Electronic Media and Hindi : इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और हिंदी

Dr. Mulla Adam Ali
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Electronic Media and Hindi : Prof. Rishabhdev Sharma

Electronic Media and Hindi

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और हिंदी : प्रो. ऋषभदेव शर्मा

संप्रेषण मानव जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। संप्रेषण के लिए चाहिए होती है भाषा । इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने संप्रेषण के आधुनिकतम स्वरूप का विकास किया है पर इसी के साथ पैदा हुआ है नई तरह का भाषा संकेत। आज इलेक्ट्रॉनिक संचार माध्यम और भूमंडलीकरण एक दूसरे के अपरिहार्य अंग बन गए हैं इसलिए 'भूमंडलीकरण की भाषा' का ही प्रसार होता दिखाई देता है। अन्य भाषाओं के मात्र 'उच्चारिक भाषा' या बोली बनकर रह जाने का खतरा सामने है। भारत के संदर्भ में हम देख ही रहे हैं कि हमारा टी.वी. बोलता भेले ही 'हिंदी' में हो, लिखता 'अंग्रेज़ी' में ही है। अंग्रेज़ी भूमंडलीकरण की भाषा जो ठहरी - रोमन लिपि में लिखकर वह हिंदी के विज्ञापनों का भी भूमंडलीकरण हाथोंहाथ किए दे रही हैं। यह मीडिया का ही दबाव है कि विज्ञापन और वीडियो की ही भाषा में नहीं, युवावर्ग और बाज़ार की बोलचाल में भी हिंदी में अंग्रेजी का मिश्रण भाषा के स्वरूप परिवर्तन की हद तक होने लगा है। इससे हिंदी के व्यावहारिक शब्दकोश का कमजोर पड़ना स्वाभाविक है और यही हमारी चिंता का विषय भी है। कि एक समर्थ भाषा के व्यापक अभिव्यक्ति कोश को इस तरह नाकारा बनाया जा रहा है।

यह प्रवृत्ति सूचनाक्रांति के साथ जुड़ी हुई है। मीडिया के ग्लोबल प्रसार ने सूचना विस्फोट जैसी स्थिति उत्पन्न कर दी है और हिंदी के ऊपर यह जिम्मेदारी आ पड़ी है कि दस वर्षों में तेजी से फूट पड़े ज्ञान के इस वैश्विक प्रवाह को वह सँभाल कर दिखाए। हिंदी अपने विभिन्न वैविध्य विकसित करके इस विस्फोट को सँभाल कर दिखा रही है सूचना, ज्ञान-विज्ञान और मनोरंजन के विविध क्षेत्रों और स्तरों के अनुरूप हिंदी के विविध विषय केंद्रित भाषा रूपों की छवि अलग-अलग टी. वी चैनलों के अलग अलग कार्यक्रमों की अलग-अलग भाषा के रूप में किए जा सकते हैं हिंदी की धारण-शक्ति और अभिव्यक्ति क्षमता का सबसे जीवंत प्रमाण आज का वैश्विक संचार तंत्र है।

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इसमें संदेह नहीं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने आज हमारे जीवन को पूरी तरह अपने अत्यंत जटिल और व्यापक सूचना - संजाल में समेट लिया है। आज राजनीति, समाज व्यवसाय और साहित्य सभी क्षेत्रों में संचार तंत्र का बोलबाला है। किसी भी समाज की ताकत आज अन्य संसाधनों के अलावा संचार तंत्र की ताकत पर निर्भर दिखाई देती है। इस तंत्र में सदा से झूठ को सच और सच को झूठ बनाने की खतरनाक प्रवृत्ति भी निहित रही है भाषा के संदर्भ में जहाँ इसका एक प्रभाव कम प्रसारवाली भाषाओं को निगल जानेवाला रहा है, वहीं जिन भाषाओं का प्रयोक्ता - समाज बड़ा है (और निश्चय है हिंदी उनमें से प्रथम तीन में शामिल है), उनके लिए यह बहुत श्रेयस्कर भी है। इससे प्रकाशन जगत में नई क्रांति आई है। पुस्तकों की उपलब्धता के बढ़ने से शिक्षा के विकास कार्यक्रमों का तो प्रसार हुआ ही है, दुनिया भर में बौद्धिक क्षेत्र की हलचलों के प्रभाव की गति भी आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है। स्त्रियों, दलितों, वंचितों, युद्धबंदियों, असहाय नागरिकों और वृद्धों के संबंध में एक नई जागृति मीडिया और भाषा के गठजोड़ से ही दिखाई देने लगी है। इसका प्रभाव साहित्य पर भी अनिवार्यतः पड़ रहा है।

माध्यम और भाषा परस्पर जुड़े हैं। जन-संप्रेषण के लिए सदा जनभाषा की ज़रूरत रही है। जनभाषा हिंदी की विकास यात्रा के इतिहास के आधार पर हम जानते हैं कि व्यापक जनगण अथवा लोक तक पहुंचने के लिए या कोई बड़ा जनांदोलन चलाने के लिए सदा जनता की भाषा ही कारगर होती है। बुद्ध हों या महावीर, गोरख हों या कबीर, सूर हों या तुलसी, दयानंद हों या गांधी, भारतेंदु हों या प्रेमचंद जनसंचार के लिए सबको जनभाषा के निकट आना पड़ता है। अब आज का संदर्भ लें। व्यापक भारत के लोकमानस में यदि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपने उत्पाद की पैठ बनानी है तो वह अंग्रेजी के सहारे इस उद्देश्य में सफल नहीं हो सकती। इसके लिए उस भारतीय भाषाओं और विशेषकर अधिसंख्य भारतीयों की भाषा हिंदी का ही सहारा लेना पड़ेगा। यह बात भूमंडलीकरण की विधाता कंपनियों की समझ में आ गई है और उन्होंने भारतीय जनता को भारतीय भाषाओं में ही संबोधित करना आरंभ कर दिया है। अब वह दिन दूर नहीं जब इंटरनेट पर धीरे-धीरे हिंदी की वेबसाइट भी अपना सिक्का जमा लेंगी। यह सब हो रहा है। लेकिन इसमें भारत की सरकार या उसके राजभाषा विभागों का योगदान नगण्य है।

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भारतीय जनता को आज सरकार पर दबाव बनाना होगा कि सारे ज्ञान-विज्ञान और साहित्य वाड.मय को यथाशीघ्र इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भारतीय भाषाओं यथासंभव हिंदी, में उपलब्ध -- कराया जाए। आज हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद के जो सॉफ्टवेयर उपलब्ध हैं, उन्हें और भी विकसित करके मुक्त रूप से (मुफ़्त) इंटरनेट पर उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इससे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग बढ़ेगा। विश्वभाषा के रूप में हिंदी तभी जीवित रहेगी जबकि वह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अंतरर्राष्ट्रीय बाज़ार की चुनौती का सामना कर सकेगी।

भाषा सदा गतिशील होती है। मीडिया ने उसे और अधिक त्वरा प्रदान कर दी है। नई-नई ज़रूरतों के अनुरूप शब्द, वाक्य और अभिव्यक्ति चुनने तथा वाक्य संयोजन की विधियों को भी विकसित करते रहना होगा। ऐसा करके ही हिंदी व्यापक जनमत का निर्माण करनेवाली भाषा बन सकती है क्योंकि उसकी पैठ व्यापक जनसंख्या तक है और मीडिया की मजबूरी है कि वह इतनी व्यापक पैठवाली भाषा की उपेक्षा नहीं कर सकता। इसीलिए चाहे विकास के कार्यक्रम हो अथवा जन शिक्षण के चाहे विज्ञापन हो या समाचार चाहे मनोरंजन हो या इतिहास - मीडिया को सरल, अर्थपूर्ण और विषयवस्तु की प्रवृत्ति के अनुकूल भाषा की तलाश रहती है। हिदी ने व्यवहार क्षेत्र की इस बहुविध व्यापकता के अनुरूप अपने को ढालकर अपनी भाषिक संचार क्षमता का विकास बहुत तेज़ी से कर दिखाया है। यही कारण है कि आज अंतर्राष्ट्रीय चैनलों में हिंदी फैशन से लेकर विज्ञान और वाणिज्य तक सब प्रकार के आधुनिक संदर्भों को बखूबी व्यक्त कर रही है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि हिंदी की वास्तविक शक्ति को उभारने में संचार माध्यमों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जहाँ आज भी एक ओर लेखन की भाषा संस्कृतनिष्ठता के आग्रह से जुड़ी है, वहीं संचार माध्यम की भाषा जनस्वीकृति के आग्रह से जुड़ी होने के कारण जनभाषा के अधिक निकट है। विषय क्षेत्र के अनुरूप विविध प्रकार की मिश्रित भाषाओं का विकास करने में टी.वी. धारावाहिकों की भूमिका भी निर्विवाद है जिन्होंने जनभाषा के पौराणिक से लेकर जासूसी धारावाहिकों तक के अनेक चेहरे गढ़ डाले हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाचक्र के समाचार - विश्लेषण संबंधी कार्यक्रमों में भी भाषामिश्रण की छटा देखते ही बनती है। इनकी भाषा में तत्समता और सरलीकरण का संतुलन भी दृष्टव्य है।

आज ज़रूरत है कि हिंदी के व्यापक उपभोक्ता समाज की संख्या को ध्यान में रखते हुए हिंदी में 'डेटाबेस' विकसित किए जाएँ, हिंदी में वेबसाइट पर विभिन्न विषयों के शब्दकोश और विश्वकोश उपलब्ध हों, वैज्ञानिक चैनलों के साथ-साथ आध्यात्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक, चैनल भी हिंदी में, और भारतीयता को उभारने के दृष्टिकोण से स्थापित किए जाए। इस सारी तैयारी के साथ हिंदी वैश्वीकरण और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की संयुक्त चुनौती का सामना कर सकती है, इसमें संदेह नहीं।

- प्रो. ऋषभदेव शर्मा

पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष,
उच्च शिक्षा और शोध संस्थान,
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद।
आवास : 208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स,
गणेश नगर, रामंतापुर,
हैदराबाद-500013 (भारत)

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