Father Camille Bulcke : The Belgian Who Loved Hindi
हिंदी के महान साधक बाबा कामिल बुल्के
बेल्जियम के एक पादरी, ईसाई धर्म के प्रचारक, तुलसीदास के भक्त, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. के लिए स्वीकृत हिन्दी में लिखे प्रथम शोध प्रबंध के प्रणेता एवं अनन्य हिन्दी सेवी बाबा कामिल बुल्के का नाम भारतीय साहित्य में इसलिए आदर के साथ लिया जाता है कि वे विदेशी, अहिन्दी भाषी होते हुए भी हिन्दीमय हो गए और इस देश की मिट्टी व इसके साहित्य में रच-बस गए।
इसकी पुष्टि इस तथ्य से सहज ही हो जाती है कि 1975 में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने नागपुर आए उनके एक सुपरिचित साहित्यकार ने जब उनसे "गुड मॉर्निंग फ़ादर" कहा तो फादर कामिल बुल्के ने तमतमाते शब्दों में कहा, "आप हिन्दी के साहित्यकार होते हुए भी हमसे अंग्रेजी में बोलते हैं।" कामिल बुल्के का विश्वास था कि जब तक भारत के लोग हिन्दी का सम्मान नहीं करेंगे, हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान नहीं मिलेगा।
यूं तो फादर कामिल बुल्के ने 21 वर्ष की आयु में ही अभियांत्रिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त करके आईस्टीन के सापेक्षवाद को समझने के लिए उच्च गणित का भी अध्ययन किया। किन्तु, कामिल बुल्के का जीने के पीछे कुछ और ही तर्क था। उन्होंने चर्च में जाकर यीशु के चरणों में जीवन समर्पण का निर्णय ले लिया। बुल्के की माता को यह आभास था कि उनका बेटा धर्म प्रचारक होगा और साधू जीवन व्यतीत करेगा। अपने छात्र जीवन में कामिल बुल्के ने भारत के विषय में पुस्तकों में पढ़ा था और कैथोलिक पादरियों से भारत का वर्णन सुना था। इसलिए उनके मन में भारत के प्रति सहज आकर्षण उत्पन्न हो गया था। भारत आने की लालसा पूरी करने के लिए उन्होंने धर्म प्रचारक बनना स्वीकार कर लिया और विवाह बंधन में न फंसने का निर्णय लेकर 1935 में रोमन कैथोलिक संघ के धर्म प्रचारक बन कर भारत आ गए।
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भारत प्राचीन देश है यह तो उन्हें पुस्तकों से विदित हो गया था। किन्तु भारत अनेक भाषाओं, अनेक धर्मों, अनेक जातियों, सम्प्रदायों एवं विविध रीति-रिवाजों का देश है, यह उन्हें भारत आने पर ही मालूम हुआ। कामिल बुल्के बातचीत के संदर्भ में इस बात को अनेक बार कहा करते थे कि अनेकता में एकता की जैसी विशेषता भारत में है, विश्व के किसी अन्य देश में सम्भव नहीं है। बेल्जियम की पत्तेमिश भाषा में पारंगत कामिल बुल्के अंग्रेजी सीखकर भारत आये थे, किन्तु शीघ्र ही उन्होंने अनुभव किया कि भारत की जनता के साथ सम्पर्क स्थापित करने और भारत के जन जीवन को समझने में अंग्रेजी का अवलम्ब सहायक नहीं हो सकता। दर्शनशास्त्र में एम. ए. की उपाधि गियोरियन विश्वविद्यालय से प्राप्त कामिल बुल्के कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी.ए., परीक्षा में प्रवेश लिया।
इस प्रवेश का तात्पर्य केवल भारत की भाषाओं से प्रत्यक्ष परिचय प्राप्त करना था। बी.ए. करने के बाद उनका ध्यान हिन्दी भाषा का गंभीर ज्ञान प्राप्त करने की ओर गया और उन्होंने इलाहाबाद से हिन्दी विषय लेकर 1946-47 में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। प्रयाग में उस समय डॉ. धीरेन्द्र वर्मा, डॉ. माता प्रसाद गुप्त, डॉ. रमाशंकर शुक्ल, रसाल आदि विद्वान अध्यापन कार्य करते थे। रामचरित मानस पढ़ते समय कामिल बुल्के का ध्यान उन जीवन मूल्यों की ओर आकृष्ट हुआ जो समस्त मानव जाति के लिए मंगलमय हो सकते हैं। फलतः गोस्वामी तुलसीदास को वे अपना गुरु स्वीकार करने लगे । कामिल बुल्के कहा करते थे कि जब मैं रामचरित मानस का पाठ करता हूं तो मेरे आराध्य प्रभु ईसा मसीह मुझे रामचन्द्र के रूप में मिल जाते हैं। श्री रामचंद्र की रुप-गुण-शील समन्वित मूर्ति मेरे अन्तर में प्रभु ईसा को साक्षात मूर्तिमान कर देती है। उस समय रामचरित्र मात्र पौराणिक कथानक न रहकर मुझे बाइबिल के समान उदार धर्मग्रंथ ही लगता है।
रामचरित मानस से प्रभावित होने के कारण उन्होंने अपने शोध का विषय "रामकथा उत्पत्ति और विकास" रखा। डॉ. धीरेन्द्र वर्मा ने इस विषय की कठिनाइयों का फादर बुल्के को ज्ञान करा दिया था और भलीभांति समझा दिया था कि इस विषय की छानबीन करने के लिए भारत से बाहर के अनेक देशों में भी यात्रा करनी होगी। हिन्दी के अतिरिक्त देश विदेश की - अनेक भाषाओं का ज्ञान अर्जन करना होगा। संस्कृत के अनेक मूल ग्रंथों का अनुशीलन अनिवार्य होगा। फादर बुल्के ने सब प्रकार की कठिनाइयों को भलीभांति समझ कर ही इस विषय को अपने अनुसंधान के लिए चुना था। जब कार्य पूरा हो गया और ग्रंथ प्रकाशित हो गया, पाठकों के लिए सुलभ हुआ तो फादर कामिल बुल्के की लगन, साधना, परिश्रम, योग्यता और प्रतिभा का हिन्दी जगत में सिक्का जम गया। भारत के बाहर भी इस ग्रंथ का हार्दिक स्वागत हुआ और शीघ्र ही इसे शोध का स्तरीय मानक ग्रंथ माना गया।
एक विदेशी विद्वान ने रामकथा को समझने के लिए भारत भूमि को समझना आवश्यक माना और इसीलिए उन्होंने भारत की राष्ट्रीयता स्वीकार कर भारत को ही अपनी कर्मभूमि बनाना उचित समझा। यूरोपीय विद्वानों में हिन्दी भाषा को अपने समग्र कृतित्व का माध्यम बनाने वाले डॉ. बुल्के पहले विद्वान हैं। जिन विद्वानों ने हिन्दी की अच्छी सेवा की है, उनमें से अधिकतर ने अंग्रेजी को ही अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम रखा था। जॉन गिलक्राइस्ट, अब्राहम ग्रियर्सन, जॉन बीम्स, पिनकॉट आदि अनेक हिन्दी प्रेमी विदेशी विद्वानों की तालिका हमारे सामने है। किन्तु इनमें एक भी विद्वान ऐसा नहीं है, जिसने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम पूर्ण रूप से हिन्दी को बनाया हो । डॉ. बुल्के बहुभाषाविद् थे। फ्लैमिश, अंग्रेजी आइरिश, फ्रेंच, जर्मनी आदि भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार था । किन्तु उन्होंने भारतीय बन जाने पर भारतीय भाषा में ही कामकाज करना अपना धर्म समझा था। अपने मित्रों के साथ बातचीत में वे अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग नहीं करते थे। उनका समस्त पत्राचार हिन्दी में होता था।
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डॉ. कामिल बुल्के की साहित्य साधना की चर्चा करते समय हमें उनकी उन सुप्रसिद्ध कृतियों का ध्यान हो आता है। जिसके कारण डॉ. बुल्के विद्यार्थी जगत में ख्याति प्राप्त कर सके थे। उनका सुप्रसिद्ध अंग्रेजी हिन्दी कोश सर्वाधिक लोकप्रिय - प्रामाणिक शब्द कोश है। हिन्दी की मूल प्रकृति को समझकर तदनुसार शब्द और अर्थ का तालमेल बिठाने में जैसा श्रम इस कोश में लक्षित होता है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। उनका कहना था कि कोश में कठिन शब्दार्थ देने की अपेक्षा प्रचलित और स्वीकृत सरल अर्थ देने चाहिए। उनकी टेक्निकल इंगलिश हिन्दी - ग्लॉसरी भी इसी कारण अत्यंत लोकप्रिय है। सामान्यतः जो लोग अब तक अंग्रेजी में काम कर रहे हैं, उन्हें अंग्रेजी के शब्दों के हिन्दी रूप तथा पर्याय नहीं सूझते। एक ही शब्द के यदि दो हिन्दी शब्द हैं तो कौन-सा पर्याय सटीक बैठता है यह दृष्टि बुल्के की ग्लॉसरी में है।
डॉ. कामिल बुल्के भारत में रोमन कैथेलिक चर्च के धर्म प्रचारक होकर आये थे, किन्तु भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रगाढ़ प्रेम के कारण धर्म प्रचार का कार्य छोड़कर उन्होंने अध्यापक का पेशा स्वीकार कर लिया। रांची के सेंट जेवियर्स कालेज में सत्ताईस वर्ष तक हिन्दी-संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे और वहां रहकर उन्होंने सैकड़ों विद्यार्थियों का मार्गदर्शन किया। डॉ. बुल्के के पास पुस्तकें का विशाल भण्डार था। दूर-दूर से शोधार्थी उनके यहां आते और उनसे पथ प्रदर्शन पाकर अपना काम करते थे। उनका पुस्तकालय किसी भी कालेज के पुस्तकालय से अधिक समृद्ध था। सभी शोधार्थियों को उनके पुस्तकालय का उपयोग करने की पूरी छूट थी।
बाइबिल के उपदेश उन्हें इतने प्रिय थे कि उनका पाठ किये बिना उन्हें चैन नहीं मिलता था। वे कहते थे "मैं भारतीय हूं। भारत की भाषा हिन्दी है। हिन्दी में यदि बाइबिल का शुद्ध अनुवाद न मिले तो मेरा भारतीय होना व्यर्थ है ।" इसी उदात्त धार्मिक भावना । उन्होंने न्यू टेस्टामेंट का नया विधान, उससे सरल किन्तु शुद्ध हिन्दी में अनुवाद किया। ईसा मसीह के उपदेशों का उन्होंने चयन कर "सुसमावार" नाम से हिन्दी में प्रकाशित किया। फादर बुल्के ने यह कार्य जिस निष्ठा के साथ सम्पन्न किया वह उनकी सच्ची धर्मनिष्ठा का प्रमाण है।
डॉ. कामिल बुल्के के मन में भारत की सेवा करने की प्रबल इच्छा थी। वे कहा करते थे कि मुझे अभी तीन काम फिर से करने हैं। रामकथा उत्पत्ति और विकास को नवीन अनुसंधानों के आधार पर नये संस्करण में प्रकाशित करना है। बाइबिल का सम्पूर्ण अनुवाद करना है। अंग्रेजी - हिन्दी कोश को भी नये रूप में शुद्ध करके प्रकाशित करना है। उनकी ये इच्छायें पूरी नहीं हो सकीं। लेकिन उन्होंने जो कुछ भी 73 वर्ष की आयु में किया वह एक विदेशी भारतीय के लिए आदर्श और अनुकरणीय है।
डॉ. फादर कामिल बुल्के एक ऐसा यूरोपीयन साधू था जो भारतीय साहित्य, संस्कृति और भाषा के आकर्षण के विद्ध होकर सच्चा भारतीय हो गया था, जिसे बिहार को अपनी पितृभूमि मान लिया था और जिसने रामचरित मानस और गोस्वामी तुलसीदास को अपना गुरु मानकर भारतीय संस्कृति और सभ्यता को संसार के लिए आदर्श ठहराया था। रामकथा के साथ इस युग में वाल्मीकि और तुलसी के बाद डॉ. कामिल बुल्के का नाम अभिन्न परम्परा में जुड़ गया है, जो सदा आदर और स्नेह के साथ याद किया जायेगा।
- अमरसिंह वधान
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