Hindi Sahitya Mein Vyangya
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हिन्दी व्यंग्य साहित्य की स्थिति और गति
व्यंग्य क्या है? व्यंग्य एक सोद्देश्य रचना है जो नैतिकता एवं सामाजिक यथार्थ के साथ गहराई से जुड़ा होता है। वह पाठक को सही सामाजिक परिवर्तन की ओर अग्रसर करता है। दूसरी बात यह है कि व्यंग्य रचना का पाठक जागरूक बौद्धिक आलोचना की समझ रखनेवाला तथा निर्णय लेने वाला होता है।
वि+अंग = 'व्यंग्य' की व्युत्पत्ति है। संस्कृत साहित्य में व्यंग्य शब्द व्यंजना शब्द शक्ति द्वारा प्राप्त साधारण से कुछ भिन्न अर्थ के रूप में ही प्रयुक्त होता है। हिन्दी भाषा में इसी अर्थ में व्यंग्य शब्द का प्रयोग होता है। इस बात की पुष्टि वीरेन्द्र मेहंदिस्ता के कथन से इस प्रकार होती है- 'व्यंग्य शब्द को संस्कृत से चले आ रहे परंपरागत अर्थ को व्यक्त करने के लिए छोडकर 'सटायर' शब्द के अर्थ बोध के लिए हिन्दी में व्यंग्य शब्द प्रयुक्त किया जाये।"¹ रोम में प्रचलित शब्द saturge लॅटिन में satura बन गया और अंग्रेजी में satire हुआ। कुछ साहित्यकार व्यंग्य विधा को जितना महत्व देना चाहिए उतना नहीं देते हैं। फिर भी आज के जमाने को सुधारना है तो व्यंग्य विधा को प्राधान्य दें ऐसा मेरा मत है। पाश्चात्य साहित्य में व्यंग्य के संदर्भ में गलत धारणा रही है । वे समझते हैं कि व्यंग्य 'सहानुभूतिहीन क्रोध का इंजिन' है। परंतु आज व्यंग्य को साहित्य की एक स्वतंत्र विधा का दर्जा दिया गया है। हिन्दी साहित्य में प्रसिद्ध कई व्यंग्यकार हो गये हैं जैसे हरिशंकर परसाई, रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरदजोशी, शंकर पुणतांबेकर, प्रोफेसर बापू देसाई आदि कई लेखकों ने व्यंग्य विधा को महत्व देकर उसे सर्वोच्च शिखर पर बैठाया है।
व्यंग्य का साहित्य में महत्व : व्यंग्य की विधा साहित्य में जीवन से साक्षात्कार करती है, जीवन की आलोचना करते हुये विसंगतियाँ, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दा फाश करता है.... जीवन के प्रति व्यंग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है, जितनी गंभीर रचनाकार की, बल्कि ज्यादा ही वह जीवन के प्रति दायित्व अनुभव करता है.... अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे बड़ा उत्कृष्ट रूप होता है। व्यंग्य में साहित्यिकता और हास्य का समावेश होना आवश्यक है, अन्यथा गाली गलौज का रूप धारण कर लेगा । व्यंग्य के द्वारा हम व्यष्टि और समिष्ट को सुधारना चाहते हैं । और इसी कारण व्यंग्य की समाज में महत्ता है। जो लोग स्वयं की कुछ बुरी प्रवृत्तियों को छोड़कर सुधार होना चाहिए वे व्यंग्य से सुधर भी जाते हैं। इसीलिए मराठी में कहा है- 'निंदका चे घर असावे जवळी' । अर्थात् निदंक हमारे पास रहा तो हमारी बुरी बातें, आदतें सुधर जाती हैं। इसी बात को कबीरजी भी स्वीकार करते थे। डॉ. मलय जी ने ठीक ही लिखा है- 'व्यंग्य एक ऐसी विधा है कि वह अपनी भूमिका से भविष्य में आलोचनात्मक यथार्थ का वाहक होता है । वह अपने रुख और रुझान का अनुकूल विकास करता जाए तो जन-जन को क्रांतिकारी संवेदना से जोड़ सकता है।²
आज व्यंग्य के लक्ष्यों में बदलाव आ गया है। इसकी सोद्देश्यता बढ़ गयी है । उसी प्रकार क्षमता भी बढ रही है। इसी कारण आज साहित्य में व्यंग्य ने सीमा लांघकर सम्पूर्ण कृति को संरचना में समेट लिया।
वर्तमान युग में स्थितियाँ बदल गयी हैं। व्यंग्य मानव जगत के दोषों, कमियों, विकृतियों, मूर्खतापूर्ण प्रलाप, व्यभिचार, बलात्कार को इस प्रकार खदेड रहा है जिससे पाठकों के मन में घृणा ही रही है। इसीलिए व्यंग्यकार को इस विधा का प्रयोग करते समय उचित शब्दों का प्रयोग करना चाहिए और अति न हो यह भी ध्यान रखना चाहिए । व्यंग्य को महीन छुरी जैसा प्रयोग करना चाहिए। व्यंग्यकार को कथनी और करनी का भी ध्यान रखना चाहिए नहीं तो ऐसा न हो कि व्यवस्था पर व्यंग्य करते-करते सरकारी प्रतिष्ठानों में घुसने की चेष्टा करें। मुनाफाखोरों पर व्यंग्य करते-करते साहित्यिक समारोहों में चन्दा लेकर उनको ही पदासीन करें। सिफारिश की प्रथा पर व्यंग्य लिखेंगे साथ में सिफारिश कराने के लिए मंत्रियों के तलुए चाटेंगे। नेताओं पर व्यंग्य करेंगे, साथ में विविध पुरस्कार प्राप्त हो इसीलिए उनके अभिनंदन ग्रंथ का संपादन करेंगे।
जिस देश की जनता हजारों वर्षों से आक्रमण, अत्याचार, गरीबी, निराशा सहन करती हुई अपने कतिपय मूल्यों, विश्वासों से जुड़ी रही हैं, उसमें जिंदा रहने के लिए 'सेन्स ऑफ ह्यूमर' होना आवश्यक है। इसके बिना जिंदगी का संघर्ष संभव नहीं । हिन्दी जब सामान्य जन के भाषाई रंग और मस्ती में रहेगी व्यंग्य अधिक लिखा जायेगा। आज व्यंग्य जूझता हुआ दुनिया को समझने की कोशिश में अपने को दुरुस्त और बेहतर करने में लगा है। 21 वीं शताब्दी में व्यंग्य विधा ने अपनी सीमाएँ इतनी अधिक बढ़ा ली है कि वह कहानी, कविता, नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि में न सिमटकर पत्र-पत्रिका में भी फलने-फूलने लगा है। व्यंग्य ने अपनी गति बढ़ा ली है। परिणाम स्वरूप हरिशंकर परसाई, बरसानेलाल चतुर्वेदी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी आदि दिग्गजों की पहली पीढ़ी से लेकर आज की पीढ़ी तक जैसे यशवंत व्यास, अलका पाठक, जब्बार ढाकवाला, पूरन सरमा, वीरेन्द्र जैन, राजेश कुमार, महेन्द्र वसिष्ठ, विजय अग्रवाल आदि के नाम बडे सन्मान से लिए जाते हैं। यशवंत सिन्हा की 'जो असहमत हैं सुने, अलका पाठक की 'समझौतों का देश', जब्बार ढाकवाला की 'बादलों का तबादलों से संबंध', विजय अग्रवाल की कूड़ेदान की आत्मकथा' सिनेमा और समाज आदि रचनाएँ पाठकों को रुचिपूर्ण महसूस हुयी हैं। अतः वे लोकप्रिय रहीं।
व्यंग्य आलोचना में भी अपना स्वरूप ग्रहण करते जा रहा है इसमें भी पर्याप्त सुधार की गुंजाइश है। व्यंग्य आज साहित्य में निम्न माध्यम से अभिव्यक्त होता है जैसे- स्वागतकथन, पैरोडी, वृतांत।
- प्रा. डॉ. जंघाले झेड. एम.
संदर्भ;
1. आधुनिक हिन्दी साहित्य में व्यंग्य : वीरेन्द्र मेहंदिस्ता
2. व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र : डॉ. मलय
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