विकास की बड़ी जरूरत है।भारत के गुरुत्व और विश्व शक्ति बनने में ज्ञान की शक्ति सकारक है और सूचना क्रांति के संदर्भ में यह परिलक्षित भी हुआ है। लोकतांत्रिक एवं पंथनिरपेक्ष संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद हमारी ज्ञान शक्ति और उत्पादन के संसाधन बढ़े हैं। पर अंतरराष्ट्रीय सूची में हमारा स्थान अभी छलाँग नहीं लगा पा रहा है।
यह भी सही है कि भूमंडलीकरण के दौर में हम नये परिदृश्य में ढलने और दौड़ने को मजबूर हैं। पर हमें अपनी राष्ट्रीय आवश्यकताओं, संसाधनों और सामाजिक -सांस्कृतिक पहचान को भी संजोए रखना होगा। अक्सर हम पश्चिमी देशों की शिक्षण पद्धति, संस्थानों की संरचना, परीक्षा प्रणाली और विषय सामग्री को अपनी शैक्षणिक प्रक्रिया में सर्वोच्च सम्मान देते आए हैं। पर हमें भारतीय शिक्षण पद्धति के सांस्कृतिक मूल्यों, राष्ट्रीय हितों और सामाजिक अपेक्षाओं की विशेषताएँ बरकरार रखते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दौड़ लगानी होगी। अन्यथा केवल भौतिक विकास में दौड़कर टूटते समाज के मूल्य हमारी सांस्कृतिक मूल्यसंपदा से छिटक जाएँगे। भावात्मक या मूल्यपरक धारणा को ही ध्वस्त कर देंगे, जिससे आज भी पूरा देश भावात्मक एकता का उदाहरण बना हुआ है।
गुणवत्ता का केंद्र मूलतः शिक्षक है। वह शिक्षक आज भौतिकतावादी सामाजिक प्रगति का अंग है। परंतु भारतीय समाज में शिक्षा की अवधारणा विशिष्ट रही है। वह अधिकार के कारण नहीं, सामाजिक समानता की अवधारणा के कारण वह पूज्य रहा है। उसके साथ ऐसे मूल्य जुड़े रहे हैं, वैसे ही,जो संतानों के साथ उनके अभिभावकों से जुड़े रहते हैं। आजकल तो गुरुकुलीय संस्कार सपने की चीज है। परंतु अध्ययन -अध्यापन ,युवा पीढ़ी की जरूरतों और उनकी आकांक्षाओं की पड़ताल, रोजगार के अनुरूप कौशल का विकास, जीवन मूल्यों से विद्यार्थी के संतुलित जीवन और भाव वृत्तियों का विकास आज की जरूरत है, जिसे शिक्षक भी नहीं दे पाता और विद्यार्थी भी उतने आकांक्षी नहीं है। बल्कि गुरु जो दे रहा है, विद्यार्थी उसने उतना सार्थक नहीं पाते और शिक्षक भी अनुभव करता है कि उसके द्वारा पढ़ाए गए पाठ्यक्रम उसके रोजगारऔर मूल्यपरक जीवन के चितेरे नहीं है। सच तो यह है कि शिक्षक ज्वलंत है, तो विद्यार्थियों के भीतर भी वैसी ही ज्वाला पैदा कर सकता है।
शिक्षा और शिक्षक के निरंतर उन्नयन एवं शोधपरक या कौशल विकास के लिए उत्प्रेरक शोधकार्य के लिए वेतन वृद्धियाँ दी जाती है। परंतु सवाल यह है इस शोध के सामाजिक, औद्योगिक, प्रशासनिक, व्यावहारिक, कार्पोरेट जगत, अपराध नियंत्रण या निम्न समाज के व्यापक हितकारी लाभ के सोच अनुपयोगी होकर पड़े रह जाते हैं। यह भी संभव है कि केवल करियर की आकांक्षा में किए गए शोध कार्य बुझे- बुझे से हों या केवल शिक्षक की पदोन्नति के लक्ष्यों की पूर्ति से लक्षित हों। पर आखिर इन शोध कार्यों के लिए जो राष्ट्रीय धन लगा है, उसकी उपयोगिता का फलित तो होना ही चाहिए। पश्चिमी देशों के ढाँचे का अनुकरण तो किया जाता है, पर हमें यदि विचार करना चाहिए उन देशों ने तात्कालिक समस्याओं को निपटाने के लिए अपने शोध संपदा को किस तरह राष्ट्रीय हित में लगाया है।जापान में सुनामी आई तो तत्काल उससे बचाव की तकनीक में जापान के वैज्ञानिक एवं विश्वविद्यालय जुट गए ।भारत में आयात- निर्यात के बढ़ते हुए घाटे को देखते हुए हमारी प्रौद्योगिकी उत्पादन, सौर ऊर्जा, कराधान, विश्व बाजार की तलाश, सैन्य उत्पादन, अधोसंरचना आदि तकनीक आदि के क्षेत्र में विश्वविद्यालयों और औद्योगिक संस्थानों से गहरे तालमेल की गहरी जरूरत है। हमारी खेती को उत्पादक और लाभकारी बनाने के लिए जमीनी स्तर पर उन प्रशिक्षकों की जरूरत है, जिनसे विश्वविद्यालयों का ज्ञान और हमारे सेमिनारों के निष्कर्ष व्यावहारिक तौर पर निचले ग्रामीण क्षेत्रों में पहुँचें। शोधकार्य ढाई सौ पृष्ठ में कैद होकर अनुपयोगी बने रहना अनुत्पादक है। उसका प्रभावी एवं विकासात्मक उपयोग जरूरी है। वह केवल पदोन्नति की राह में साधक लक्षण मात्र बनकर रह जाए एवं अकादमिक उपलब्धियों की सांख्यिकी को बढ़ाता जाए, यह निरर्थक है। उच्च शिक्षा के सारे सोच हरितक्रांति, औद्योगिक संरचना, उत्पादन, सामाजिक बदलाव मूल्यपरक समाज की रचना, अपराध नियंत्रण के कारगर उपाय और हमारी सांस्कृतिक संपदा के संरक्षण तथा विकास में सहकारी बनाना होगा। यह सही है अब विश्वविद्यालयों -महाविद्यालयों में कैंपस होने लगे हैं। यह गुणवत्ता की दृष्टि से पहली सीढ़ी है, पर आज भी हमारे उद्योग कौशल विकास के अभाव में योग्य हाथ और मस्तिष्क वाले युवकों की तलाश कर रहे हैं। समाज भी सामाजिक रूपांतरण की योग्यता वाले प्रभावी शिक्षकों, उनके सहायकों की आकांक्षा को संजोए हुए हैं।
शिक्षा की जीवन की समग्रता का व्यावहारिक उपक्रम है। इन दिनों विद्यार्थियों को ज्ञान या सूचना का भंडार बनाया जा रहा है ।पर हमारे बड़े बड़े तकनीकी संस्थान भी अनुभव करने लगे हैं कि तकनीकी शिक्षा के साथ कुछ सामाजिक- सांस्कृतिक सन्निवेश और भाषाई व्यवहार का अपनत्वयुक्त कौशल भी जरूरी है। केवल इंजीनियर या प्रबंधक बनाकर हम उसे वैसी जीवनी शक्ति नहीं दे पाते, जो उसके जीवन को समरस और समाज तथा संस्कृति के प्रति उत्तरदायी बना सके। सच तो यह है कि कला, मानविकी और समाजविज्ञान संकायों में वैज्ञानिक विवेक का समावेश और विज्ञान- तकनीकी वाले संस्थानों में समाज -संस्कृतिपरक विवेक का समावेश न केवल हमारे समाज को, बल्कि विद्यार्थी को जीवन जीने की योग्यता, ताकत और उम्र की लंबाई दे पाएगा। इसीलिए इस भावात्मक या स्पिरिचुअल कंटेंट की भी जरूरत है।
शिक्षा में लगातार प्रयोगवाद भले ही आधुनिकता की निशानी हो पर यूजीसी के पूर्व उपाध्यक्ष मुनीस रजा का यह कथन ठीक है कि अब हमें नये प्रयोगों के बजाय शिक्षा को स्ट्रीमलाइन करने की जरूरत है। प्रयोग तो अनवरत दृष्टि है, पर उन्हें लागू करने की गति और उसके फलितार्थों के लिए कुछ संस्थानों को ही प्रायोगिक तौर पर क्रियाशील करना चाहिए ।हमारा सारा नवाचार यदि हमारे संसाधनों की भविष्य में उपलब्धता, जलवायु, संवैधानिक प्रकृति, सांस्कृतिक अनुरूपता और सामाजिक राष्ट्रीय आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में हो। कई बार योजनाएँ लागू तो हो जाती हैं, पर बाद में संसाधनों के अभाव में ध्वस्त होती जाती हैं। यदि हम अपने ही महाविद्यालय- विश्वविद्यालय से सृजन की अवधारणा का प्रारंभ करें तो प्राथमिक तौर पर अधोसंरचना विकास के साथ हरियाली का प्राकृतिक वातावरण या वनस्पति उद्यानों का रखरखाव न केवल शांतिनिकेतन की छवि साकार करेगा बल्कि वानस्पतिक विविधता एवं रक्षण -विधियों से भी समृद्ध होगा। रूफवाटर हार्वेस्टिंग की प्रक्रिया से हम आसपास के लिए उदाहरण प्रस्तुत कर सकेंगे, जिससे कस्बाई और नगर संरचना या नदी- नालों के आसपास हरियाली का विकास कर राष्ट्रीय संपदा की वृद्धि करेंगे। यदि ये बातें प्रशिक्षणात्मक तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को दी जाती है, तो हमारे सारे प्रयोग जमीनी और ग्रामीण स्तर पर कामयाब होंगे ।हरियाली तो उदाहरण मात्र है। सौर ऊर्जा, जल संचयन वानस्पतिक विविधता एवं वैज्ञानिक विधियों का निचले स्तर पर विकास होगा। शिक्षा के विस्तारपरक एवं जमीनी स्तर पर प्रायोगिक दृष्टि का लाभ मिलेगा। समाज, अर्थ, अपराध, साहित्य, भाषा, बोली, व्यक्तित्व निर्माण, कंप्यूटर शिक्षा आदि क्षेत्रों में भी ऐसे प्रायोगिक उन्नयन सामाजिक विवेकशीलता का विस्तार करेंगे।गैर विज्ञानपरक विषयों में पुरातत्व, पर्यटन, लोकसाहित्य की संपदा को संजोने और सामाजिक जीवन का अंग बनाकर समाज और क्षेत्र की भौतिक विशेषताओं को सुरक्षित रखा जा सकता है।
इन दिनों प्रत्येक विषय में सेमिनारों और अब वेबिनारों का आयोजन राष्ट्रीय राज्य स्तर पर किया जाता है। शोधार्थी के शोध पत्रों के स्तर उनके प्रकाशन एवं निष्कर्षों पर ध्यान दिए जाने पर न केवल शोध का स्तर बढ़ेगा ,बल्कि शोध की उपयोगिता भी परिणामदायिनी होगी। शोधपत्रों की सांख्यिकी और महज सहभागिता जब महत्वपूर्ण हो जाती है, तो उसके कंटेंट का परिणामी होना संदेहास्पद हो जाता है। इन शोध पत्रों के स्तर और प्रकाशन के लिए कोई निकाय होना चाहिए ।और उनके मूल्यांकन निष्कर्षों के उपयोग पर भी क्रियान्वयन के दृष्टिकोण शासन के पास जाना चाहिए। इससे शोध निष्कर्ष और प्रशासनिक सोच में संतुलन आएगा।
उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी हमारी गति बढ़ा रही है और ज्ञान की सुलभता में सहयोगी बन रही है। अब तक हम मानते थे कि शिक्षक ज्ञान का संचयी केंद्र है और उसका ज्ञान विद्यार्थियों में पहुँचा देना ही उसका मूलकर्म है पर अब शिक्षक हमारा केंद्र ना होकर विद्यार्थी ही हमारा केंद्र है। उसका रूपांतरण और उसकी विवेकशीलता का अभिव्यक्ति में विकास जरूरी है। इस हेतु नेट पावरपॉइंट प्रस्तुतियाँ, स्मार्ट क्लास, ई- लायब्रेरी, सेमिनार-वेबीनार जैसे आयोजन सहायक हो रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि शिक्षक की उपयोगिता घट रही है। और ई-लर्निंग अपनेआप में सफल शिक्षा है। शिक्षक तो आत्मा है। पर उसकी आत्माऔर उसके ज्ञान से जो ट्रांसफॉर्मेशन होता है, उसकी परिणति छात्र में दिखनी चाहिए ।तकनीक ने उसके लिए विश्वव्यापी अवसर दिए हैं, कार्यक्षेत्र का विस्तार किया है। उन सब का उत्प्रेरक भी शिक्षक ही है और हितग्राही छात्र।और पर सवाल यह है शिक्षक कितना ज्ञान समृद्ध है? यह भी सवाल है कि वह अपने ज्ञान के ढीलेढाले विद्यार्थी को कैसे संक्रांत और कार्योन्मुख बना सकता है। कैसे उसके भीतर क्रियाशील विवेक और मूल्यपरक नागरिकता का विकास कर सकता है।
नया विश्व जितना ज्ञान का है, उतना ही पैकेजिंग का है। इसलिए वस्तु के साथ सजावट, ज्ञान के साथ मूल्यपरकता, कंटेंट के साथ फॉर्म, अनुभव के साथ अभिव्यंजना के विकास ध्येय बनाना चाहिए। यह पेल- पर्सनैलिटी के स्थान पर लाइव- पर्सनेलिटी तभी प्रभावी हो सकती है। इस हेतु भाषा के व्यापार बहुत कारगर हो सकते हैं। यह अलग बात है के इन दिनों भाषा के प्रति बड़ा उदासीन दृष्टिकोण है। जब विज्ञापन का बाजार, औद्योगिक बस्तियाँ, विश्वस्तरीय सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ, भाषा के खेल अपना विस्तार कर रही हैं। पाठ्यक्रमों में भी संधि-समास से हटकर इस जीवंत भाषा, बाजार भाषा, पारिभाषिक शब्दावली आदि के व्यावहारिक अनुप्रयोगों से संबद्ध पाठ्यक्रम सामग्री का विकास करना चाहिए, जो भाव-प्रणवता, मूल्यपरकता एवं नये प्रयोगों को टटोलती हो।
हमारे पाठ्यक्रमों की संरचना की दुर्बलता यह है यह भी है कि प्राथमिक शिक्षा, स्कूली शिक्षा, स्नातक शिक्षा एवं स्नातकोत्तर शिक्षा आपस में संबंद्ध न होकर विभाजित हैं। परिणाम यह होता है कि कई विषयों के पाठ्यक्रमों में पुनरावृति होती रहती है। ने केवल इकाइयों के स्तर पर बल्कि पाठों के स्तर पर भी। यद्यपि यह तर्क दिया जा सकता हैकि स्कूली स्तर पर एक ही पाठ के अर्थबोध और महाविद्यालय स्तर पर अर्थ ग्रहण की चिंता में अंतर है। परंतु अनेक पुनरावृत्तियों के स्थान पर हम नये उच्चतर पाठ्यक्रमों को जोड़ सकते हैं। विकास या नये ज्ञान के संयोजन के लिए जगह बना सकते हैं। हिंदी को ही लीजिए। विदेशी विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम हमारी तुलना में अधिक नवीन और समसामयिक हैं।यदि अर्थशास्त्र में भी हम अपने नये बाजार और प्रवृत्तियों को जोड़कर उसे अद्यतन करने के उपाय करें, तो यह विद्यार्थी के लिए आकर्षण का विषय रहेगा और संस्थानों के लिए भी। पाठ्यक्रम भी दो-तीन दिन में बनने और स्वीकृत होने वाला मामला नहीं है। उसे भी बीज बनानेवाली नर्सरियों की तरह अन्वेषी बनाना होगा। यह समय केवल स्मरणशील ज्ञान के विकास का नहीं। परीक्षाओं में महज ज्ञान की स्मृति के परीक्षण का नहीं। अपितु विश्लेषणात्मकता, नई तकनीक, नया विचार, नई संकल्पना का है, जो संसाधनों का अधिकतम उपयोग समाज हित में कर सके। न्यूनतम राष्ट्रीय संपदा के अधिकतम उपयोग और युवाओं के लिए रोजगार सृजन के रूप में हो सके। सामाजिक जुड़ाव और मूल्यपरक समाज की रचना में हो सके ।यह समय नकारात्मक सोच का नहीं है बल्कि अपने समय की सार्थक आलोचना से उपजे निष्कर्षों के साथ सही दिशा और लक्ष्यों को तलाशने का है।
* शिविरा मासिक पत्रिका (Shivira Patrika) अंक 11- 12, मई - जून 2023 में प्रकाशित बी. एल. आच्छा जी का लेख।
बी. एल. आच्छा फ्लैटनं-701टॉवर-27 स्टीफेंशन रोड(बिन्नी मिल्स) पेरंबूर, चेन्नई (तमिलनाडु) पिन-600012 मो-9425083335 |
ये भी पढ़ें;
✓ सुविख्यात व्यंग्यकार व आलोचक प्रो. बी. एल. आच्छा : जीवन परिचय