Impact of Globalization on Indian Languages
Globalization and Indian Languages
भूमंडलीकरण का भारतीय भाषाओं पर प्रभाव
हमें यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि अमरीका तथा पश्चिमी ताकतवर औद्योगिक राष्ट्र अपने आर्थिक वर्चस्व, सांस्कृतिक वर्चस्व एवं मीडिया वर्चस्व द्वारा मानवीय तथा प्राकृतिक साधनों पर अपना स्वामित्व जमा रहे हैं ताकि व्यापार के लिए दुनिया को एक करके तथा कृत्रिम, झूठा और आकर्षणनुमा संसार रचकर निहित स्वार्थों को पूरा किया जा सके। भारत इस वैश्विक साज़िश का अपवाद इसलिए नहीं है कि भारतीय भाषाएँ, साहित्य संस्कृति एवं जातीय भाव-विचार पर भूमंडलीकरण की सुनामी लहरों का गहरा में प्रभाव पड़ रहा है। दिलचस्प है कि हर 20 मिनट के बाद इस उपमहाद्वीप में विदेशी मीडिया द्वारा एक विकृत शब्द को प्रसारित एवं प्रचारित किया जा रहा है। महानगरों, नगरों एवं राज्यों की राजधानियों में प्रदर्शित विज्ञापनों में भारतीय भाषाओं, विशेषकर हिन्दी को रोमन लिपि में लिखकर भाषाई अवमूल्यन को बढ़ावा दिया जा रहा है। हैरत इस बात पर भी है कि गत दो दशकों से जितनी भी पुस्तकें भारतीय भाषाओं में प्रकाशित हुई है, उनमें शब्द प्रयोग, वार्कय विन्यास, विषय-वस्तु, शैली वैशिष्ट्य आदि के स्तर पर जो बदलाव आया है, वह प्रभावाधीप प्रयोगधर्मी, अवसरधर्मी एवं क्षणिक लोकप्रियताधर्मी अधिक है।
परिवेश एवं वैश्विक प्रभाव खुला ग़वाह है कि कुबेर केन्द्रित प्रवृत्ति एवं क्षणिक वाहवाही मनोवृत्ति ने भारतीय भाषाओं को अपनी मूल परंपरा, विरासत, ज़मीनी हक़ीकत और यथार्थ संस्कार से काट दिया है। नतीज़े के तौर पर भाषाओं में दूरियाँ बढ़ी हैं। उत्तर आधुनिकतावाद एवं विसंरचनावाद की जूठन पर मुग्ध होकर इधर के शब्दशिल्पी अपनी भाषाई तथा साहित्यिक अस्मिता का मरवौल उड़ा रहे हैं। आचार्य विनोबा, तिलक, महात्मा गाँधी, लोहिया और शारदाचरण मित्र ने भारतीय भाषाओं को करीब लाने तथा नागरीलिपि को विकसित करने के जो सूत्र दिए थे, उनका शोभापुरुषों ने बुरी तरह से राजनीतिकरण और अवसरीकरण कर दिया है। उपभोक्ता संस्कृति और दूरदर्शन के तमाम चैनलों ने अध्ययन, चिंतन-मनन एवं मौलिक लेखन का समय छीनकर लोगों को संवेदना शून्य बना दिया है। भूमंडलीकरण के प्रभावाधीन भारत एक सांस्कृतिक उपनिवेश बनता जा रहा है। तो वर्तमान का संबंध स्मृतियों से काट कर अमानवीय एवं फासिस्ट समाज की रचना की जा रही है। क्षेत्रीय प्रभुता कायम करने के स्वाँग ने भाषाई एकता को क्षीण किया है। नतीजतन, वैचारिकता गायब हो रही है और जीवन जगत ख़तरे में है। निस्संदेह, जहाँ यह चिंता की बात है, वहीं यह चिंतन- अनुचिंतन का विषय भी है।
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एक अन्य परिदृश्य को देखें तो सारे संसार में कोशिश चल रही है कि भाषाएँ कम हो जाएँ और कुछेक चुनिंदा भाषाओं का ही व्यापार एवं बाजार पर आधिपत्य रहे। इस भाषाई प्रतिस्पर्धा में अंग्रेज़ी, चीनी, फ्रेन्च, रूसी एवं जर्मन अपनी ताकत की आजमाइश कर रही हैं। भारतीय भाषाओं के प्रति इनका नज़रिया संकीर्ण किस्म का है। कंप्यूटर और इंटरनेट के बढ़ते प्रभाव ने भी भारतीय भाषाओं के सामने कई समस्याएँ खड़ी कर दी हैं। इस स्थल पर यह बात महत्वपूर्ण और ध्यान देने योग्य है कि जितनी गुणवत्ता, तत्परता एवं संपूर्णता के साथ विदेशी कंप्यूटर कंपनियाँ तथा विदेशी कंप्यूटर कंपनियाँ तथा एजेंसियाँ भारतीय भाषाओं के पैकेज तैयार करती हैं, उस अनुपात में भाषाओं के पैकेज बनाने में हमारी सॉफ्टवेयर एजेंसियाँ पीछे रह जाती हैं। इसका एक सीधा कारण यह है कि हमारे यहाँ सॉफ्टवेयरों के मामले में कोई निश्चित एवं निर्धारित रेगुलेटरी सिस्टम नहीं है। भारत में ऐसे स्वस्थ सॉफ्टवेयर प्राधिकरण स्थापित होने चाहिए जिनमें भाषाविदों की सक्रिय भागीदारी रहे।
अब सवाल यह है कि भूमंडलीकरण रूपी दैत्य का सामना करने के लिए कार्य नीति एवं मार्ग मानचित्र क्या हो ? वैश्वीकरण के विरुद्ध लड़ाई लड़ने की रणनीति बनानी इसलिए भी ज़रूरी है कि मनुष्य पूँजी और बाजार का गुलाम बनता जा रहा है। गुलाम मानसिकता की स्थिति में न तो विचार की रक्षा की जा सकती है और ना ही तमाम चुनौतियों के बीच भविष्य के मार्ग की तलाश की जा सकती है। फिर विचार के बिना भाषा, साहित्य, कला, संस्कृति और समाज का टिकना संभव नहीं है। संस्कृति स्वयं अपने सूक्ष्म और गहनतम रूप में विचार ही तो है। विचार नये विकल्प खोजता है, नई ज़मीन तोड़ने की हिम्मत देता है और नई चेतना का विकास करता है। इतिहास साक्षी है कि उपनिषदों, क्लासिक दर्शनों, बौद्धों, जैनों, सिद्धों, नाथों और भक्तिकाल के संतों भक्तों की विरासत के क्रांतिकारी तत्वों ने जन-चेतना को साम्राज्यवाद के विरोध में खड़ा करने में सफलता पाई थी। शहीद भगत सिंह और महात्मा गाँधी का निशाना ब्रिटिश हुकूमत और पूँजीवाद के औपनिवेशिक रूप तथा चरित्र पर था। आज इसी गर्वीली वैचारिकता की वापसी बेहद ज़रूरी है।
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'भारतीय भाषाओं में फूट डालो और पूँजी के प्रभुत्व को स्थापित करो' की नीति में छिपी चाल को समझते हुए हमें भारतीय भाषाओं को प्यार से, सहयोग से और बिना किसी ईर्ष्या भाव के फैलाना होगा। मानव प्रेम और भाषा प्रेम ही एकता की बुनियाद है। अपनी भाषा का अहंकार न होकर उसके प्रति गर्व होना चाहिए। भाषाएँ दिल की चीज़ हुआ करती हैं, हृदय की सरिताएँ होती हैं। और इन्हें राजनीति से अलग करके देखा जाना चाहिए। इसे बिना संदेह से कहा जा सकता है कि असमी, बोडो और बांगला में सांस्कृतिक संदर्भों के स्तर पर काफी समानता है। भोजपुरी, अवधी और मैथिली भाषाओं के 3000 से अधिक शब्द थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ नेपाली भाषा में प्रयुक्त होते हैं पंजाबी भाषा ने बड़ी उदारता से हिन्दी शब्दों तथा संस्कृत के तत्सम शब्दों का अपनाना शुरू कर दिया है। तेलुगु, मलयालम कन्नड़ में बहुतायत से तथा तमिल में भी एक संतुलित मात्रा में संस्कृत के शब्दों का प्रयोग किया जाता है। शब्दों को आपस में ग्रहण करने की यह प्रवृति और सांस्कृतिक संदर्भों की समानता भारतीय भाषाओं की एकता एवं शक्ति का प्रतीक है। इस साम्यता को अधिक प्रगाढ़ बनाने की आवश्यकता है।
कुछ अवधारणाएँ ऐसी हैं जो लोक भाषाओं में छिपी हैं, उन्हें शक्ति के रूप में उपयोग करना है। भावुकता से काम न लेकर बौद्धिक स्तर पर चिंतन होना चाहिए। शैल्पिक एवं शाब्दिक व्यंजनाएँ भी हमारी बहुत मदद कर सकती हैं। भारतीय भाषाओं का उत्कृष्ट साहित्य छपना बंद नहीं हुआ है। आधुनिक पंजाबी, मराठी, असमी, उड़िया आदि भाषाओं के साहित्य में साहित्य की दिशाएँ उत्कृष्ट हैं। कहना न होगा कि भाषाओं के बीच आपसी संबंध का सेतु अनुवाद ही है। अतः भारतीय भाषाओं के पारस्परिक अनुवाद को बढ़ावा देना चाहिए। बिना किसी पूर्वग्रह, प्रतिकूल मानसिकता और वैचारिक संकीर्णता के भारत में अनुवाद के लिए हिन्दी को आधार भाषा अथवा संयोजक भाषा रखा जा सकता है, जिसके माध्यम से सभी भारतीय भाषाएँ एक-दूसरे के संपर्क में आ सकती हैं। मसलन, तमिल के किसी ग्रंथ का अनुवाद पहले हिन्दी में प्रस्तुत हो जाए तो उसे हिन्दी से बांग्ला, तेलुगु, कन्नड़ मलयालम, पंजाबी, मराठी, गुजराती आदि में रूपान्तरित करने वालों की संख्या बहुत मिल जाएगी। हिन्दी जानने वाले सभी भाषाओं में उपलब्ध हैं। पत्र-पत्रिकाएँ भी भाषाओं को जोड़ने में अपनी अहम् भूमिका निभा सकती हैं। यदि भारतीय भाषाएँ ही प्रधानतः अन्तर अनुवाद का माध्यम बनती हैं तो अंग्रेजी अनुवाद के वर्चस्व पर नियंत्रण किया जा सकता है। भारतीय भाषाओं में ग़ज़ब की संवेदनशीलता है, विलक्षण शब्द संपदा है और उदद्भुत शब्द शक्ति है। नागरी लिपि की ध्वन्यात्मकता और लिखने की वैज्ञानिकता की क्षमता दुनिया की किसी भी लिपि में नहीं मिलेगी। इसीलिए तुलसी ने लिपि की प्रार्थना की है, उसने लिखे हुए शब्द की सीपना की है, उसकी स्तुति की है तथा शब्द की रोशनाई को समझा है।
उल्लेखनीय है कि सारी दुनिया स्थानीयता से शुरू होती है। भाषाएँ भी अपनी स्थानीयता से शुरू होती हैं । अतः इस स्थानीयता को बचाना ज़रूरी है। हर भाषा का एक विशिष्ट कार्य एवं प्रयोजन होता है, हमें इस मामले में कठोर नहीं होना चाहिए। इससे पहले कि हमें अप्रवासी हिन्दी मिलने लगे, इसे अन्तरप्रान्तीय भाषा बनना चाहिए। हिन्दी अन्तरराष्ट्रीय भाषा तो है ही। लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि हिन्दी और भारतीय भाषाओं को केवल साहित्य तक ही सीमित न रखा जाए। ये भाषाएँ संचार माध्यमों की व्यावसायिकता तथा नैतिकता के मध्य सेतु का निर्माण करें। यह कैसा सेतु हो, इस पर विचार किया जाना चाहिए। यह सही है कि उदारवादी अर्थव्यवस्था, मनोरंजन संस्कृति और पूँजी के भूमंडलीकरण के कारण भारतीय भाषाएँ प्रभावित हुई हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि भारतीय भाषाएँ कोई बालू की दीवारें नहीं हैं कि भूमंडलीकरण की फूँकें इसे गिरा दें। वैश्वीकरण के नशे में अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया को अपनी मंडी बनाना चाहते थे, वह बुरी तरह से ध्वस्त हो गई है। दुनिया में भारतीय भाषाओं का ही वर्चस्व होगा और विश्व के कई भाषिक गलियारों में इस यथार्थ को अनुभव भी किया जा रहा है। अब चिंतन, विमर्श एवं तार्किकता का विषय यह है कि विश्व स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी, तकनीकी एवं विज्ञान संबंधी सारे कार्य जो अंग्रेजी में हो रहे हैं, उन सभी कार्यों को हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में हम कैसे करेंगे और अपनी भाषाओं को एकता, सहसंबद्धता, मज़बूती एवं सहभागिता प्रदान करते हुए किन संकल्पों तथा निर्णयों को कार्यान्वित करेंगे। पहल करने की ज़रूरत है, डरने की नहीं; चिंतन एवं निर्णयन की आवश्यकता है, घबराने की नहीं।
- अमरसिंह वधान
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