व्यंग्य - मुद्रा में देखा लोक : लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन

Dr. Mulla Adam Ali
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Loktantra Ki Chaukhat Par Ramkhelavan : Ranvijay Rao

Loktantra Ki Chaukhat Par Ramkhelavan Ranvijay Rao

व्यंग्य - मुद्रा में देखा लोक : लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन

- बी.एल. आच्छा

        'लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन' रणविजय राव का पहला व्यंग्य- संग्रह है। तय है कि इन व्यंग्यों की परिधि बहुत व्यापक है। इसलिए कि लोकतंत्र की दृश्यलीला अनन्त है और रामखेलावन के नाम में ही में नियति और लोकतंत्र के खेल का बोध। यह विस्तार न सही ईश्वर तक, मगर इंटरनेट के आकाश और जमीनी परिदृश्यों के यथार्थ तक तो ले ही जाएगा। व्यंग्यकार सांकेतिक रूप से अदृश्य कोरोना वायरस की दृश्य-लीलाओं के करुण परिदृश्यों में सामाजिकी - आर्थिकी के साथ राजनीति और मनोविज्ञान को चस्पा करता चला जाता है। यह ठीक है कि कई बार रामखेलावन के एकलपात्र से खेलते हुए व्यंग्यकार अपने नरेटिव से बच नहीं पाता! पर इतना ज़रूर है कि कोरोना के तरह तरह के वेरिएन्ट्स और लहरों के प्रहारों में वह जनजीवन, लोकतंत्र, त्रासदी और नियति, मीडिया और पक्ष-प्रतिपक्ष के साथ गंवई जीवन और शहरी विश्व- परिदृश्यों में वैचारिक कुरेदन के साथ पाठकों को जोड़ने की मनोभूमि लिए चलता है।

        'राम खेलावन चला गाँव की ओर' व्यंग्य में अपने समय की मीडिया अभिव्यक्ति को इसतरह पेश करता है- "दरअसल इन कैमरों की जो आँख है, इनकी अपनी आँख नहीं है। वैसे तो किसी की भी आँख अपनी आँख नहीं है।" और बुद्धिजीविता के धरातल पर वह डिडक्टिव होकर लिखता है- 'इन कैमरों के जो मालिक हैं और मालिक के जो भी मालिक हैं, वह मालिक जो देखना चाहता है, वही दिखाते हैं ये कैमरे।" अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक खुलेपन में बाजारधर्मी नजरिया गुहाओं के भीतरी कुहासे को, भीतर की छलना को असहाय वर्ग की कसमसाती जिन्दगी को, प्रायोजित संधि-समासों को नहीं दिखाता। इन व्यंग्यों का एकल पात्र रामखेलावन है, जो इन व्यंग्यों में अलग- अलग भूमिकाओं में उन दृश्यों को जीता है, जो झोंपड़ी से लेकर मॉल तक, गंवई एहसासों से लेकर इंटरनेट की दुनिया तक हर बार अलग भूमिका में उन चीजों से रूबरू करवाता है। मगर केवल कैमरे का यथार्थ नहीं, उसके भीतर की चुभन का भी।यही अंतर्वस्तु मालिकों के चैनलीय कैमरों को दरकिनार कर खुरदुरे एहसासों के साथ प्रतिकार की व्यंग्यवाणी बन जाती है।

      इसीलिए कोरोना-क्रोन के वेरिएंट्स की अदृश्य मुद्राओं की तरह रामखेलावन की भूमिकाएँ भी एक सी नहीं है। पर इन भूमिकाओं में उसके भीतर का क्षोभ, आक्रोश का तापमान, लोकतंत्र की बुनियादी चिन्ताएँ, पीड़ित जनसमूह की व्यथाओं से उपजी करुणा और वैचारिकी के स्पर्श से बुनी मारक अभिव्यक्तियाँ इस संग्रह की व्यंग्य- भाषा बनती चली जाती है। परिदृश्यों के फिजिकल से लेकर तकनीक के डिजिटल तक ये व्यंग्य पुराने मुहावरों के साथ जिन्दगी के तीते-रुलाते नये मुहावरों को जोड़ता चला जाता है। लगता है कि एक संवेदनशील कैमरा इन परिदृश्यों को पाठक-संवादी बना रहा है और सबकुछ घुमंतु मुद्राओं में रूपांतरित होता जा रहा है।

       बात जब लोकतंत्र की आती है,तो रामखेलावन को एन्कर भूमिका तो बनेगी ही। आखिर चौथा स्तंभ जो है। वह कितना मुक्त है, यह तो कसौटी है लोकतंत्र की। समाचार - लिपि की तहों में कौन से गर्त हैं और कितने उभार; पर उसे तो केवल वाचन करना है। मगर इस वाचन के साथ उसका जीवन से साक्षात्कार उसे इस विचारपरक डिडक्टिव तक ले जाता है-" व्यवस्था की आत्मा, जनतंत्र का शृंगार और नौकरशाही की आराम कुर्सी का भार उसी के कंधे पर है।" जनता का दुख-दर्द और आकांक्षाओं से कितना निर्लेप रह जाना पड़ता है समाचार तंत्र को। यही नहीं लोकतंत्र के लोकलुभावन मुफ्तिया राग चीजों की राजनीतिक मंडी बन जाते हैं। जनता के मूल मुद्दे दफ़्न हो जाते हैं।लोकतांत्रिक मूल्यों के इस क्षरण में क्षोभ भी है, आक्रोश भी है, व्यथा भी है, पर व्यंग्य संरचना में मूल्यों की दरकार बरकरार है।

     अनेक मुद्दे हैं। कोरोना काल में अर्थनीति का ज्वलंत मुद्‌दा है - शराब की बिक्री।नेगेटिव से पॉजीटिव की व्यंग्यार्थ लीला से व्यंग्यकार धर्म, अर्थ और राजनीति-' तीनों में आई विकृतियों पर प्रहार करता है। पर रामखेलावन की मनोदशा के लिए यह पंक्ति व्यंजक है - "जब वह नशे में होकर नशे में नहीं होता।" यदि इसे बदल दिया जाए -"व्यंग्यकार व्यंग्य में होकर भी व्यंग्य में नहीं होता, तो नेपथ्य में उसका संवेदनशील विचारक अपेक्षित मूल्यवत्ता के लिए हस्तक्षेप कर रहा होता है।

     जीवन की चुनौतियां हैं। प्रतिकार की व्यंग्यधर्मिता भी है, पर पग पग पर अवसादों से घिरा सामान्य जन नियति के निराश दर्शन तक पहुँच ही जाता है-" 'होइहें वही जो राम रचि राखा'। व्यंग्य यह कि कुछ के लिए आपदा अवसर बन जाती है, जो मूल्यों की पटरी से उतर जाते हैं। पर जो असहाय हैं ,वे तो कोरोना काल की नियति के शिकार हैं। इन व्यंग्यों की जमीन साधारण जन की विवशताओं को ही संवेदना का आधार बनाती है। यह साधारण निरीह जन जब निजात के लिए गाँव की राह लेता है, तब एक अलग परिदृश्य से रूबरू होता है- "आधुनिकता के सताए इन गाँवों की सूरत ही बदल गयी थी। जब नदी, झरने, तालाब, तुलसी, पीपल के साये में खुशहाल बसे गोबर-लीपे आंगन, आम के पेड़, चूल्हे की रोटियों की गंध, गीत, हंसी-ठिठोली वगैरह गुम हो गये।" इसी के समानान्तर वह शहरी नदी-नालों के किनारे उगी झुग्गियों-झोपड़ियों का कन्ट्रास्ट रचता है, तो लगता है कि एक पूरी वैचारिकी अपने अर्थशास्त्र- समाजशास्त्र के साथ चली आती है। व्यंग्य कहीं ऐसे ललित निबंध का स्पर्श करने लगता है, जिसमें हरे-भरे अतीत में रिश्तों की उजाड़ सी उदासी पसर गयी हो।

    कोरोना काल की एकल धुरी पर केन्द्रित होकर इतने परिदृश्यों को व्यंग्यात्मक वैचारिकी का पाठ बनाना एकरसता भी पैदा कर सकता था और पुनरावृत्ति के खतरे भी। यों इसकी झलक मिल जाती है। फिर भी व्यंग्यकार रामखेलावन की पत्नी फूलमतिया औ विलायतीराम पांडे के माध्यम से कुछ नया रचने की मानसिकता में अपनी पेंग और छलांग भरता है। फूलमतिया गंवई- से परिवेश वाली पत्नी है, पर शहरी वातावरण में वह भी डिजिटल होती हुई सरप्राईज देने के मॉडल में उभरती है। इस बहाने डिजिटल फरेब की फ्रॉडिया दुनिया पर कसकर व्यंग्य किये गये हैं। बाजार के अर्थशास्त्र और भीड़ जुटाने के नेताई गुरों पर प्रहार करते हुए व्यंग्यकार इसी निष्कर्ष बिन्दु पर जा टिकता है-" सब दूसरे के कंधों पर चढ़कर आगे बढ़ना चाहते हैं।" असल में रामखेलावन की मनो-सामाजिकता में लेखक इसतरह पैठा है कि उसके वैचारिक संस्पर्श अपने अप्रत्यक्ष में भी साकार होते जाते हैं। 

     इन व्यंग्यों की रेंज बहुत लंबी है और क्षेत्रफल भी। ओझा-तांत्रिकता के गंवई विश्वासों से लेकर राजनीति और अभिव्यक्ति के जनतंत्र तक। जातियों की विभेदकता और अमीर-गरीब की खाइयों तक, लोकतांत्रिक मर्यादाओं से लेकर पॉलीटिक्स की पतंगबाजी के 'वो काट्टा है 'के पैतरों तक। टेबल से अंडरटेबल की कारगुजारियों तक। मोबाइलिया सामाजिकता से लेकर तड़फड़ाते घायल व्यक्ति के वीडियो - सेल्फी की वायरल संवेदना तक। 'कोरोना पीड़ितोके लिए बेड और आक्सीजन की मारामारी से लेकर कारुणिक परिदृश्यों तक। बेरोजगारी में फटती बिवाइयों से लेकर 'बाय वन गेट फ्री वन' के मॉल बाज़ार तक। मूल्यों की अंतर्मन की निष्ठा से लेकर योग और अध्यात्म के बाजार तक। समकाल के परिदृश्यों में व्यंग्यकार ने कबीर को पुराने रूप में आदमकद नहीं बनाया है, बल्कि कबीर के बहाने ब्रांडिंग के बाजार को सरेआम किया है। इन सारे परिदृश्यों में एक नया मुहावरा हर झूठे - सच्चे नेतृत्व से अंततः उगलवा ही देता है - "यह पब्लिक है सब जानती है।" जानने और न बदलने के ये संवेदनहीन सरोकार इन व्यंग्यों की असल पीड़ा है और व्यंग्य की मारक चेतना भी।

       कोरोना ने अस्पतालों, शवदाहगृहों, कब्रों और छटपटाते रोगियों के साथ परिजनों की व्यथाओं से तो सबको पिघलाया ही है। पर इस काल के व्यंग्यकारों ने चित्रगुप्त के पौराणिक मिथक से भी नये दृश्य जोड़े हैं।नये मुहावरे भी। 'भूलोक में भूचाल,देवलोक में अफरातफरी' व्यंग्य सचमुच में कोरोना की दूसरी लहर से संक्रांत विश्व की व्यथा है। लेखक ने इसे फैन्टेसी में रचा है, जहाँ पूरा यमलोक भी नयी शब्दावली में जमीन आसमान एक कर रहा है - 'इमरजेन्सी, वर्क फ्राम होम, विदाऊट ब्रेक,यमदूतों की कॉन्ट्रेक्ट नियुक्ति।' न्याय-अन्याय, कुकर्म- सुकर्म की यमलोक की कसौटियों पर यों धरती के तथाकथित पाखंडियों की मूल्यपरकता का हिसाब चित्रगुप्त और पाखंडियों में व्यंग्यात्मक संवाद एक कन्ट्रास्ट के रूप में व्यंजक बन जाते हैं।

      इन व्यंग्यों में जितना कोरोना डर है, उतना ही लोकतांत्रिक मूल्यों के विचलन से उपजा डर भी।कोरोना ने मुहावरे को बदला- 'जो डरेगा वो बचेगा।' पर डर का लोकतंत्र इन व्यंग्यों में इस कदर रचा बसा है कि उससे आहत निरीह जनता के लिए यह विवश वेदना की नियति बन जाता है। इस विवशता का प्रतिकार रामखेलावन में मौजूद है, पर वह भी उसका शिकार हैं। अन्तर्मन की सजग भाषा में उसके भीतर प्रतिकार है। व्यंग्य इसी करुणा तक ले जाता है और प्रतिकार के लिए चुनौतीपूर्ण बनता है। इसीलिए इस व्यंग्य भाषा में जितनी पुरानी मुहावरेदानी है, उतनी ही नये मुहावरों को रचने की कोशिश भी।

      यद्यपि व्यंंग्य किसी चौखट में समाहित नहीं होता, न कुछ खास संरचनाओं में ही अपनी पहचान बनाता है। पर अधिकतर व्यंग्यों में निबंधात्मकता के बजाय कथात्मकता रामखेलावन की व्यंग्य-घुमक्कड़ी की रूपरचना बन जाती है। यों कई व्यंग्यों में लेखकीय हस्तक्षेप वैचारिकी के रूप में आ धमकता है, पर व्यंग्यकार ने उसे रामखेलावन के मनोविज्ञान और सोच में अंतरित किया है। संवादात्मकता इन व्यंग्यों को वर्णन नहीं बनने देती। अन्य विधाओं का संक्रमण भी व्यंग्यों को नयी जमीन देता है, प्रयोगधर्मी भी बनाता है। ठेठ आंचलिक बोलियों की शब्दावली से लेकर तकनीक और बाजार की अंग्रेजीपरस्त शब्दावली का पात्र, दृश्य और संवेदित कथ्य के अनुरूप प्रयोग व्यंग्य- भाषा की सामर्थ्य है। 'बेबी को बेस पसंद है' के 'बेस' का अंग्रेजी अर्थांतरण इस खिलदड़ीपन में वैचारिक पीठ भी कायम करता है- "इसलिए कहती हूं मियां कि बेस बढ़ाओ, बेस बनाओ और ऐसा तभी होगा जब तुम्हें बेस पसंद होगा।" पत्नी फूलमतिया एक साबुत आदमी के' फेस' के रूप में रामखेलावन को देखना चाहती है, जो न तो अतीतजीवी हो; न व्यथाजीवी। सामाजिक सरोकारों के बिखरे तंतुजाल में फूलमतिया कहती हैं - "यदि हमारे उसूलों पर आंच आ रही हो और हम आवाज उठाने से, टकराने से डर रहे हैं,तो इसे जीना नहीं कहते।ऐसी स्थिति इसलिए है कि हमारा बेस दरक रहा है।" यों लगता है कि क्या गंवई फूलमतिया से ये संवाद जायज हैं? पर यह भी सही है कि गंवई से शहरी बनती फूलमतिया भी इन परिदृश्यों में खूब रमी है और शब्दों-विचारों की फेंकफांक में कुछ तेजतर्रार भी।

       यह जरूर है कि इन व्यंग्यों में लेखकीय हस्तक्षेप छुपा नहीं रहता, पर उसका वैचारिक उद्वेलन और वास्तविकताओं से निकले एहसास व्यंग्यकार की छटपटाहट को व्यक्त करते हैं।यह व्यंंग्य यात्रा और भी परिष्कृत तथा धारदार होगी,ये संकेत इस पहले पायदान से ही आश्वस्त करते हैं।

(समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका, साहित्य अकादमी, दिल्ली सितंबर अक्टूबर 2022 में प्रकाशित समीक्षा)

पुस्तक का नाम : लोकतंत्र की चौखट पर रामखेलावन
लेखक : रणविजय राव
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, दिल्ली
प्रकाशन वर्ष : 2022
मूल्य : ₹325/-

B. L. Achha

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