लघुकथा : पत्थर विश्वास
जिस जगह प्रेम हो, ज़िम्मेदारी का एहसास हो, वहां मन में प्रबल विश्वास और अटूट भरोसा भी होता है....
बी. एल. आच्छा
मंदिर में घंटियां बज रही थी। आरती का समय। दुखीजन तो खासतौर पर चले ही आते हैं। मां का चमत्कारी मंदिर। शरण और मन्नत की दिली पुकार।
एक गंवई अधेड़ महिला अपने लकवाग्रस्त पति को लेकर आ रही थी। एक पैर में लकवे के कारण शरीर का सारा भार पत्नी के कंधे पर। अपना एक हाथ पति के बैसाखी वाले कंधे पर। वह औरत अपने एक हाथ से पति को हिलगाए थी। घिसटते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे फिल्मी नायक-नायिका एक-दूजे को हिलगाये से रहते हैं। वे मां की मूरत के सामने खड़े हो गये।
आरती पूरी होते - होते मुझसे रहा नहीं गया। पूछ लिया-
"कबसे यह लकवा है?"
"पाँच बरस हो गये।"
"तो ईलाज"।
"पास के कस्बे में दिखाते हैं। पर फर्क ज्यादा नहीं।" आदमी ने कहा।
"तो ईलाज के लिए सरकार से मदद?"
"अस्पताल से दवाई मिली। पर इतना कौन ध्यान देता है?"
"पंच-सरपंच?"
"करते हैं कभी-कभी। पर रोज कौन सुनता है? पास पड़ोसी भी कब तक देखें? एक दिन सुन लेते हैं, फिर ठण्डे|"
मैंने ऐसे ही पूछ लिया - वे सब नहीं सुनते तो ये तो पत्थर के देवता हैं!" तमतमाते हुए औरत ने उत्तर दिया-" बाबूजी, ये मिनख तो सुणे नी सुणै पण ए भाटा (पत्थर) की मूरत इज तो सुणे है। बिसवास बी देवी मां रो। बिनपइसा के मां राणी रो बिसवास।रोज रोज तो इण मूरत कोइज भरोसो।" फिल्मी रोमांस, गाढ़ा दांपत्य और अमूर्त विश्वास बिनकहे ही तर्जेबयानी कर रहे थे
मां की मूरत को देखते हुए उस गंवई औरत में तेज ऐसा दिख रहा था जैसे मूरत से लेजर किरणें लकवाग्रस्त पति तक आ रही हों।
(अहा जिंदगी पत्रिका में प्रकाशित लघुकथा "पत्थर विश्वास")
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