राष्ट्रभाषा हिंदी : भारतीय भाषाओं से तादात्म्यता के परिप्रेक्ष्य में

Dr. Mulla Adam Ali
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National language Hindi: from the perspective of identification with Indian languages

National language Hindi

राष्ट्रभाषा हिंदी : भारतीय भाषाओं से तादात्म्यता के परिप्रेक्ष्य में

भारत एक विशाल देश है, जहाँ कई भाषाएं और अनेक बोलियाँ बोलनेवाले लोग रहते हैं, किन्तु भारत की सभी भाषाओं की आत्मा एक ही है। जो भारतीयता का समान संदेश देती रही है। हमारी सामासिक संस्कृति का केन्द्र बिन्दु एक ही रहा है, भले ही इसकी अभिव्यक्ति का माध्यम विभिन्न क्षेत्रीय भाषाएँ रही है। इतने महान देश में भाषाओं की विभिन्नता का होना स्वाभाविक ही है। किन्तु यह विभिन्नता इनकी मूलभूत एकता में बाधक नहीं रही है। इनके भीतर अंत: सलीला के रूप में भारतीयता सतत् रूप से प्रवाहित रही है। सन 1985 में "पेन" नामक संस्था द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लेखक सम्मेलन में भारत कोकिला श्रीमती सरोजनी नायडू ने कहा था- "भारत एक और अखंड है। माना की भारत की जनता विभिन्न भाषा- भाषी है, फिर भी सबका हृदय तो एक ही है।"

डॉ. राधाकृष्णन ने भी ऐसे ही विचार व्यक्त करते हुए स्पष्ट रूप से कहा था - "भारतीय साहित्य एक ही है, चाहे वह विभिन्न भाषाओं में लिखा गया हो।"

तमिल भाषा के प्रसिद्ध कवि सुब्रमण्यम भारती ने अपने एक गीत में इसी स्वर को मुखरित करते हुए कहा था कि भारत माता अभी अस्सी करोड़ मुखवाली है किन्तु सब में चेतना समान है। यहाँ अठारह भाषाएं बोली जाती है, मगर चिन्तन सब में समान है।

भारत वास्तव में अनेकताओं का एक महत्वपूर्ण संगम रहा है, इसलिए प्राचीन काल से लेकर आज तक यहाँ तादात्म्यता की प्रवृति निरंतर विद्यमान रही है। इसकी यही प्रवृत्ति इसे संजीवनी प्रदान करती रही है। कहीं से भी अच्छी बातों को ग्रहण करना हमारी संस्कृति का विशिष्ट गुण रहा है। ऋग्वेद का यह अमर संदेश- "आनोभद्रा ऋतवो यन्तु विश्वतः” अर्थात प्रत्येक दिशा में शुभ एवं सुन्दर विचार हमें प्राप्त हों। इसी से अनुप्राणित हमारी सभी भाषाएं प्रेम सौहार्द और शांति तथा एकता के संदेश देती रही है।

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उर्दू के महान कवि फ़िराक गोरखपुरी ने भी इसी समानता को उजागर करते हुए कहा था "जब हम संस्कृत शायरी, हिन्दी शायरी, बंगाली शायरी, मराठी शायरी और हिन्दुस्तान की दीगर जुबानी शायरी की गूंज सुनते हैं तो उनमें एक ही तरह झंकार और बूबास हम पाते हैं एक ही दिल धड़कता सुनाई देता है।"

भारतीय वाङ्मय की वह आंतरिक एकता भारत के विचार और संस्कृति की सूचक है। यद्यपि उस वाङ्मय की आत्मा एक है, तो भी वह इतिहास के परिप्रेक्ष्य के अनुसार अनेक भाषाओं, रूपों और परिस्थितियों में प्रकट हुई है। हमारी इस सामासिक संस्कृति का केन्द्र बिन्दु एक ही रहा है।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी कहा था कि- "हमारे लिए यह परम सौभाग्य और गर्व की बात है कि भारत में अनेक महान भाषाएँ है और ये एक दूसरे से संबंधित है। हमारे देश की यह एक विशेषता है कि यहाँ ऊपर से दिखनेवाली विविधता के भीतर गहरी एकता है।"

प्राचीन आचार्यों ने समस्त भारत को एक सांस्कृतिक सूत्र में बाँधने और प्रबल बनाने की दिशा में प्रयास किये। इसलिए संस्कृत भाषा जो देशी बोलियों की परिस्कृत वाणी बनाई गई, सभी मत-मतान्तरों की वाहिका बनी। वही सम्पर्क सूत्र बनकर भारतीयता और भारतीय एकता की साधिका रही। वैदिक, बौद्ध, जैन, शैव और सिद्ध आदि अनेक मतावलम्बी पंडितों ने संस्कृत द्वारा भारत को भावसूत्र में बाँधा । इसके माध्यम से ही सुदूर दक्षिण के केरल प्रदेश से चलकर आदि शंकराचार्य ने सारे भारत को एक सूत्र में बाँधने का ऐतिहासिक प्रयास किया है। संस्कृत ने ही सभी भारतीय बोलियों प्रादेशिक भाषाओं को कमोबेश रूप में अनुप्राणित किया, समृद्ध भी किया। संस्कृत में लिखे महाकाव्यों का प्रभाव भारत की प्रायः सभी भाषाओं पर पड़ा जो आज भी निरंतर विद्यमान है। भारतीय भाषाओं ने सदा ही समाज को जोड़ने का काम किया, तोड़ने का नहीं। सम्पूर्ण भारतीय भाषाओं का समन्वयात्मक स्वरूप राष्ट्रभारती हिन्दी में ही मौजूद है। सांस्कृतिक दृष्टि से हिन्दी की परम्परा अतीव एवं सुद्धीर्घ है। हिन्दी का भक्ति कालीन साहित्य हमारी विलक्षण संस्कृति का अक्षय श्रोत ही तो है। उस समय का रचा गया सृजनात्मक साहित्य राजभाषा की प्रगति में बहुत हद तक सहायक हो सकता है। इससे बड़ी सुखद प्रेरणा मिल सकती है।

भारत में इस्लाम के प्रवेश के साथ जो कटुता और टकराव का वातावरण उत्पन्न हो गया था। उसमें समरसता लाने और विभिन्न संस्कृतियों में एकता लाने के लिए ही हमारे संतों, महात्माओं और चिन्तकों ने अपनी भक्तिरचनाओं और सूफ़ी कवियों ने प्रेमाख्यानकों द्वारा जनता में प्रेम और सौहार्द उत्पन्न करने के स्तुत्य प्रयास किये है।

गुरुनानक, कबीर, तुलसी, सूर, दाऊद, जायसी और रहीम हिन्दी में उसी युग की देन है। अमीर खुसरों ने तो हिन्दी भाषा को एक संजीवनी ही दे दी थी। आज उसी की खड़ी बोली हिन्दी राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन है, जो सभी के सहयोग और योगदान से आगे बढ़ी।

भारत तथा भारतीयता की सच्ची पहचान भारत की भाषाएँ ही है क्योंकि भाषा के माध्यम से ही भारत का साहित्य सुरक्षित है। विश्व की सर्वथा प्राचीन भाषा में संस्कृत का नाम आता है। हिन्दी संस्कृत की औरस कन्या है, इसमें विश्व की समस्त भाषाओं को आत्मसात कर लेने की अदभूत क्षमता है। हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई समान अधिकार से इसे अपना सकते है। यही नहीं, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम आदि भाषा-भाषी भी हिन्दी को आसानी से गले लगा सकते है। इस संबंध में आचार्य शिवपूजन सहाय जी का कथन है "हम डंके की चोट से कह सकते हैं कि भारतवर्ष में केवल हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है। जिसकी आवाज हिमालय से गौरीशंकर शिखर से कन्याकुमारी तक काफी प्रभाव के साथ गुंज सकती है- अटक कटक तक छायी रह सकती है।"

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जहाँ तक अन्य भारतीय भाषाओं का प्रश्न है, इनमें बहुत दूरियाँ नहीं है। चाहे वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी "रामायण" हो या कम्बन की तमिल में लिखी "कम्ब रामायण" या तुलसीदास की अवधि में लिखा “रामचरितमानस' इन सबकी भाषा तो अलग-अलग है। मगर भाव एक है। कवित्यम ने महाभारत का तेलगु में अनुवाद किया। आदि शंकराचार्य केरल में पैदा उन्होंने अपनी बात संस्कृत में कही उत्तर भारत में जिस हुए थे. भक्ति आंदोलन में पुनर्जागरण की एक जबरदस्त क्रांति पैदा की थी, उसकी लहर दक्षिण भारत से उठी थी, दक्षिण के आलवार संतों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है।

महाकवि तिरूवल्लुवर ने जीवन मूल्यों सम्बन्ध आदर्श प्रस्तुत किये। वे वेद, जैन धर्म तथा मध्यकालीन भक्त कवियों में ज्यों के त्यों मिलते हैं। तमिल की कवयित्री 'ऑन्डाल' और हिन्दी की कवियत्री 'मीराबाई' की कविताओं की मूल भावना एक ही है। इसी प्रकार की समानता तमिल कवि पेरियें आडवार, कन्नड़ के कवि पुरन्दरदास तथा हिन्दी के कवि सूरदास की कविताओं में पाई जाती है। काश्मीर की कवयित्री ललाधत और भक्त रविदास की कविताओं में भाव साम्य है, इसी प्रकार उड़िया के बनमाल की कविता रसखान की "पाहन हों तो वही गिरिकों जो कियों ब्रजछत्र पुरन्दर धारण" के समकक्ष असमिया के शंकरदेव तथा माधवदेव, मराठी के संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम तथा नामदेव, पंजाब के गुरुनानक देव, गुजराती के कवि नरसीमेहता तथा हिन्दी के कबीरदास की वाणियों में अद्भूत साम्य है। भक्तिकाल के कवियों तथा सूफी कवियों में काफी समानता है, इनमें उर्दू, फारसी तथा हिन्दी का समन्वय बरबस भाषायी समन्वय की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता है।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनों में एक राष्ट्रीय मंच पर देश के तमाम नेता एकत्र हुए थे। उस समय हिन्दी का चुनाव प्रतिनिधि भाषा के रूप में हुआ। क्योंकि इसमें सभी भाषाओं का सार सुरक्षित है, थोड़े बहुत के अंतर से विशेष फर्क नहीं पड़ता। सभी भारतीय भाषाओं के मूल में भावनात्मक एकता है। बहुत हद तक इनकी ध्वनियाँ भी समान हैं। व्यवसाय आदि के कारण विभिन्न क्षेत्रों में लोग एक दूसरे भाषा-भाषियों की भाषाओं का योग आसानी से कर लेते हैं। इस प्रकार सभी भारतीय भाषाएं समृद्ध से भाव, होंगी। भारतीय भाषाओं के विकास से हिन्दी भाषा की जड़े और भी मजबूत होगी क्योंकि भाषा मूल रूप संस्कृति और संस्कार की संवाहिका होती है । यह विभिन्न धर्म सम्प्रदायों के फूलों को एकसूत्र में पिरोकर एक सुन्दर से सुन्दरतम माला का आकार प्रदान कर सकती है।

भारतीय भाषाओं की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनके वाक्य गठन में बहुत बड़ी समानता है। सभी कर्त्ता से आरम्भ करती है और वाक्य का अंत क्रिया में होता है। कर्म का स्थान क्रिया से पूर्व होता है। अंग्रेजी आदि भाषाओं में यह क्रम नहीं है। भारतीय भाषाओं की वर्णमालाओं में अदभुत समानता है। स्वर और व्यंजनों का क्रम पृथक है। जो अंग्रेजी अरबी फारसी की लिपियों में नहीं है। डॉ. रामविलास शर्मा ने भारतीय भाषाओं की विभिन्न लिपियों के बावजूद उनमें मूलभूत एकता का उल्लेख करते हुए लिखा है। " भारत में अनेक लिपियों का व्यवहार होता रहा है। फिर भी यहाँ राष्ट्रीय चेतना है और उसका बहुत बड़ा कारण यह है कि लिपियों की भिन्नता के बावजूद वर्णमाला की बुनियादी एकता यहाँ कायम रही है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में भाषायी विविधता के बावजूद उसमें भावात्मक एकता का सूत्र सदा से विद्यमान रहा है। इसी से प्रेरित हो आचार्य विनोबा भावे ने कहा था कि यदि भारतीय भाषाओं के लिए एक वैकल्पिक लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपना लिया जाय तो ये भाषाएँ सभी के लिए सहज और सुगत हो जाये, क्योंकि सभी की आत्मा एक ही तो है। इस प्रकार भारत की भाषाओं की जननी हमारी प्राचीन आर्यकालीन भाषा संस्कृत ही है। विभिन्न अनुसंधानों के आधार पर यह तय हुआ है कि विश्व की सभी भाषाएँ मुख्य रूप से लैटिन तथा अंग्रेजी के ध्वनि एवं शब्द संरचना में संस्कृत का अभूतपूर्व योगदान है। साथ-ही- साथ उर्दू, फ़ारसी तथा भारतीय भाषाएँ असमिया, उड़िया, तेलगु, कन्नड़, मराठी, बंगला, पंजाबी, तमिल आदि का उत्स भी संस्कृत ही है। अतः समकालीन हिन्दी भारतीय भाषा ही नहीं अपितु विश्वभाषा का प्रतिनिधित्व करने में सर्वथा सक्षम है।

- तारकेश्वर नाथ सिन्हा

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