Administrative Hindi: Problem and Solution
प्रशासनिक हिंदी : समस्या और समाधान
प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक ऐसी भाषा होती है जिसके द्वारा अधिकांश नागरिक भावाभिव्यक्ति करते हैं। स्वतंत्र एवं सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र ऐसी भाषा को अपने राजकाज की भाषा के रूप में स्वीकार करता है। शताब्दियों की पराधीनता के बाद स्वतंत्र भारत ने देवनागरी लिपि में लिखी हुई हिन्दी को राजकाज की भाषा के रूप में स्वीकार कर राष्ट्रीय अस्मिता का ही प्रतिपादन किया था। चीन के आक्रमण से मिली अप्रत्याशित पराजय से हताश निराश- जननायक पं. नेहरू पर कुछ निहित स्वार्थ से प्रेरक शक्तियों का ऐसा दबाव पड़ा कि जिस हिन्दी को 26 जनवरी 1965 से सम्पूर्ण राजकाज की भाषा का पद मिलना था, उसे सदा- सर्वदा के लिए अंग्रेजी के पीछे धकेल दिया।
भारत सरकार को संविधान का निर्देश है कि वह हिन्दी के प्रचार का कार्य करे। अतः वह प्रशासन के स्तर पर हिन्दी के प्रयोग की आवश्यकता पर ध्यान देती है। प्रशासन के स्तर पर हिन्दी के प्रयोग में कुछ वास्तविक समस्याएँ भी हैं और कुछ जानबूझकर खड़ी की जाती हैं। यह एक तथ्य है कि अनेक वर्षों तक हिन्दी में प्रशासनिक कार्य नहीं हुआ है। अतः हिन्दी में उस प्रशासनिक शब्दावली का कुछ अभाव होगा, जिसके द्वारा राजकाज संचालित होता है। इस कमी की पूर्ति के निमित्त ही "वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग " का गठन हुआ था जिसने ज्ञान-विज्ञान की सभी शाखाओं के लिए लगभग पाँच लाख शब्द विकसित कर इस समस्या का पूर्ण रूपेण समाधान कर दिया है। प्रशासन सम्बन्धी शब्दों का अभाव भी इससे दूर हो गया है।
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शब्दावली बन जाने के बाद हिन्दी जानने वाले प्रशासनिक अधिकारियों के अभाव की समस्या की बात उठी। सरकार ने इसके निराकरण के लिए हिन्दी - शिक्षण कार्यक्रमों की योजना के द्वारा काम-काजी हिन्दी सीखने के लिए अनेक प्रकार के प्रोत्साहन दिए। प्रत्येक विभाग में हिन्दी अधिकारी नियुक्त कर उपस्थित समस्याओं के तुरन्त समाधान का मार्ग प्रशस्त किया। इस प्रकार हिन्दी में काम- काज के लायक वातावरण बना।
जब कोई समस्या न रही, तब निहित स्वार्थी तत्त्वों ने तरह-तरह के बहाने बना कर हिन्दी को प्रशासनिक कार्यों से वंचित रखने के दुष्ट प्रयास प्रारम्भ किए। राजकाज की प्रशासनिक शब्दावली अंग्रेजी में थी, हिन्दी में वह अनूदित हुई थी। कुछ शब्द पहले से प्रचलित थे और कुछ नए निर्मित करने पड़े थे । अतः हिन्दी विरोधियों ने पहली समस्या यह प्रस्तुत की, कि हिन्दी के शब्द कठिन हैं, समझ में नहीं आते हैं और अभिव्यक्ति भी सशक्त एवं प्रभावी नहीं हो पाती।
उपर्युक्त समस्या अवास्तविक है अथवा हिन्दी में कार्य न करने का बहाना है। हिन्दी में कार्य न करने की भावना : के पीछे भी कितने ही कारण हैं। प्रथम मानसिक पराधीनता-बोध जिसके कारण इस सोच ने जन्म लिया कि हिन्दी जैसी बोलचाल की भाषा में राजकाज नहीं हो सकता अपितु राजकाज के लिए तो ब्रिटिश सरकार के समान अंग्रेजी ही उपयुक्त भाषा है। दूसरे परिवर्तन के प्रति आलस्य का भाव । सामान्य प्रार्थनापत्र लिखते समय अथवा उपस्थिति पंजिका में नाम लिखते समय अथवा हस्ताक्षर करते समय भी अंग्रेजी का प्रयोग इसी आलसी प्रवृत्ति का परिणाम है। तीसरा कारण यह है कि अंग्रेजी के माध्यम से प्रशासनिक कार्य करने वाले व्यक्ति यह नहीं चाहते कि हिन्दी के प्रयोग के कारण राजकाज से उनका एकाधिकार समाप्त हो । यदि प्रशासनिक सेवाओं के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया जाए तो इन सेवाओं में आने के लिए बहुत बड़े वर्ग के मध्य प्रतियोगिता करनी पड़ेगी। अतः अंग्रेजी के पक्षधर अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रतियोगिता के क्षेत्र को सीमित रखना चाहते हैं। चौथा तर्क हिन्दी-विरोध में यह भी दिया जाता है कि हिन्दी अनुवाद की भाषा है। प्रथम तो उसे अनुवाद की भाषा कहना ही अनुचित है। यह तर्क उनका है, जो सोचते अंग्रेजी में हैं और बाद में हिन्दी की प्रवृत्ति का ध्यान न रखते हुए अनुवाद कर देते हैं। अनुवाद भी भाषा की प्रवृत्ति के अनुसार होना चाहिए। यथा - What is your name? का अनुवाद 'क्या है आपका नाम नहीं हो सकता, अपितु हिन्दी के प्रकृति के अनुकूल 'आपका शुभ नाम' होगा। "Where do you live ?" का अनुवाद 'कहाँ आप रहते हैं'न होकर 'आपका शुभ स्थान' ही उपयुक्त है। पाँचवाँ आरोप हिन्दी की शब्दावली पर कठिनता का लगाया जाता है।
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यह वास्तविकता है कि कभी-कभी हिन्दी भाषी ही नहीं, अपितु हिन्दी के अध्यापकों को भी हिन्दी के शब्द को समझने के लिए अंग्रेजी शब्द का सहारा लेना पड़ता है। ऐसे अवसर पर शब्दावली आयोग पर भी अव्यवहारिकता का आरोप लगता है। यथा abnormal Free, Year Book शब्दों के लिए 'वृहत् प्रशासन-शब्दावली' में क्रमशः अपसामान्य, अलग्न व अब्दकोश पर्याय दिए हैं। यह अपरिचित व कठिन कोटि में आ सकते हैं। यदि इनके लिए क्रमशः असामान्य, मुक्त व वार्षिक की पर्याय होते तो समझने में कुछ सरलता रहती। आयोग का तर्क हो सकता है असामान्य का अर्थ असाधारण है किन्तु यह भी सत्य है कि 'अपसामान्य' सामान्य जन के लिए असुविधा जनक है।
इस संदर्भ में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शब्द स्वयं सरल या कठिन नहीं होते। प्रचलन के आधार पर शब्द से परिचय होता है, जिसके कारण ठेठ ग्रामीण अशिक्षित जन "भी आज अंग्रेजी, अरबी-फारसी, तुर्की व डच आदि विदेशी भाषाओं के अनेक शब्दों का अर्थ जानता है । प्रचलन के अभाव में अपने परिवेश के शब्द भी अपरिचित हो जाते हैं। प्रचलन में आने पर हिन्दी पर्याय भी सामान्य जान को परिचित लगने लगेंगे। यथा- राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद, विधानसभा, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, विधायक, सांसद आदि शब्द स्वतंत्रता के बाद ही प्रचलन में आए हैं जो अपने अंग्रेजी पर्यायों की तुलना में अधिक प्रचलित हैं। हिन्दी शब्द का एक अर्थ का एक अर्थ 'सरलता' भी है। अतः हिन्दी जैसी सरलता अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रशासन में हिन्दी के प्रयोग के लिए मानसिक पराधीनता से मुक्त होकर राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाना होगा। हिन्दी लिखने या बोलने में गौरव की अनुभूति होने के बाद शब्दों का अभाव नहीं रहेगा। स्वयं हिन्दी के पास विशाल शब्द भण्डार है और यदि कोई शब्द न मिल रहा हो तो बोलचाल की हिन्दी से ले लें संस्कृत के व्याकरण के आधार पर निर्मित कर लें, प्रांतीय भाषाओं से ले लें और यदि इन सबके बाद भी काम न चले तो उसी विदेशी शब्द को हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुसार देवनागरी में लिप्यन्तर कर लें।
यथा अंग्रेजी 'क्विन्टल हिन्दी में कुण्टल बन गया। यह भी स्मरणीय है कि ग्रामीणजन अपनी आवश्यकतानुसार नए शब्द गढ़ते रहते हैं। यथा-उत्तरी भारत में एक वाहन यदि भैंसे से खींचा जाए, तो उसको 'बुग्गी' कहते हैं और वही वाहन यदि डीजल इंजन से खींचा जाए तो उसे 'जुगाड़' कहा जाता है। इन शब्दों का निर्माण स्वयं किसानों ने किया है।
हिन्दी में लिखने में जिन अधिकारियों को आलस्य की भावना बाधित करती है, उनको यह बताना पड़ेगा कि हिन्दी सरल व संक्षिप्त लिखने में समर्थ है। यथा- कुछ टिप्पण देखें- necessary steps should be taken (आवश्यक कार्यवाही की जाए) in the prescribed manner (विहित रीति से) Explanation may be called for (जवाब तलब किया जाए) action is required to be taken early (शीघ्र कार्यवाही अपेक्षित है) आदि । उपर्युक्त उदाहरणो में अंग्रेजी के इक्कीस शब्दों का प्रयोग हुआ है जब कि हिन्दी के पन्द्रह शब्दों से ही काम चल गया है। अंग्रेजी के एक सौ दो अक्षरों का प्रयोग हुआ है जब कि हिन्दी के इक्सठ अक्षर प्रयुक्त हुए हैं। अतः अधिकारियों को यह समझाना होगा कि हिन्दी में काम-काज शीघ्रता से होगा। हिन्दी के प्रयोग में सबसे बड़ी बाधा सरकारी नौकरयों के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता है । अंग्रेजी के समर्थकों का तर्क है कि अंग्रेजी ज्ञान-विज्ञान की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा है, समस्त संसार से सम्पर्क की भाषा है। यह तर्क एकदम असत्य है। संसार के अनेक देशों रूस, - चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस आदि ने अपनी-अपनी भाषाओं के माध्यम से ही उन्नति की है। संसार के बहुत से देशों के राजनेता व शीर्षस्थ प्रशासनिक अधिकारी दूसरे देशों के साथ अनुवाद के माध्यम से अपना सम्पर्क बनाते हैं। अतः सर्वप्रथम हिन्दी भाषी दस प्रान्तों को अपनी सेवाओं में भर्ती के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करनी चाहिए। शेष प्रान्त अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर प्रांतीय भाषा में कार्य करायें। केन्द्रीय सेवाओं में वैदेशिक नौकरियों के लिए अनेक विदेशी भाषाओं का विकल्प हो, मात्र अंग्रेजी की ही अनिवार्यता न रखी जाए।
समस्त देश हिन्दी को समझता और बहुत बड़ी संख्या में हिन्दीतर प्रान्तों के भारतीय हिन्दी में अपनी बात कह भी लेते हैं। अतः केन्द्रीय स्तर पर कार्य हिन्दी में होना चाहिए, भले ही उसका प्रांतीय भाषाओं में अनुवाद भेजना पड़े।
- चंद्र पाल शर्मा
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