National Language and Nagari Lipi
राष्ट्र भाषा और नागरी लिपि
जिस भाषा में राष्ट्र की अधिकांश आत्मा की धड़कन, स्पंदन की सरलता से रूपांकित रेखांकित करने की क्षमता हो, उसे राष्ट्रभाषा कहा जाता है। जब कोई बोली आदर्श या परिनिष्ठित भाषा बनने के बाद किसी भी राष्ट्र की भावात्मक एकता तथा सांसकृतिक चेतना प्रतिबिंबित करने की क्षमता रखती है- वह राष्ट्रभाषा की संज्ञा से विभूषित होती है। देश की अधिकांश जनता की समझ और अभिव्यक्ति इसी भाषा में होती है। वस्तुतः राष्ट्र का अर्थ ही भावात्मक एकता की संश्लिष्ट चेतना का समूह है। यह चेतना अभिव्यक्त होकर जिससे प्रकाशित होती है, उसे राष्ट्रभाषा कहते हैं। राष्ट्रभाषा द्वारा विभिन्न देशों के निवासी राष्ट्रीय मंच पर अपने राजनैतिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। किसी भी राष्ट्रभाषा में अधोलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए।
1. उसे देश की अधिकांश जनता समझती हो तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से उसका विशिष्ट महत्व हो।
2. उस भाषा का व्याकरण शुष्क नहीं, बल्कि सरस, सहज होना चाहिए।
3. उसका साहित्य ज्ञान की विभिन्न विधाओं में विस्तृत तथा उच्च कोटि का हो।
4. दूसरी भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करने की अपूर्व क्षमता उस भाषा में होनी चाहिए।
5. उसका शब्द भंडार विशाल तथा विचार अतिविस्तृत हो।
6. उस भाषा के साहित्य में राष्ट्रीय संस्कृति की आत्मा ध्वनित होती हो।
7. उसकी लिपि अत्यंत सरल हो, जिसे सरलता से लोग सीख सके।
इन विशेषताओं के कारण हिन्दी राष्ट्रभाषा घोषित किया गया है। हिन्दी राष्ट्र भाषा के साथ-साथ राष्ट्रीय चेतना का भी प्रतीक है। हमारे देश में हिन्दी जानने वालों की संख्या सर्वाधिक है। राष्ट्रीय एकता का प्रतिमान एम राष्ट्र और एक भाषा के अनुसार सौभाग्य से हमारे देश में हिन्दी समूचे हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा बनी हुई है, किन्तु विश्व में कुछ ऐसे भी राष्ट्र है जहाँ साहित्यिक भाषाओं के साथ-साथ एक से अधिक राष्ट्रीय भाषाएँ राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत हैं।
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शताब्दियों तक मनुष्य भाषा या मुख्य ध्वनि के द्वारा ही अपने भाव एवं विचारों की अभिव्यक्ति करता रहा। उस अवस्था में भी यद्यपि मनुष्य अपने महत्वपूर्ण विचारों को पीढ़ी दर पीढ़ी ध्वन्यात्मक रूप से संरक्षित करता रहा तथापि संरक्षण के सरल उपाय के अभाव में उसके विचार अल्पजीवी ही होते थे। वेदों को 'श्रुति' इसी कारण कहा जाता है कि लेखन कला के अभाव में आर्यों द्वारा भारतीय संस्कृति की इस अमूल्य थाति को पीढ़ी-दर-पीढी श्रवणान्तरित करके संरक्षित किया गया। वेदों का लिखित रूप तभी अस्तित्व में आया जब प्राचीन भारतीय विद्वानों ने लिपि का आविष्कार कर लिया। अतः स्पष्ट है कि लिपियों द्वारा भाषा एवं ध्वनियों के माध्यम से मनुष्य अपने भावों एवं विचारों को सुरक्षित एवं स्थायी रखता है।
देवनागरी लिपि की उत्पत्ति :-
मानव मन में जब सभ्यता का अंकुर फूटा तब उसने गुफाओं और प्रस्तर शिलाओं पर चित्राकृतियाँ खोदनी शुरू की। डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय मानते हैं कि प्रारंभिक समय में मनुष्य ने अपनी वाणी को प्रकट करने, उसे सुरक्षित रखने के लिए भाव-संकेतों या वस्तु-संकेतों का उपयोग करना प्रारंभ किया। इन्हीं वस्तु संकेतों से कलांतर में चित्र लिपि का विकास हुआ मनुष्य का आज तक का इतिहास प्रकृति प्रदान जटिलताओं के बाद ध्वनि-चित्रण का इतिहास प्रादुर्भाव हुआ। आधुनिक काल की अधिकांश लिपियाँ ध्वनि-लिपि ही हैं। वर्णनात्मक लिपि का सर्वोत्तम उदाहरण है। देवनागरी लिपि ध्वन्यात्मक लिपि का सर्वोत्तम उदाहरण है। विद्वानों का विचार है कि ई. पू. 500 वर्ष से ही भारतीय जनों को लेखन कला का ज्ञान है। भारत में प्राचीनतम उपलब्धि अभिलेखों में जिन लिपियों का प्रयोग मिलता है, वे खरोष्ठी और ब्राह्मी लिपियाँ हैं। सिंधु घाटी की खुदाई में भावप्रवण लिपि के साथ-साथ चित्रलिपि के लेख भी मिले हैं। डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा एवम् कतिपय अन्य विद्वानों की मान्यता है कि सिंधु मध्यना की इसी लिपि का कालान्तर में विकास हुआ। ब्राह्मी लिपि उसी का विकसित रूप है। वस्तुतः अरबी, फारसी को छोड़कर आधुनिक भारत की संपूर्ण लिपियाँ 'ब्राह्मी' लिपि से विकसित हुई हैं।
ब्राह्मी लिपि के उत्तरोत्तर विकास के फलस्वरूप गुप्त लिपि तथा कुटिल लिपि का विकास हुआ। गुप्त सम्राटों के समय से ब्राह्मी लिपि के ऊपर (शिरोरखाएँ लगाई जाने लगीं। विद्वानों के अनुसार उसी समय से नागरीलिपि को जन्म और विकास शुरू हुआ। लगभग उसी समय प्राकृत अपभ्रंश का रूप आया था। तभी देवनागरी का उपयोग अपभ्रंश में लेखन हेतु आया गया। बाद में शौरसेनी अपभ्रंश से हिन्दी का विकास हुआ तब तो देवनागरी ही हिन्दी की सबसे बड़ी माध्यम ही बन गई। इस लिपि के नामकरण के बारे में विद्वानों में व्यापक मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार गुजरत के नागरी ब्राणों द्वार व्यवहृत होने के कारण इसे नगरी कहा गया। कुछ विद्वान मानते हैं कि उस समय काशी एवं पाटलीपुत्र देवनगर माने जाते थे। इसी कारण इस लिपि को देवनागरी कहा गया। दक्षिण में किसी नंदिनागर से संबंधित करके इसे नंदिनागरी भी कहा जाता था। बाद में देशभाषा संस्कृत के लिए भी इसी लिपि का व्यवहार होने लगा तथा इसका नाम देवनागरी पड़ा।
देवनागरी लिपि का विकास :-
देवनागरी लिपि की उपलब्धता 10वीं शताब्दी से पुष्ट होती है। इसके वर्णों का क्रमशः विकास होता रहा है। 11वीं सदी में इस लिपि का पर्याप्त विकास हो चुका था और 12वीं सदी में इस लिपि का आधुनिक रूप प्रचलित हो चुका था । संक्षेप में देवनागरी की वर्णमाला के विकास के विषय में यहीं कहा जाता है कि ब्राह्मी लिपि, गुप्त एवं कुटि लिपि के सोपानों से गुजरते हुए आधुनिक देवनागरी बनी है।
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भाषागत वर्णों का जो वैज्ञानिक क्रम पाणिनी से चलकर आज के अधुनातन भाषाविद् को हतप्रभ कर रहा है, ठीक वही स्थिति लिपि के विषय में भारतीय दृष्टि को लेकर भी सामने आने को है। अन्तर केवल यह है कि लिपियों के चिह्नों का विकास जिस तरह से आज अलगाकर देखा जा रहा है, वही कुछ भ्रम उपस्थित करना है अन्यथा लिपि चिह्न भाषा ध्वनि के चित्रात्मक प्रारूप हैं। वे अपने आप में कुछ भी नहीं है यदि उनका संबंध ध्वनियों से न हो। इस अर्थ में लिपि नाद का चित्र है जो पुनः नाद में रूपान्तरित होता है। अतः लिपि और भाषा लिखित और कथित वर्गों में विभक्त है। वास्तव में लिपि भाषा में रचित सृजन विचार, सामाजिक अन्त: सम्बंधों से उपजे ज्ञान को सुरक्षित करती है। वह भविष्य को संचित ज्ञान पहुँचाती है तथा वर्तमान में रचित सम्पदा को को स्थायी संकेतों में अनुबंधित करती है।
इस दृष्टि से सम्पत्र लिपि की उपादेयता असंदिग्ध है क्योंकि वह मनुष्य के अनुभव, , विचार एवं भाव सम्पदा को एक युग से दूसरे युग, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचित करती है। भाषा यदि नादमय सार्थक आदान-प्रदान है तो लिपि उसके संरक्षण की अर्थमय विधि। परन्तु यह अर्थमयता उन लिपियों में अधिक है, जिनमें ध्वनियों को अंकित कर पाने की अधिक सक्षमता है। इस दृष्टि से नागरी लिपि रोमन और दूसरी चित्र-लिपियों से तो कहीं अधिक सम्पन्न है, वह स्लाव लिपि से भी अधिक सक्षम है। नागरी के इस गुणधर्म को मात्र किसी भारतीय का अहंकार नहीं मानना चाहिए अपितु इसे पूर्व और पश्चिम के अनेक लिपि विशेषज्ञ स्वीकार कर चुके हैं।
देवनागरी लिपि प्रचलित लिपियों में तुलनात्मक दृष्टि से सर्वाधिक वैज्ञानिक और उपयोगी है। उसकी वैज्ञानिकता के पक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
1. सभी प्रकार की ध्वनियों को अंकित करने की क्षमता है। इसमें वह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि उसमें सभी प्रकार की ध्वनियों को अंकित कर सकते हैं। यद्यपि इससे यह अर्थ नहीं लेना चाहिए कि उसमें नई ध्वनियों के लिए नए चिह्नों का निर्माण हो तथापि यह सर्व विदित होना चाहिए कि रोमन में यह शक्ति नहीं है कि वह तमाम भारतीय भाषाओं की अत्यंत सुकोमल ध्वनियों का लिप्यंतरण कर सके ।
2. ध्वनि - प्रतिकों की व्याख्या : देवनागरी लिपि की वर्ण व्यवस्था बड़ी वैज्ञानिक है। वर्णों का वर्गीकरण उच्चारण प्रक्रिया और उच्चारण स्थान को ध्यान में रखकर किया गया है। सबसे प्रथम स्वर और फिर व्यंजन, स्वरों में भी पहले ह्रस्व तथा फिर उनके दीर्घ रूप, पहले मूलस्वर, तत्पश्चात् संयुक्त स्वर । स्वरों के समान व्यंजनों का वर्गीकरण भी व्यवस्थित और वैज्ञानिक है । व्यंजनों के पांच वर्ग बनाए गए हैं- क वर्ग, च वर्ग, टवर्ग, त वर्ग और प वर्ग। इन्हें उच्चारण के अनुसार व्यवस्थित किया गया है। इस प्रकार क्रम से तालव्य, मूर्धन्य, वर्त्स्य, दन्त्य और ओष्ठय वर्गों का क्रम निर्धारित किया गया है। रोमन और अरबी लिपि मं ऐसी व्यवस्था नहीं है। रोमन लिपि में पाँच स्वर हैं- A,E,I,O, U. इनका कोई क्रम नहीं है। रोमन लिपि में 'ए' के बाद 'बी' आता है जो व्यंजन हैं। अरबी लिपि में 'अलिफ' स्वर है पर इसके बाद 'बे' आ गया। इन दोनों की वर्णमाला में स्वर और व्यंजन ध्वनियों का कोई क्रम नहीं है।
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3. ध्वनि प्रतीकों का नामकरण : देवनागरी ध्वनियों को प्रस्तुत करने वाले ध्वनि प्रतिकों का वही नाम है जिस ध्वनि को वह प्रस्तुत करता है यथा- क, च, ट, त, प, र। इस से ध्वनियों को सीखने में कोई कठिनाई नहीं होती यह ढूँढना नहीं पड़ता कि कोन सी ध्वनि को कौन-सा प्रतीक प्रस्तुत करता है। जबकी रोमन लिपि में G ग को R र को L ल को C स को और क ध्वनियों का प्रस्तुत करता है। इससे सीखने वाला भ्रम में पड़ जाता है।
4. एक ध्वनि के लिए केवल एक ही प्रतीक : देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए केवल एक ध्वनि प्रतीक है। इस विशेषता के कारण अन्य भाषा-भाषी को कठिनाई का अनुभव नहीं होता। रोमन और अरबी लिपियों में यह कठिनाई वर्तनी की अनेक समस्याएँ प्रस्तुत करती हैं। जैसे रोमन में Cake में C 'क' के लिए
Ceiling में C स के लिए
Chemistry में Ch क के लिए
Chope में Ch च के लिए
अरवी में जे, जाल, जेय, ज्यादा ये चार ध्वनि-प्रतीक एक ध्वनि 'जे' को प्रस्तुत करते हैं।
5. एक ध्वनि-प्रतीक के द्वारा एक ही ध्वनि की अभिव्यक्ति: देवनागरी लिपि में यह विशेषता है कि इसमें एक ही ध्वनि के लिए एक प्रतीक है। इससे भाषा को सीखने में सुगमता के साथ-साथ वर्तनी की शुद्धता में सहायता करती है। जैसे देवनागरी लिपि में यदि 'क' लिखा गया है तो उसका एक ही उच्चारण 'अघोष' अल्पप्राण 'कण्डय स्पर्श ध्वनि के रूप में संभव है।
किन्तु रोमन लिपि में 'क' ध्वनि के लिए प्रस्तुत कई वर्ण हैं। जैसे - C-CAT, K-KITE, Q-QUEEN, CK- BLOCK, CH-CHRIST.
6. ध्वनि प्रतीकों की संख्या : देवनागरी की सबसे बड़ी विशेषता है ध्वनि प्रतीकों की संख्या भाषा की क्षमता और सम्पन्नता की दृष्टि से हिन्दी के लिए जितनी ध्वनियाँ आवश्यक हैं उन सभी के लिए अलग-अलग स्पष्ट ध्वनि प्रतीक हैं, जबकी रोमन लिपि में 40 ध्वनियाँ हैं जिन के लिए ध्वनि-प्रतीक केवल 26 हैं। नागरी में 52 अक्षर हैं। जो सभी भारतीय भाषाओं और बोलियों की ध्वनियों को अंकित करने में सक्षम हैं।
7. मात्राएँ : नागरी लिपि में स्वर ध्वनियों को प्रस्तुत करने वाले ध्वनि-प्रतिक को ही लिखाया जाता है। किन्तु जब यह स्वर - ध्वनियाँ व्यंजन ध्वनि प्रतीकों के साथ आती हैं तो मात्रा के रूप में प्रयुक्त होती है। इससे स्थान की बचत हो जाती है।
8. शुद्ध पाठ की विशेषता : नागरी लिपि ने ही हिन्दी को शुद्ध (पाठ का गुण प्रदान किया है। नागरी लिपि में जो कुछ लिखा जाता है उसे ठीक वैसे ही पढ़ा जाता है, जबकी अन्य लिपियों में यह गुण नहीं पाया जाता है। संसार की जिन भाषाओं की लिपि उतनी ही अधिक वैज्ञानिक मानी जाती है। भाषा और लिपि के इस एकैकी संवाद की दृष्टि से देवनागरी लिपि संसार की श्रेष्ठ लिपि मानी जाती है।
9. लिप्यंतरण की समस्या : भारत के संदर्भ में नागरी लिपि का महत्व और उसकी उपादेयता के कई अन्य आधार हैं। एक आधार तो यह है कि नागरी में भारतीय भाषाओं की ध्वनियाँ को अंकित करने की अत्यधिक क्षमता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं के कुछ व्यंजनों के लिए यदि कुछ अतिरिक्त चिह्न स्वीकार कर लिए जायें तो नागरी लिपि में हम भारत की तमाम बोलियों और भाषाओं को लिप्यन्तरित कर सकते हैं।
10. सुगमता : नागरी लिपि अत्यंत सुगम लिपि भी है। कहा जाता है कि निरक्षर व्यक्ति भी आसानी व शीघ्रता से इस लिपि का अधिकारी बन सकता है। इसकी सुगमता, सुलभ्यता ही ऐसा गुणधर्मी कार है जो इसके व्यापक प्रसार के मार्ग में सहयोगी है।
इस कम्प्यूटर युग में देवनागरी लिपि की कम्प्यूटरैज्ड बनाने के प्रयत्न चल रहे हैं। माईक्रो साफ्ट ने अपने नवीनतम आरेटिंग सिस्टम् विंडोज् एक्स पी में इसका प्रयोग किया है। एक ही फॉट में संसार की अनेकानेक भाषाओं में काम करने की सुविधा प्रदान कराई है। इसमें आकृति, वरहा, अनु, ऐलिपि, मंगल, कृति, कृतिदेव, शिवा, चाणक्य, नारद, नई दिल्ली आदि फॉंट्स है। इन्हें अलग-अलग वेबसाइट्स में सुरक्षित रखा गया है। देवनागरी से संबंधित साफ्टवेरों में से लीला, मैजिक, सी.डी. रोम, गुरू नामक संवादात्मक और सीडेक नामक अन्य साफ्टवेर भी उपलब्ध है। आस्की कोडिंग प्रणाली में भारतीय, दक्षिण यूरोपीय भाषा की लिपि समाहित किया गया।
1991 में भारतीय मानक ब्यूरों द्वारा इस्की कूटों का निर्धारण किया गया था। इसके बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यूनिकोड आर्गेनाइजेशन द्वारा संसार की समस्त भाषाओं को एक यूनिकोड में समाया गया।
आजकल मोबाइल फोन में और इंटरनेट में मेसेज देते समय सर्वाधिक लोग हिन्दी को अंग्रेजी में लिख रहे हैं। अगर इस तरह से देवनागरी लिपि लिखी जाएगी तो आनेवाली पीढी हिन्दी वर्णमाला भूलने जायेगी। इसका समाधान घरों में बच्चों को देवनागरी में लिखने पढ़ने की आदत डालकर ही निकाला जा सकता है।
आजकल युवा पीढी की रोजी रोटी की पूर्ति रोमन से हो रही है। जब अपने ही लोगों में किसी लालच के कारण राजभाषा और राष्ट्रभाषा को छोड़कर अन्य भाषा के तरफ जाने की इच्छा पैदा होता तो सचमुच यह खतरे की बात है। इस स्थिति से बचने के लिए युवा पीढी में राजभाषा के प्रति गौरव की भावना को जागृत करना आवश्यक है। पराये देश की भाषा का मोह छोड़कर अत्यंत वैज्ञानिक और सरल देवनागरी लिपि का विकास करना अत्यंत आवश्यक है। देवनागरी लिपि के द्वारा ही भारत में एकता स्थापित कर सकते हैं।
डॉ. अविनाश जायसवाल
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