Devanagari Lipi Ka Udbhav aur Vikas
देवनागरी लिपि का उद्भव तथा विकास
प्राचीन काल में भारत में ब्राह्मी और खोरोष्ठी नाम की लिपियाँ प्रचलित थीं। इनमें से ब्राह्मी राष्ट्रीय लिपि थी क्योंकि इसका प्रचार पश्चिमोत्तर प्रदेश को छोड़कर शेष समस्त भारत में था। देवनागरी आदि आधुनिक भारतीय लिपियों की तरह यह भी बाई से दाहिनी ओर को लिखी जाती थी। पश्चिमोत्तर प्रदेश में खरोष्ठी लिपि का प्रचार था और यह आधुनिक उर्दू लिपि की तरह दाहिनी ओर से बाई को लिखी जाती थी।
भारत की प्राचीन लिपियों में ब्राह्मी लिपि अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसका प्रयोग लगभग चार सौ वर्षों तक होता रहा है। इसके उपरान्त इसकी दो शैलियों का विकास हुआ। 1) उत्तरी शैली 2) दक्किनी शैली। उत्तरी शैली से गुप्त लिपि का उद्भव हुआ। दक्किनीशैली से नन्द नागरी लिपि का उद्भव हुआ।
गुप्त लिपि से कुटिल लिपि का विकास हुआ। कुटिल लिपि से नागरी लिपि का विकास हुआ। दक्षिण की प्रादेशिक लिपियों का विकास देवनागरी लिपि से हुआ। जिसे प्राचीन नागरी कहा गया। कुटिल लिपि ने प्राचीन नागरी लिपि का धारण किया है। जैसे उत्तर पश्चिमी रूप, पश्चिमी रूप, पश्चिमी रूप पूर्वी रूप। पश्चिम रूप विकसित आधुनिक नागरी को ही आज हम देवनागरी लिपि कहने लगे। देवनागरी लिपि का संबंध भारतीय धर्म तथा संस्कृति के साथ है।
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इस लिपि के नागरी नाम देने के कई मत है। गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा प्रयुक्त होने के कारण यह नागरी कहलायी। प्रमुख रूप से नागरों में प्रयुक्त होने के कारण यह नागरी कहलायी। काशी में इसका प्रयुक्त होने के कारण यह नागरी कहलायी। ललित विस्तार में उल्लेखित नाग लिपि ही नागरी कहलायी। इस लिपि का व्यवहार हिन्दी के अतिरिक्त मराठी, नेपाली में होता है। सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक देवनागरी पंजाब से बंगाल तक उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में केरल और श्रीलंका तक व्यापक क्षेत्र में प्रयुक्त होने लगी। ग्यारहवीं शताब्दी से देवनागरी का रूप पूर्ण और स्थिर होने लगा तथा इसकी लोकप्रियता दिन ब दिन बढ़ने लगी। शारदा से वर्तमान काश्मीर की प्राचीन लिपि शारदा विकसित हुई। शारदा से वर्तमान काश्मीरी टाकरी तथा गुरुमुखी लिपियाँ निकली हैं। नागरी लिपि पर फारसी, अरबी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती लिपियों का प्रभाव पड़ा है।
इसका क्षेत्र उत्तर भारत में है। नागरी लिपि का प्रयोग उत्तर भारत में दसवी शताब्दी के प्रारंभ से मिलता है। किन्तु दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में भी यह लिपि आठवीं शताब्दी से पायी जाती है। दक्षिण में संस्कृत पुस्तकों को लिखने में नागरी लिपि का प्रचार है।
देवनागरी लिपि का ध्वन्यात्मक मूल्य अधिक है। इस गुण के कारण इस लिपि ने नये ध्वनि चिह्नों को अपनाकर अन्तर्राष्ट्रीय लिपि की क्षमता प्राप्त की है। इसलिये थोडे विशेष ध्वनि-चिह्नों द्वारा देश विदेश की भाषाओं की ध्वनियों को आसानी से समाविष्ट किया जा सकता है।?
परंतु शिरोरेख लिखना अत्यंत आवश्यक है क्यों कि पूरे शब्द को इकाई के रूप में देखने और उच्चारित करने के शिरोरेखा स्पष्ट के रूप में आती है।
प्राचीन नागरी से ही आधुनिक नागरी गुजराती, महाजनी, राजस्थानी, कैथी, मैथिली, असमिया बंगला आदि लिपियाँ विकसित हुई है।
फारसी के प्रभाव से ड ड़ ढ द
मराठी के प्रभाव से प्र ल ळ, ओ, उ
गुजराती लिपि के चन्द्राकार अंग्रेजी विराम चिह्न जैसे पूर्ण विराम को छोड़कर पूरा-पूरा प्रयोग नागरी लिपि में होने लगा। इन लिपियों के प्रभाव के कारण नागरी लिपि में परिवर्तित हुआ। गुजराती से शिरोरेखा निकालकर लिखने की पद्धति हिंदी में आई है। परंतु महात्मा गाँधीजी तथा काका कालेलकर दोनों ने टाइपराइटर की सुविधा के लिये वर्तमान स्वरों के नाम पर नया रूप प्रदान किया है। उनके अनुसार केवल 'अ' में ही स्वरों की मात्रायें लगाकर इन स्वरों का मूल रूप बोधकरा सकते हैं।
जैसे अ आ हि अी अु अृ और औ और अं अः
नागरी लिपि सर्वश्रेष्ठ लिपि है। देवनागरी लिपि वर्णनात्मक लिपि है। लचीलापन इराकी विशेषता है। यह कलात्मक लिपि है। यह सुंदर और सुगठित है। एक ध्वनि के लिए एक ही चिह्न है। लेखन और पठन में स्पष्टता और सरलता है। नागरी का वर्ण विभाजन अत्यंत वैज्ञानिक है। राष्ट्रीय एकता में नागरी लिपि ने अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यह संसार की भाषाओं की लिपि होने की क्षमता रखती है।
- चवाकुल नरसिंह मूर्ति
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