हिंदी भाषा के परिष्कार में ‘हिंदी प्रदीप’ का योगदान
- राजेन्द्र वर्मा
हिंदी भाषा के उन्नयन और परिष्कार में बालकृष्ण भट्ट (03.06.1844 - 20.07.1914) का योगदान अद्वितीय है। विपुल साहित्य की सर्जना के साथ-साथ उन्होंने ‘हिंदी प्रदीप’ नामक मासिक पत्र निकाला, जो सितम्बर 1877 से अप्रैल 1909, लगभग 32 वर्षों तक चला। यह पत्र वस्तुतः हिंदी प्रवर्धिनी समिति, प्रयाग का मुखपत्र था, जिसकी स्थापना भट्टजी ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए 1876 में की थी। भारतेंदुजी की ‘कविवचन सुधा’ (अगस्त 1867 – अक्तूबर 1873) के बाद ‘हिंदी प्रदीप’ ने दो महत्त्वपूर्ण दायित्व सँभाले— एक, पाठकों में राष्ट्रीय चेतना जगाते हुए सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी और दो, हिंदी भाषा के मानक रूप की नींव डाली। इस प्रसंग में, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का कथन है कि ‘हिंदी प्रदीप’ गद्य साहित्य का ढर्रा निकालने के लिए ही निकाला गया था। पत्र के महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसका उद्घाटन भारतेंदु हरिश्चंद ने किया था और उसके मुखपृष्ठ पर उनका यह छन्द छपा रहता था—
शुभ सरस देश सनेह पूरित, प्रगट ह्वै आनंद भरै।
बचि दुसह दुर्जन वायु सो, ‘मणि दीप’ सम थिर नहिं टरै।
सूझै विवेक विचार उन्नति, कुमति सब यामैं जरै।
‘हिंदी प्रदीप’ प्रकाश मूरख तादि भारत तम हरै॥
पत्र में भट्ट जी के अपने निबंधों के अतिरिक्त, भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ-साथ उनके मंडल के लेखकों की रचनाएँ छपती थीं। इन लेखकों में, अम्बिकादत्त व्यास, प्रतापनारायण मिश्र, राधाचरण गोस्वामी, रतनचंद्र प्लीडर, महामना मदनमोहन मालवीय, श्रीधर पाठक, बालमुकुंद गुप्त, किशोरीलाल गोस्वामी, महावीरप्रसाद द्विवेदी, महादेवप्रसाद सेठ (मतवाला के संपादक), अनंतराम पांडेय, ईश्वरीप्रसाद शर्मा, उदयराम पंड्या (शर्मा), कामता प्रसाद शर्मा, काशीप्रसाद जायसवाल, गदाधर मालवीय, गदाधर सिंह, गयाप्रसाद मिश्र, पुरुषोत्तम दास टंडन ‘अगम सरन’, माधव शुक्ल, मदनमोहन शुक्ल आदि सम्मिलित हैं। कवियों में, भारतेंदु हरिश्चंद्र, अम्बिकादत्त व्यास, लाला भगवानदीन ‘दीन’, केदार शर्मा, राधाकृष्ण, आत्माराम संन्यासी, सरयूप्रसाद मिश्र, शिवराम पंड्या, लोचनप्रसाद पांडेय, परसन कवि आदि इस पत्र में नियमित छपते थे।
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इस प्रकार, ‘हिंदी प्रदीप’ तत्कालीन लेखकों का प्रेरणास्रोत बना और भट्टजी हिंदी के दूसरे प्रवर्तक कहलाए। यों, पत्र में गद्य और पद्य की विभिन्न विधाएँ छपती थीं, लेकिन उनमें निबंधों और लेखों की प्रमुखता होती थी। इन लेखों के लेखकों में, प्रतापनारायण मिश्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, मदनमोहन मालवीय, महादेवप्रसाद सेठ, ब्रजमोहन कूल, बाबादीन शुक्ल, अनंतराम पांडेय, ईश्वरीप्रसाद शर्मा, काशीप्रसाद जायसवाल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। उदाहरण के लिए, प्रतापनारायण मिश्र दो निबंध, ‘कलयुग ककहरा’ और ‘पतिव्रता’ सितम्बर 1885 और अगस्त 1888 अंक में छपे। महावीरप्रसाद द्विवेदी के तीन लेख, ‘मेघमाला प्रति चंद्रिकोक्ति’, ‘राजा लक्ष्मण सिंह’ और ‘मलिका जमानी’ क्रमशः अप्रैल-जून 1900, सितम्बर 1900 और सितम्बर 1905 के अंकों में छपे। श्यामसुंदर दास का लेख, ‘सोहागा’ मार्च 1899 अंक में प्रकाशित हुआ। अन्य महत्त्वपूर्ण निबंधों और लेखों में, मुहम्मद अब्दुल रऊफ़ का हिंदू-मुस्लिम एकता पर आधारित निबंध, ‘मेल-मिलाप’ (मई 1899), और नारी-जागरण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से प्रकाशित स्वर्णकुमारी का निबंध, ‘धर्म’ (नवम्बर 1884) और सावित्री देवी के निबंध, ‘स्त्रियों का कर्त्तव्य’ (जुलाई 1907) और ‘भारत क्यों भारत’ (नवम्बर-दिसम्बर 1908) आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
इन पुरोधा लेखकों के राजनीतिक व सामाजिक निबंध-लेख और जीवनीपरक लेख इस पत्र में छपते ही थे, गद्य की अन्य विधाओं, जैसे— उपन्यास, कहानी, नाटक, रूपक, प्रहसन, यात्रा-वृतांत, संस्मरण, पत्र, पुस्तक-समीक्षा को जनता के सम्मुख लाने का श्रेय भी इसको है। उदाहरण के लिए, रतनचंद्र प्लीडर का उपन्यास, ‘नूतन चरित्र’ मार्च से अगस्त 1883 के अंकों में धारावाहिक रूप में छपा। उनका ही नाटक, ‘न्याय सभा’ अक्तूबर 1887 से जून 1888 के अंकों में छपा। महादेवप्रसाद सेठ का उपन्यास, ‘भाग्य की परख’ जुलाई-अगस्त 1895 से लेकर जनवरी-अप्रैल 1896 के अंकों में छपा। राधाचरण गोस्वामी का रूपक, ‘भारतवर्ष में यवन लोग’ मार्च 1879 अंक में छपा। जहाँ तक यात्रा-वृतांतों के प्रकाशन का प्रश्न है, गदाधर सिंह के यात्रा-वृतांत और संस्मरणात्मक लेख नवम्बर 1907 से फरवरी 1908 तक के अंकों में प्रकाशित हैं, जिनके शीर्षक हैं : समुद्र यात्रा क्यों निषिद्ध है, जापानी जातीय जीवन के उपरांत पाँच आज्ञाएँ। ताराचंद द्विवेदी का अमरकंटक की यात्रा पर आधारित लेख, ‘अमरकंटक’ फरवरी 1907 के अंक में प्रकाशित है।
पद्य के अंतर्गत, अनेकानेक कवियों के कवित्त, दोहे, कुंडलियाँ, ग़ज़ल, समस्यापूर्ति, पहेली आदि निरंतर छपते रहे। दिसम्बर 1877 के अंक में भारतेंदु हरिश्चंद्र के लगभग सौ दोहे प्रकाशित हुए। बच्चूराम की ग़ज़ल और समस्यापूर्ति अगस्त 1885 के अंक में छपी। अम्बिकादत्त व्यास का ‘द्रव्य स्तोत्रम’ अक्तूबर 1882 में इस पत्र में छपा, जो व्यंग्य शैली की कविता का अनुपम उदाहरण है। मार्च 1979 अंक में ‘होली के कबीर’ शीर्षक से चुटीले दोहे प्रकाशित हुए। केदार शर्मा के कवित्त जनवरी-अप्रैल 1904 में छपे। ईश्वरीप्रसाद शर्मा की कुंडलियाँ (अन्योक्तियाँ शीर्षक से) पत्र के अंतिम अंकों (वर्ष 1909) में प्रकाशित हैं। पुरुषोत्तमदास टंडन की प्रसिद्ध रचना, ‘बंदर-सभा’ अगस्त 1905 में छपी।
इसके अलावा, ‘हिंदी प्रदीप’ में, संस्कृत और बांग्ला से अनूदित रचनाएँ भी प्रकाशित होती रहीं, यथा— संस्कृत की अमर कृति, ‘मेघदूतं’ का धारावाहिक अनुवाद नवम्बर 1877 से जनवरी 1878 तक प्रकाशित हुआ। इसी दौरान ‘वाल्मीकि रामायण’ का अनुवाद भी छपा। शूद्रक कृत ‘मृच्छकटिकं’ का हिंदी अनुवाद भी धारावाहिक रूप में सितम्बर 1880 से अगस्त 1881 तक छपा। इसका अनुवाद गदाधर मालवीय जी ने किया था जो मदनमोहन मालवीय के चाचा थे। बांग्ला के विख्यात लेखक, मैकल मधुसूदन के नाटक, ‘शर्मिष्ठा’ का अनुवाद मार्च 1880 के अंक में छपा था। अनुवादकर्ता थे— श्यामाचरण शुक्ल जी। इसी प्रकार, एक और बंग नाटक का हिंदी अनुवाद ‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं’ शीर्षक से मार्च 1879 में छपा, जिसे राधाचरण गोस्वामीजी द्वारा अनूदित किया गया था।
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‘हिंदी प्रदीप’ में ललित निबंधों सहित वैचारिक निबंधों की नियमित आपूर्ति होती रहे, इस लिहाज से भट्ट जी ने अपने निबंधों को भी इसमें प्रकाशित किया। उन्होंने हज़ार के लगभग निबंध लिखे और अधिकांश ‘हिंदी प्रदीप’ में प्रकाशित किए। उनके कुछ निबंधों को हमने स्कूली कक्षाओं में पढ़ा है। वहीं से हमने निबंधों में समाहित बहुआयामी चिंतन के साथ-साथ लोककल्याण की भावना की पैठ भी देखी-समझी है। सामाजिक कुरीतियों पर चोट कैसे की जा सकती है, यह भी इन निबंधों से सीखी है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आज के प्रचलित व्यंग्य-निबंधों का उत्स ‘हिंदी प्रदीप’ के ही निबंध हैं। इन निबंधों में भाषा की तीनों शक्तियाँ— अभिधा, व्यंजना और लक्षणा विद्यमान हैं। भाषा-शैली की दृष्टि से भट्ट जी ने अपने निबंधों में तीन प्रकार की भाषा-शैलियाँ अपनायीं— एक, तत्सम शब्दों का भरसक प्रयोग जिसमें प्रसंगानुसार संस्कृत के श्लोक आदि के उद्धरण थे; दो, बोलचाल की वह भाषा जिसमें उर्दू-फ़ारसी और अंग्रेज़ी के शब्द और हिंदी की प्रचलित लोकोक्तियाँ और मुहावरे हैं। तीसरी शैली के अंतर्गत उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों के प्रयोग से गद्य-काव्य की रचना की। एक हिसाब से, हिंदी में गद्य-काव्य की परम्परा भट्टजी के ‘हिंदी प्रदीप’ से ही शुरू होती है। उनके ललित निबंधों से ‘हिंदी प्रदीप’ स्वयं समृद्ध होता ही था, वह अन्य गद्यकारों को प्रेरणा भी देता था जिसके कारण सामाजिक और राजनीतिक चिंतन को लक्षित सैकड़ों निबंध लिखे गए जो कालांतर में हिंदी साहित्य की धरोहर बन गए। इस प्रकार, धीरे-धीरे भाषा-शैली की दृष्टि से भी हिंदी साहित्य सम्पन्न हुआ।
जहाँ तक ‘हिंदी प्रदीप’ में भट्ट जी के निबंधों के प्रकाशन का प्रश्न है, उनके अधिकांश निबंध पत्र में प्रकाशित हुए, जैसे— नवम्बर 1885 अंक में उनका ‘सूर्योदय’ नामक निबंध। इसका एक अंश देखिए, जिसमें भावों-विचारों के साथ कल्पना का अद्भुत समन्वय है। मानवीकरण, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि से सजा यह बिल्कुल गद्य काव्य-सा लगता है—
देखो सूर्य का उदय हो गया। अहा ! इसकी शोभा इस समय ऐसी दिखाई पड़ती है मानो अन्धकार को जीतने को दिन ने यह गोला मारा है अथवा प्रकाश का यह पिंड है या आकाश का कोई बड़ा लाल कमल खिला है। लोगों के शुभाशुभ कर्म के खराद का यह चक्र है अथवा चन्द्रमा के रथ का पहिया है, घिसने से लाल हो गया है। अथवा, काल के निर्लेप होने का सौगंध खाने का यह तपाया हुआ लोहे का गोला है, अथवा उस बड़े अतिशबाज का, जिसने रात को अद्भुत गंज सितारा छोड़ा था; यह दिन का गुब्बारा है, वा यह एक लाल व्योमयान (बैलून) है जो समय को लिए इधर-उधर फिरा करता है वा संसारियों के दिन के काम पर जो अनुराग है, यह उसका समूह है या रात को सुख पाने वाली, दिन को वियोगिनी होने वाली स्त्रियों की वियोगाग्नि का कुंड है वा पूर्व दिशा का माणिक्य का शीशफूल है वा काल खिलाड़ी का लाल पतंग है। (नवम्बर, 1885)
इसी क्रम में, ‘चंद्रोदय’ नामक निबंध के अंश भी द्रष्टव्य हैं। इसमें भी गद्य का लालित्य देखते बनता है—
अँधेरा पाख बीता, उजेला पाख आया। पश्चिम की ओर सूर्य डूबा और वक्राकार हँसिया की तरह उसी दिशा में चद्रमा दिखलाई पड़ा। मानो कर्कशा के समान पश्चिम दिशा सूर्य के प्रचंड ताप से दुखी हो क्रोध में आ इसी हँसिया को लेकर दौड़ रही है और सूर्य भयभीत हो पाताल में छिपने के लिए जा रहा है। अब तो पश्चिम ओर आकाश सर्वत्र रक्तमय हो गया। क्या सचमुच ही इस कर्कशा ने सूर्य का काम तमाम किया जिससे रक्त यह निकला, अथवा सूर्य भी क्रूर हुआ जिससे उनका चेहरा तमतमा गया और उसी की यह रक्त आभा है? या अंधकार महाराज के हटाने का अंकुश है; या विरहिणियों के प्राण कतरने की कैंची है; अथवा शृंगार रस से पूर्ण पिटारे के खोलने की कुंजी है; या तारामौक्तिकों से गुंथे हार के बीच का यह सुमेर है, अथवा जंगम जगत् मात्र को डसने वाले अनंगभुजंग के फन पर का चमकता हुआ मणि है; या निशा-नायिका के चेहरे की मुस्कराहट है या सँध्यानारी की कामकेलि के समय में उसकी छाती पर लगा हुआ नखक्षत है; अथवा जगज्जेता कामदेव का धब्बा है, या तारामोतियों की दो सीपियों में से एक सीपी है।+++ यह गोल-गोल प्रकाश का पिंड देख भाँति-भाँति की कल्पनाएँ मन में उदय होती है कि क्या यह निशा अभिसारिका के मुख देखने की आरसी है या उसके कान का कुंडल अथवा फूल है ! यह रजनी रमणी के ललाट पर दुक्के का सफ़ेद तिलक है।
‘हिंदी प्रदीप’ में ही प्रकाशित उनके एक निबन्ध, कणाद दर्शन में तत्सम शब्दावली में वैज्ञानिक भाषा का सफल प्रयोग द्रष्टव्य है -
पृथ्वी,जल, तेज, वायु का नित्य और अनित्य भेद दो प्रकार के हैं। सम्पूर्ण ब्रमांड के नष्ट हो जाने पर भी ये चारों पदार्थ परमाणु रूप में बने रहते हैं। सृष्टि के समय वही सब परमाणु एकत्र हो अलग-अलग पृथ्वी, जल आदि अतुल रूप में हमको बोधगम्य होते हैं। सूर्य की किरण का संपर्क पाय झरोखे के निकट जो सूक्ष्म पदार्थ दीख पड़ता है उसे त्रसरेणु कहते हैं। उसको तीन बराबर टुकड़ों में विभाग करने से द्वयांडक को बराबर अंश में विभक्त करने से एक अंश को परमाणु कहते हैं। (जनवरी 1882)
‘प्रदीप’ में प्रकाशित सामाजिक निबंधों में यथार्थ का चित्रण है हृदयग्राही है। बहुवर्णनशीलता विषयवस्तु के सभी पहलुओं पर सम्यक विचार करती है। भाषा बोलचाल की है, लेकिन उसका चुटीलापन चित्त को प्रसन्न करता है। हास्य गुदगुदाता है, तो व्यंग्य चिकोटियाँ काटता है। रसानुभूति ऐसी कि जैसे कानों में मिसरी घुले... गरज़ यह कि निबन्धों को उनकी भाषा-शैली के बिना पर ही पाठक उसे बिना पढ़े न रह पाए! बोलचाल की भाषा का एक उदाहरण देखिये। यह बातचीत नामक निबंध से लिया गया है, जो ‘प्रदीप’ के अगस्त 1891 के अंक में छपा था। तत्सम में रँगी इसकी बोलचाल की भाषा में अंग्रेज़ी का ‘फॉर्मेलिटी’ भी है और ‘लच्छे में सनी हुई’ अथवा, ‘राम-रमौवल’ जैसे देशज मुहावरे भी—
जैसे गरम दूध और ठंडे पानी के दो बर्तन पास-पास सटाके रखे जायें, तो एक का असर दूसरे पर पहुँचता है- अर्थात् दूध ठंडा हो जाता है और पानी गरम! वैसे ही, दो आदमी आस-पास बैठे तो एक का गुप्त असर दूसरे पर पहुँच जाता है। चाहे एक दूसरे को देखे भी नहीं, तब बोलने की कौन कहे; पर एक का दूसरे पर असर होना शुरू हो जाता है। एक के शरीर की विद्युत दूसरे में प्रवेश करने लगती हैं। अब पास बैठने का इतना असर होता है तो बातचीत में कितना अधिक असर होगा, इसे कौन न स्वीकार करेगा। जब चार आदमी हुए, तब बेतकल्लुफी को बिलकुल स्थान नहीं रहता। खुल के बातें न होंगी, जो कुछ बातचीत की जायगी, वह 'फार्मेलिटी', गौरव और संजीदगी के लच्छे में सनी हुई। चार से अधिक की बातचीत तो केवल राम रमौवल कहलायेगी।
हिंदी साहित्य के परवर्ती निर्माताओं, महावीरप्रसाद द्विवेदी, निराला, हजारीप्रसाद द्विवेदी, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर, धर्मवीर भारती, कुबेरनाथ, विद्यानिवास मिश्र आदि को ‘प्रदीप’ की रचनाओं से अवश्य ही प्रेरणा मिली है। परसाई, जोशी, त्यागी, मनोहरश्याम जोशी जैसे हिंदी के ख्यातलब्ध व्यंग्यकारों में जो खिलंदड़ी भाषा मिलती है, उसकी कल्पना ‘प्रदीप’ की रचनाओं से गुज़रे बिना नहीं की जा सकती।
‘हिंदी प्रदीप’ में प्रकाशित निबंध, नाटक, उपन्यास आदि से हिंदी का जो स्वरूप निर्धारित हुआ, वह कालांतर में मानक बन गया। विषय के अनुरूप गद्य के भाषा-विन्यास की जो परम्परा इस पत्र ने डाली, वह आज भी चल रही है और हम उससे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। हमारा पथ-प्रदर्शन करती ये रचनाएँ आज विभिन्न रचनावलियों में उपलब्ध हैं। इनसे हिंदी का साहित्य समृद्ध हुआ है और भाषा को नई ऊँचाई मिली है।
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‘हिंदी प्रदीप’ ने हिंदी भाषा के लिए भी लम्बी लड़ाई लड़ी। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने 1878 में वर्नाकुलर प्रेस ऐक्ट पास किया जिसके तहत भारतीय प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। पत्र ने इस ऐक्ट की का तर्कपूर्ण विरोध पत्रकारिता का मार्ग प्रशस्त किया था। भट्ट जी ने पत्र के संपादकीय अग्रलेख, ‘हम चुप न रहें’ से इस ऐक्ट के विरोध में आन्दोलन करने का आग्रह किया। इसका भारी जनसमर्थन भी मिला और तमाम पत्रों के सम्पादक भी साथ आ गए। नतीज़ा यह हुआ कि जल्द ही सरकार को यह ऐक्ट वापस लेना पड़ा। इसके अलावा, देवनागरी लिपि को न्यायालय-लिपि और कार्यालय-लिपि की मान्यता प्रदान कराने में भी हिन्दी प्रदीप का योगदान रहा है। अपने प्रकाशन के प्रारम्भ से ही पत्र की नीति प्रचारित हुई और इस बात पर ज़ोर दिया गया कि सरकारी काम-काज में अगर हिन्दी भाषा का प्रयोग होना सम्भव न हो तो कम-से-कम देवनागरी लिपि का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए, क्योंकि उस समय काम-काज की भाषा अंग्रेज़ी और उर्दू थी जिसकी लिपि फ़ारसी थी। लेकिन लम्बे संघर्ष के बाद भी कोई सकारात्मक परिणाम न निकला। अंततः इस पर ज़ोर दिया गया कि भाषा भले उर्दू रहे, पर लिपि, यानि अक्षर हमारे हो जाएं, तो हम (हिंदी) और वे (उर्दू) दोनों मिलकर एक साथ अपनी तरक्की कर सकते हैं। भट्ट जी इस बात को समझते थे कि उस समय जिसे हिंदी कहा जाता था, वह वास्तव में उर्दू ही थी जो आम जनता में प्रचलित थी। यही भाषा आगे चलकर हिंदी कहलाई और आज की राजभाषा बनी।
‘हिंदी प्रदीप’ निर्भीक पत्रकारिता के क्षेत्र में अग्रणी रही। देशहित में जो भी वैचारिक लेख छपने चाहिए होते थे, छपते थे। इनमें अधिकतर लेख तत्कालीन अंग्रेजी सरकार की मनमानी नीतियों और कार्य-शैली के विरुद्ध होती थीं। लेकिन इसकी निर्भीकता ब्रिटिश सरकार बर्दाश्त न कर सकी और अंततः माधव शुक्ल की कविता, 'बम क्या है' (अप्रैल 1909) अंग्रेज सरकार को चुभ गयी और उसने पत्र पर तीन हजार रुपये का जुर्माना लगा दिया। दुखद आश्चर्य की बात है कि अनेक धनाड्य राष्ट्रवादियों के चलते हिंदी की ग़रीब दुनिया यह जुर्माना न भर सकी और ‘हिंदी प्रदीप’ की लौ हमेशा के लिए बुझ गयी। लेकिन उसमें प्रज्वलित निबंध साहित्य की लौ से हिंदी का गद्य संसार आज भी प्रकाश पाता है और पाता रहेगा।
- Rajendra Verma
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