Kabir Ki Sadhna aur Uska Swaroop : Sant Kabir Das
कबीर की साधना और उसका स्वरूप
भारतीय साहित्य का इतिहास प्रारंभ से लेकर आज तक हमें यह बतलाता है कि हमारे देश में सांस्कृतिक एवं साहित्यिक चेतना तब उत्पन्न हुई जब किसी बाह्य सभ्यता से उसका संपर्क हुआ। जब आर्य और अनार्य संस्कृति का मिलन हुआ तो वेदों का महत्व हम जानने लगे। हमारे साहित्य में प्रारंभिक रूप अलौकिकता का रहा है किन्तु समय और परिस्थितियों ने उसे लौकिकता में आबद्ध कर दिया है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास इस प्रकार के मोड़ और परिवर्तन का अच्छा परिचय देता है। व्यक्ति की श्रृंगार प्रियता, लौकिक प्रतिष्ठा और लिप्सा साहित्य में मुखरित होने लगी । इस्लामी संस्कृति के संघर्ष ने हमारे परम्परा अनुगत मूल्यों को झकजोर दिया। इस्लाम के पूर्ष ही भारत वर्ष में ब्राह्मणों के कृत्रिम धर्माडम्बरों के विरुद्ध एक भीषण क्रांति उत्पन्न हुई। जिस का परिणाम हम बौद्ध तथा जैन धर्म के उत्थान के रूप में पाते है। बौद्ध, जैन धर्मावलम्बी तथा नाथ संप्रदाय के लोग इस अवसर से अच्छा लाभ उठा रहे थे।
चौदहवीं शताब्दी में नामदेव की भक्तिधारा सूफी संप्रदाय और दक्षिण की वैष्णव भक्ति पद्धति उत्तरा पथ में व्याप्त होने लगी थी। इसके पूर्व भक्ति के प्रति निष्ठा एवं विश्वास नहीं के बराबर था। सच बात तो यह है कि इन धर्मो में आध्यात्म तत्व की प्रवृत्ति अपेक्षाकृत कम ही दिखाई पड़ती थी, इसी मोड़ पर कबीर का प्रार्दुभाव हुआ। कबीरदास युगद्रष्टा थे अपितु युग- स्रष्टा भी थे। वे समर्थ समय संचालक थे। वे समय के महत्व को जानते थे। उन्होंने जन साधारण की भावना को पहचान कर धार्मिक धारा का अध्ययन किया और अपने विचारों को एक नया रूप और प्रदान किया। कबीर ने अपनी भक्ति पद्धति में ब्रह्म को प्रमुख स्थान दिया। यह ब्रह्म कबीर की दृष्टि में निराकार निर्गुण और सर्वज है। उन्होंने इस ब्रह्म को कहीं राम, कहीं गोविन्द और कहीं ख़ुदा आदि के रूप में स्वीकार किया है।
कबीर के आराध्य देव निर्गुण ब्रह्म है। कुछ विद्वानों का कथन है कि निर्गुण ब्रह्म की उपासना भारतीय साधना क्षेत्र की परिधि से बाहर की वस्त है। किन्तु यह बात कुछ असंगत सो लगता है। विद्यारण्य स्वामी ने वेदान्त पर जो पंचदशी लिखा है, उसमें निर्गुण उपासना को मान्यता दी गयी है। वेदान्त ब्रह्म सूत्र में लिखित 'ब्रह्म जिज्ञासा" ईश्वर विषयक भक्ति का द्योतक है।
कबीर ने अपनी भक्ति को नारदीय भक्ति सूत्र के रूप में स्पष्ट किया है। भक्ति निष्काम भाव से की जाती है और कबीर इस पक्ष के समर्थक थे। कबीर की भक्ति शुद्धभाव की भक्ति है । उन्होंने सर्वभाव से आत्म समर्थन किया है। वस्तुतः यह आत्मसमर्पण की भावना जिसमें साधक की आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए तड़पती और तरसती है, कबीर की वाणियों में वह इतनी मुखर हो उठी है कि हमें निर्सगत यह संदेह होने लगता है कि अन्तरुपही के प्रति एक देहधारी में ऐसा क्यों हो सकता है?
महात्मा कबीर ने इस प्रकार की अनुभूतियों में निमग्र होकर जो पद लिखे है, उनमें एक प्रकार का रस प्रवाहित होता है। साधक कबीर उस काव्य सागर में अपने आपको निमज्जित कर देते है। जितनी तडपन एवं मर्म परिवेदना उस अलौकिक द्वैताद्वैत विलक्षण प्रिय की साहचर्योपलब्धियों में है, वैसी व्यथा शायद ही किसी लौकिक प्रेमी- प्रेमिकाओं में होता है। साधक कबीर एक सच्चा विरहणी की भाँति प्रलाप और विलाप करते हैं किन्तु उनका प्रियतम राम बड़ा निर्मोही है। उस सौभाग्यशाली जिनकी प्रतिमा में है, उनके गले राम आकर विरही कबीर से गले लग गये।
- टी. मीना कुमारी
ये भी पढ़ें; कबीर महिमा | Sant Kabir Das par kavita | Poem on Kabir