22 June 2024 Kabir Jayanti : Sant Sahitya Ki Prasangikta
22 जून 2024 कबीर जयंती विशेष
संत साहित्य की प्रासंगिकता
हिन्दी साहित्य में सामान्य रूप से निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासकों को सन्त कहा जाता है। सगुन साकार ब्रह्म के उपासकों को भक्त कहा जाता है। यह केवल व्यावहारिक भेद है। सन्त भक्त थे और भक्त भी सन्त थे। सन्त शब्द का शाब्दिक अर्थ बुद्धिमान, पवित्रात्मा और परोपकारी व्यक्ति माना गया है। भक्त, साधु, महात्मा सभी इस अर्थ में सन्त ही है। परशुराम चतुर्वेदी उसको सन्त कहते हैं, जिसने सत्रूपी परमतत्व का अनुभव कर लिया हो। श्री पीताम्बरदत्त बडथ्वाल ने सन्त शब्द की व्युत्पत्ति शांत शब्द से मानी है और इसका अर्थ निवृत्ति मार्ग या वैरागी किया है। आचार्य विनय मोहन के अनुसार व्यावहारिक दृष्टि से इसका अर्थ है जो आत्मोन्नति सहित परमात्मा के मिलन भाव को साध्य मानकर लोकमंगल की कामना करता है।
कबीर सन्त के लक्षण बताते हुए कहते हैं।
"नि, खैरी निहकामता साई सेती नेह
विषियों सूँ न्यारा रहै, सन्तन के अंग एह।"
तुलसी ने सन्तों का गुणगाण करते हुए उनके लक्षण बताए हैं-
'सव के ममतात्याग बटोरी। ममपद मनिह बाँध वर डोरी।' परन्तु हिन्दी में सन्त से अभिप्राय निर्गुणोपासक भक्त के लिए रूढ सा हो गया है। अर्थात सन्त वह है जो निर्गुण का उपासक हो और सन्त साहित्य वह है। जिनमें निर्गुणपंथी कवियों की रचनाओं का संकलन हो। हिन्दी साहित्य में सन्त काव्य कबीर, दादू, नानक और सुन्दरदास आदि के काव्य को कहा जाता है। जबकि सूर, तुलसी आदि के साहित्य को भक्ति काव्य कहा जाता है।
एक विशिष्ट पद्धति के साधकों और कवियों के लिए सन्त शब्द का प्रयोग हमें कबीर से काफी पहले महाराष्ट्र के निर्गुणोपासक कवियों के लिए होता हुआ मिलता है। महाराष्ट्र में विठ्ठल या वारकरी सम्प्रदाय के साधकों को सन्त कहा जाता है। सन्त नामदेव, सन्त ज्ञानेश्वर, सन्त तुकाराम, सन्त एकनाथ आदि सभी महाराष्ट्र के थे। महाराष्ट्र में महानुभाव सम्प्रदाय नामक एक निर्गुणोपासक सम्प्रदाय का भी काफी प्रभाव रहा है। इस सम्प्रदाय के प्रवृत्तक सन्त पुण्डलिक माने जाते हैं। ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ आदि सन्त कवि इसी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। महाराष्ट्र के इन सन्त कवियों में अधिकांशने हिन्दी में भी कविताएँ लिखी थी। हिन्दी साहित्य में जो निर्गुणोपासक सन्त काव्य की परंपरा मिलती है वह इसके पूर्व महाराष्ट्र में काफी प्रचार पा चुकी थी और कबीर आदि उसी परम्परा के विकास की सशक्त कड़ी हैं।
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सन्त काव्य की लगभग सभी विशेषताएँ आज भी प्रासंगिक है, आज भी उसका महत्व अक्षुण है। निर्गुण ईश्वर में विश्वास, बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध, जाति पाति भेद-भाव का विरोध, रूढ़ियों और आडम्बरों का विरोध, सद्गुरु का महत्व, भजन तथा नामस्मरण को महत्व, लोकसंग्रह की भावना, रहस्यवाद, श्रृंगार वर्णन इन सभी विशेषताओं को जवहम देखते हैं तो आज भी वह प्रासंगिक है। निर्गुण भक्ति का मूल तत्व है निर्गुण सगुण से परे अनादि, अनन्त, अनाम ब्रह्म का नाम जय सन्तों का ईश्वर निर्गुण और एक है। एक तरफ वह अद्वैतवादी ब्रह्म और सूफियों के ख़ुदा के समान अरूप अनाम सर्वव्यापी आदि बना रहता है। दूसरी और कहीं-कहीं सगुण रूप की भी झलक दे जाता। सन्तों का ईश्वर सदैव उनके हृदय में ही निवास करता है। कबीर का कहना है जैसे कस्तुरी मृग की नाभि में रहती है। और वह व्यर्थ ही उसे वन में ढूंढने के लिए भटकता फिरता है। उसी तरह राम घट-घट व्यापी है उसे बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं।
'ना मै मन्दिर ना मै मस्जिद ना कावे कैलाश में
मोहे कहाँ ढूंढे बंदे
मैतो तेरे पास है।'
सभी वर्णों और जातियों के लिए वह निर्गुण एकमात्र ज्ञानगम्य है। सन्तों का यह ब्रह्म सगुण परम तत्व प्रतीत होता है, जो सन्तों की मौलिक उद्भावना रही है। उन्होंने अपने इस निर्गुण निराकार ब्रह्म को नाम दिये हैं जैसे राम, कृष्ण, केशव, गोपाल, करीम आदि। सन्तों ने नामजप को साधना का आधार माना है। नाम ही भक्ति और मुक्ति का दाता है। इन्होंने ईश्वर-प्राप्ति के लिए प्रेम और नामस्मरण को परमावश्यक माना है।
"पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोड
ढाई आखर प्रेम का पढे सो पण्डित होई।"
सन्त सामाजिक क्रातिकारी थे। उन्होंने हर प्रकार के सामाजिक अन्याय का विरोध किया है। जाति पाति की विषमता, धनी निर्धन का भेद, छुआछुत, हिन्दू मुसलमान में पाये जानेवाले भेदभाव की उन्होंने खुलकर निन्दा की थी और मानवमात्र को समान मानने की आवाज उठाई थी। ये लोग एक सार्वभौम मानव धर्म के प्रतिष्ठापक थे। उनकी दृष्टिकोण यह था कि जाति या धर्म के आधार पर किसी को उँचा या नीचा नहीं समझना चाहिए। सब उसी एक खुदा के बंदे हैं और सब को समान रूप से भजन करने का अधिकार है-
"जाति पांति पूछे नहीं कोई
हरि को भजे सो हरि का होई।" - कबीर
प्रायः सभी सन्त कवियों ने रूढियों, मिथ्या आडम्बरों और अन्धविश्वासों की कटू आलोचना की है। उनके अनुसार भक्ति आडम्बरविहीन होती है। साधना मार्ग को व्यावहारिक एवं सरल स्वरूप प्रदान करने में ही सन्त मत की सार्थकता है। इसका कारण सन्तों का सिद्धों और नाथपथियों से प्रभावित होना है। इन्होंने मूर्तिपूजा, धर्म के नाम पर की जानेवाली हिंसा, तीर्थ, व्रत, रोजा, हज आदि विधि-विधानों, बाह्य आडम्बरों आदि का डटकर विरोध किया है। सन्त कबीरदास एक और पंडितों को खरी खोटी सुनाते थे तो दूसरी ओर मुल्लाओं की कटु आलोचना करते थे। एक ओर मन्दिर तथा तीर्थाटन आदि की निस्सारता बताते हैं तो दुसरी और मस्जिद और हज्ज-नमाज की निरर्थकता सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं.
अरे इन दोऊन राह न पाई
हिन्दुन की हिन्दुआई देखी तुरकन की तुकाई।
डॉ. शिवदान सिंह चौहान के शब्दों में 'यह कहकर कि साई के सब जीव हैं कीरी कुंजर दोय' उन्होंने मानव मात्र की समानता का सिद्धांत प्रचारित किया और ईश्वर की उपासना के लिए सबके लिए समान अधिकार की मांग की। कई जगह कबीर ने बड़े ही कडे शब्दों में इन आडम्बरों और अन्धविश्वासों का विरोध किया है। सन्त काव्य का महत्वपूर्ण तत्व है वे मानव को एक ऐसे विश्वव्यापी धर्म के सूत्रों में निबद्ध करना चाहते थे जहां जाति, धर्म, वर्ग और वर्ण सम्बन्धि भेद न हो। साधना का यह द्वार सबके लिए खुला था।
सन्त काव्य की महत्वपूर्ण विशेषता है लोक कल्याण की उत्कट भावना । सन्त कवि हिन्दुओं में प्रचलित विभिन्न मत मतान्तरों को दूर कर हिन्दू मुस्लिम विद्वेष, सामाजिक और धार्मिक कुरीतियों को दूर कर एक ऐसी उपासना पद्धति का निर्माण करने के लिए प्रयत्नशील थे जिसे समाज का प्रत्येक व्यक्ति बिना किसी संकोच के अपना सके। उन्होंने अपनी भक्ति को ऐसा रूप प्रदान किया था जो व्यक्तिगत न रहकर सामाजिक उपासना का रूप ही अधिक रहा है।
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सन्त काव्य का प्रेरणा स्त्रोत था सामान्य मानव का हित साधन। सन्त कवियों ने समाज कल्याण का मार्ग अपनाया। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में शोषित और प्रताडित मानव की प्रवृत्तियों और भावनाओं का यथार्थ चित्रण किया है । सन्त काव्य सर्वजन की मंगलभावना करनेवाले भक्तों के सरल हृदय की सहज अनुभूति का चित्रण है। यह वह प्रकाश स्तम्भ है जो निराशा, प्रतिशोध और प्रतिहिंसा के अन्धकार में भटकते हुए मानव समाज को शताब्दिओं से प्रकाश दे रहा है और भविष्य में भी मार्ग प्रदर्शित करता रहेगा। सन्त काव्य का लक्ष्य था सामान्य अशिक्षित जनता में सत्य का निरुपन करना, करनी कथनी के तारतम्य पर बल देना तथा नाम के माधुर्य को जनता तक पहुंचाना। सन्तों का व्यक्तित्व सच्चे अर्थों में संवेदनशील था उनका मानस स्वच्छ था। निर्गुण काव्य आचरण की पवित्रता का संदेश लेकर जनता के सामने आया है।
सन्त कबीर के लिए सबसे बड़ा सत्य मानव है। वे मानव की अवहेलना सहन नहीं कर पाते। कबीर साहित्य का महत्वपूर्ण अंश वही है जिसमें उन्होंने भेदभाव और सामाजिक अन्याय के विरोध में अपनी आवाज को पूरी शक्ति और दृढ़ता के साथ उठाया है। वह उन सभी बातों पर चाहे धार्मिक हो या सामाजिक कसकर आघात करते थे जो किसी भी रूप में वर्ग भेद वर्ण भेद की भावना को बढ़ावा देती है। मन्दिर, मस्जिदों में जो आडम्बर और पाखंड है उन्होंने उसका कठोर और कटू शब्दों में तिरस्कार किया है। धनी निर्धन के भेद भाव को वे स्वीकार नहीं करते । उनके दृष्टि से निर्धन वही है जिसके हृदय में राम नहीं ।
निरधन सरधन दोनो भाई । प्रभु की कला न मेटी जाई, कही कबीर निरधन है सोई।
जाके हिर है राम न होई। यह कबीर के विचार आज भी प्रासंगिक है।
कबीर के इसी लोककल्याण के कारण आलोचकों ने उन्हें अपने युग का गांधी कहा है। जिस प्रकार गांधी और नेहरू का साहित्य युग-निर्माताओं का साहित्य रहा है, उसी प्रकार कबीर का साहित्य भी युगनिर्माता का साहित्य है। युग निर्माताओं द्वारा रचित साहित्य में व्याप्त लोक कल्याण की भावना ही उसे स्पृहणीय बना देती है।
डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदीजी कबीर के व्यक्तित्व के विषय में लिखते हैं- 'वे सिर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड, आदत से अक्खड, भक्त के सामने निरीह, धूर्त भेषधारी के आगे प्रचंड, दिल के साफ दिमाग के दुरुस्त भीतर से कोमल, बाहर से कठोर, जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय है। युगावतार की शक्ति और विश्वास लेकर वे पैदा हुए थे और युग प्रवृत्तक की दृढता उनमें वर्तमान थी इसलिए व युग प्रवर्तन कर सके।'
जनमानस का सन्ताप दूर करनेवाली सन्तों की पीयुष- वर्णी वाणी का मध्ययुगीन समाज पर व्यापक प्रभाव पडा । इतिहास में ऐसे उदाहरण है, सन्तों के कृतित्व, व्यक्तित्व और उपदेशों से प्रभावित होकर कई शासक स्वयं उनके पास आये या उन्हें सन्मानसहित आमन्त्रित किया। कबीरदास और नानक जैसे प्रमुख सन्तों ने ही नहीं उनके अनुयायियों ने भी अपने-अपने समय की जनता को प्रभावित किया। सन्तों के व्यक्तित्व का प्रभाव हिन्दुओं और मुसलमानों पर समान रूप से पड़ा। आज के वर्ग विद्वेष से ग्रस्त और त्रस्त विश्व को कवीर की घोषणा साई के सब जीव है, विश्वासमय तथा प्रेम और शांतिपूर्ण जीवन जीने का आशामय संकेत दे रही है। मध्ययुग के गहन कुहासें में कबीर की वाणी ने अमर आलोकका काम किया और आज का इंसान भी इससे बहुत कुछ प्रकाश पाता है।
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सन्त काव्य सामाजिक, धार्मिक, राजनितीक तथा साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण बन पड़ा है। सन्त कवियों ने धर्म का ऐसा स्वाभाविक, निश्छल, व्यापहारिक तथा विश्वासमय रूप जन भाषा में उपस्थित किया जो कि विश्वधर्म वन गया और आज भी जन जीवन में पुनः जागरण का पावन संदेश दे रहा है। सन्त कवियों ने साहित्य को सत्य, सौंदर्य और शिव से संपन्न किया है। सन्त सम्प्रदाय विश्व सम्प्रदाय हैं और उसका धर्म विश्वधर्म है और इस विश्वधर्म का मूलाधार है हृदय की पवित्रता।
- प्रा. डॉ. कांचना बाहेती
सन्दर्भ ग्रंथ :
1) हिन्दी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ डॉ. शिवकुमार - शर्मा
2) हिन्दी साहित्य का इतिहास डॉ. नरेंद्र
3) हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियाँ डॉ. जयकिशन प्रसाद -
4) हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास राजनाथ शर्मा
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