हिंदी : सम्मान दिलाने की भाषा

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi is our identity, we should be proud of it

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हिंदी : सम्मान दिलाने की भाषा

राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त किये दशकों गुजर जाने और दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादीवाले देश की अधिसंख्य जनता द्वारा बोली जानेवाली भाषा होने के बावजूद हिन्दी आज भी विकास सम्मान और रोजगार देनेवाली भाषा नहीं समझी जाती है और अंग्रेजी की तुलना में इसकी स्थिति दोयम दर्जे की बनी हुई है। हिन्दी के प्रचार-प्रसार में जुटे सैकड़ों संगठन और सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये फूंके जाने के बाद हिन्दी आज अपना अधिकार हासिल नहीं कर पाई है और इसकी महत्ता का गुणगान करने के लिए कौन जिम्मेदार है और इसका भविष्य कैसा होगा, जैसे सवाल हर साल हिन्दी दिवस पर उठाए जाते हैं और अगले ही दिन ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं।

हिन्दी के विद्वानों, पत्रकारों और अन्य बुद्धिजीवियों की राय में हिन्दी की इस दुर्दशा के लिए राजनीतिक नेतृत्व ज़िम्मेदार है। उनकी राय शिक्षा व्यवस्था और रोजगार की नीतियों में बदलाव कर हिन्दी को उसका स्थान दिलाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व को कड़े और निर्णायक फैसले लेने होंगे। विद्वानों की राय में तमाम निराशाजनक स्थितियों के बावजूद हिन्दी का भविष्य सुनहरा है और वह अपना स्थान अवश्य हासिल करेगी।

दोयम दर्जे की स्थिति के लिए सरकारी नीति को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि हिन्दी को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है और उसकी जगह अंग्रेजी आज भी कुंडली मारकर बैठी हुई है। डॉ. राय ने कहा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 'हिन्दी' को संपर्क भी भाषा बनाना चाहते थे। इसलिए हिन्दी को बढ़ावा दिया गया लेकिन आज़ादी के बाद वह दृष्टि लुप्त हो गई और वर्तमान में हिन्दी ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं के स्कूलों की संख्या में भी भारी गिरावट आ रही है और अंग्रेजी माध्यम के स्कूल कुकुरमुत्तों की तरह पनप रहे हैं।

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यह एक भ्रम है कि अंग्रेजी के बिना गति नहीं है, उन्होंने दुःख व्यक्त किया कि हिन्दी प्रदेशों की सरकारें भी अब अंग्रेजी को प्राथमिक शिक्षा में शामिल करने की बात कर रही हैं। उन्होंने अफसोस जताया कि हिन्दी प्रदेशों में अब ऐसी धारणा बनती जा रही है कि विकास करना है तो अंग्रेजी को अपनाना होगा। उन्होंने आरोप लगाया कि सत्ता और सरकारी नौकरियों में काबिज एक खास वर्ग है, जिसके हित अंग्रेजी से जुड़े हैं और वह नहीं चाहता कि हिन्दी को अपना स्थान मिले। उन्होंने कहा कि गांधीजी चाहते थे कि हिन्दी को उसका हक मिले। उन्होंने कहा कि हिन्दी को उसका हक मिलेगा तभी साधारण वर्ग को ऊपर उठने का अवसर मिलेगा।

लोकसभा में कई राज्यों के प्रतिनिधि अपने विचार हिन्दी में व्यक्त करने लगे हैं, भले ही वे शुद्ध भाषा में बात नहीं कर पाते हों । हिन्दी का भविष्य सुनहरा है। उन्होंने कहा कि भारत में अपने उत्पाद बेचने के लिए आ रही बहुराष्ट्रीय कंपनियों को विवश होकर हिन्दी ओर अन्य भारतीय भाषाओं में विज्ञापन बनवाने पड़ रहे हैं, भले ही वे लिखे रोमन लिपि में जाएं। डॉ. सिंह ने कहा कि आज के दौर में हिन्दी के बल पर रोज़गार पाना थोड़ा कठिन हो गया है, लेकिन जब हिन्दी के दम पर रोज़गार मिलने लगेगा तो हिन्दी की स्थिति और मजबूत होगी।

एक जमाने में जहां दक्षिण में विरोध होता था, वहां अब हिन्दी के कई विद्वान हैं। उन्होंने कहा कि मंत्रालयों, सचिवालयों ओर हिन्दी अधिकारियों के अधिकतर पदों पर बैठे दक्षिण के लोग हिन्दी के बहुत अच्छे ज्ञाता है। उन्होंने दुख के साथ कहा कि हिन्दी की दुर्दशा तो असल में हिन्दी प्रदेशों में हो रही है। यह एक भ्रम है कि हिन्दी मान-सम्मान और नौकरी नहीं दिला सकती। हिन्दी का विरोध सिर्फ राजनीतिक वजह से हो रहा है और साहित्य से इसका कोई लेना-देना नहीं है। उन्होंने कहा कि समूचे देश में ही नहीं विश्व के कई विश्वविद्यालयों में आज हिन्दी पढ़ाई जाती है। मारीशस, फीजी, सुरीनाम जैसे देशों में हिन्दी का प्रयोग काफी बढ़ा है और वहां हिन्दी के कई अच्छे विद्वान है। राजनीतिकों के निहित स्वार्थों के कारण हिन्दी हमारे देश में पिछड़ रही है।

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हिन्दी में विश्वभाषा बनने की अर्हता भी है तथा संभावनाएं भी है। यह विश्वभाषा बन सकती है। कुछ समय पहले सूरीनाम में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन में यह प्रस्ताव पारित किया गया था। प्रस्ताव तो लगभग 25 वर्ष पहले भी पारित किया गया था, लेकिन अभी तक उस पर कुछ भी अमल नहीं हुआ हैं प्रश्न यह भी है कि जो भाषा अपने ही देश में अमान्य है, वह सारे विश्व में मान्य कैसे हो सकती है? क्या सचमुच भारत की राजभाषा हिन्दी है? यदि हम कहें कि भारत की राजभाषा हिन्दी है तो इससे बड़ा कोई संवैधानिक झूठ नहीं हो सकता। यह एक प्रकार का संवैधानिक दिवास्वप्न है। सत्य तो यह है कि भारत की राजभाषा अंग्रेजी है। सरकार का सारा काम और खास तौर से मौलिक काम अंग्रेजी में ही होता है। इससे बड़ा कोई ढोंग क्या होगा कि स्वराष्ट्र में तो अंग्रेजी चलती रहे और संयुक्त राष्ट्र में आप हिन्दी चलाएं। भारत की भाषाई गुलामी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि हिन्दी का एक शब्द जाने बिना भी कोई भी व्यक्ति भारत का मुख्य न्यायाधीश बन सकता है, राष्ट्रपति बन सकता है, लोकसभा अध्यय बन सकता है, कैबिनेट सचिव बन सकता है, लेकिन अंग्रेजी जाने बिना वह दफ्तरी बाबू भी नहीं बन सकता।

विश्वभाषा किसे कहें और कोई भी भाषा विश्वभाषा कैसे बनती है? इसका एक मानदंड यह हो सकता है कि संयुक्त राष्ट्र में मान्य भाषाओं को हम विश्वभाषा कहें लेकिन जर्मन, लेटिन और जापानी , आदि भाषाएं जो कभी विश्वभाषाएं थी अथवा जिनमें विश्वभाषा बनने की पूरी संभावना थी, ये भाषाएं संयुक्त राष्ट्र से मान्य नहीं हुई क्योंकि ये भाषाएं पराजित राष्ट्रों की भाषाएं थी। आरंभ में संयुक्त राष्ट्र में जो पांच भाषाएं मान्य हुई, वे अमेरिका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस और चीन जैसे विजयी राष्ट्रों की भाषाएं थी। स्पेनिश भाषा बोलने वाले द्वितीय महायुद्ध में अधिकतर अमेरिका के साथ थे। इसके अतिरिक्त वह लातीनी अमेरिकी भाषा थी, जब इनके पास पैसा आया तो वहां की भाषाएं भी मान्य हो गई। यहां तर्क भाषा की श्रेष्ठता का नहीं था, ऐसा नहीं है कि जो भाषाएं थीं और जो भाषाएं वहां मान्य नहीं हुई वे कमतर अथवा बदतर भाषाएं हैं। यहां तर्क, भाषा की श्रेष्ठता का नहीं अपितु भाषा-भाषी की श्रेष्ठता का था। तर्क श्रेष्ठता का भी नहीं अपितु विजय-पराजय का था ताकत का और पैसे का था।

संसद को बने 50 से अधिक वर्ष हो गए, न्यायालयों को बने 50 वर्ष से अधिक हो गए। क्या इन 50 वर्षों में एक भी कानून भारत की राजभाषा में पारित हुआ है? अथवा क्या एक भी कानून मौलिक तौर से हिन्दी में लिखा गया है? एक 'एक भी कानून न तो मौलिक रूप से हिन्दी में लिखा गया और न ही हिन्दी में पारित हुआ हैं कानून अंग्रेजी में लिखा जाता है, अंग्रेजी में पारित होता है और फिर उसका अनुवाद होता है। हिन्दुस्तान में उच्चतम न्यायालय में क्या एक भी फैसला राजभाषा में हुआ है? सर्वोच्च न्यायालय में स्वभाषा में बहस करना तक नामुमकीन होता है। अगर हिन्दी संयुक्त राष्ट्र में मान्य होती है तो एक आनंद की बात और भी हो सकती है। फिजी, मारीशस, त्रिनिदाद, गयाना आदि दुनिया के लगभग आधा दर्जन देशों में हिन्दी भाषी बहुसंख्या में है। इन भारतवंशी देशों में हिन्दी धीरे-धीरे मरने लगी है। क्यों ने मरेगी ? जब भारत में ही उसकी औकात नौकरानी की सी हो गई है तो परदेश में उसे महारानी कौन बनाएगा ? यदि संयुक्त राष्ट्र में उसे सम्मान मिलेगा तो शायद उन देशों में भी वह पुनर्जीवित हो जाएगी। पूरी खाड़ी में लगभग 30 लाख भारतीय हैं। ये भारत के नागरिक हैं, वहां रहते हैं और आपस में हिन्दी बोलते हैं। पड़ोसी देशों, दुनिया के लगभग 50 देशों में दो करोड़ से भी ज्यादा भारतीय रहते हैं। हालांकि वे अनेक भाषाओं में बोलते हैं लेकिन उन्हें जोड़ने वाली भाषा हिन्दी है। यदि संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि हिन्दी में भाषण देंगे तो इन करोड़ों हिन्दी भाषियों पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा।

जिस देश में मौलिक कामों, सर्वोच्च तथा सर्वश्रेष्ठ कामों में अपनी भाषा का इस्तेमाल ही न हो और हम सोचें कि वह भाषा संयुक्त राष्ट्र में प्रतिष्ठित कर देने से रातोंरात 'विश्वभाषा' बन जायेगी तो हमारी यह सोच बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं है। हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र में लाने तथा वहां हिन्दी बोलने से एक लाभ यह भी होगा कि हमारे जो नौकरशाह हिन्दी में न लिख सकते हैं, न बोल सकते हैं और न पढ़ सकते हैं, उनको मजबूरन हिन्दी में काम करना पड़ेगा। यह बड़ी अटपटी बात होगी कि संयुक्त राष्ट्र में हमारे प्रधान मंत्रियों, मंत्रियों और प्रतिनिधियों के भाषण मूलतः अंग्रेजी में लिखे जाएं और उनका हिन्दी अनुवाद वहां पढ़ा जाए। यह हिन्दी के प्रति दिखावटी प्रेम है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी के मान्य हो जाने पर भारत के प्रधानमंत्री को शायद साहस होगा कि वे अपना भाषण मूल हिन्दी में ही लिखें। संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी के प्रतिष्ठित होने पर हिन्दी को एक लाभ यह भी होगा कि भारत की अन्य भाषाओं का हिन्दी के प्रति सम्मान बढ़ेगा। सब भाषाभाषियों का पता है कि किसी राष्ट्र की एक ही भाषा को अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में आगे बढ़ाया जा सकता है। हिन्दी में विश्वभाषा होने के अनेक गुण पहले से ही विद्यमान हैं। हिन्दी की लिपि बड़ी सरल और वैज्ञानिक है, जो बोलो सो लिखो, जो लिखो सो बोलो। यदि हिन्दी विश्वभाषा के स्तर पर पहुंच जाती है तो दुनिया के पचास देश ऐसे हैं, जो देवनागरी लिपि स्वीकार करेंगे। देवनागरी दुनिया की सबसे सरल और वैज्ञानिक लिपि है। अगर पचास देशों में विशेषतः अफ्रीकी देशों में यह लिपि स्वीकार हो जाए तो हिन्दी की विश्व व्यापक स्वीकृति बढ़ेगी। समस्त भारतीय भाषाओं की लिपियां अलग-अलग दिखाई पड़ती है, लेकिन वे भी मूलतः देवनागरी ही है। चीन के पुराने शिलालेखों की शारदा लिपि भी हिन्दी लिपि ही है। इसके साथ ही संयुक्त राष्ट्र के स्तर पर भी यदि इसकी मान्यता हो जाती है तो इसे 'विश्वभाषा बनाने में आसानी होगी।

- प्रभुलाल चौधरी

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