Laghukatha by B. L. Achha
फीको-फच्च, मीठो-गट्ट
- बी. एल .आच्छा
लोग गंवई या गाँवड़ेल कह देते हैं, जब भी बातचीत के देसी अंदाज में कहता-सुनता हूँ। मगर खुशी हो या गम, कामकाजी बोझ हो या निठल्लापन , खाने का स्वाद हो या बेस्वाद। इसे जस का तस कहना आला दर्जे के साहित्यकारों के बस का नहीं होता। न उनकी वैसी बॉडी लैंग्वेज ही। अब देसी जबान और देसी बॉडी लैंग्वेज देखने-सुनने को मिल जाए तो दर्द भी स्वाद बन जाता है। सुनकर हो भीतर में हंसी फूट पड़ती है।
इस बार दादी जी बीमार हो गयीं। उम्र का तकाजा तो था ही। पर पसलियों का दर्द इतना था कि शिष्टाचार की थर्मामीटर- भाषा में कहना मुश्किल। डॉक्टर साहब देखने आए तो वे बोली-"डाकदर सा, दरद घणो है। म्हारी तो पिंडी फाटे है।" डॉक्टर साहब ने कहा-" यहाँ अस्पताल में आराम हो जाएगा।" पर अस्पताल के खर्चों को देखकर वे बच्चों से बोली -"इतरो खरचो देख- देख ने म्हारे कालजा में घुँओ उठे है।" बच्चों ने कहा-" माँ, आपने हमें पाला है, तो हमारा भी फर्ज बनता है।"
पर वे बोली-" या बात तो है, पर थारी जेब स्यूँ इतरा पईसा खरच देखता जीव घणों दुख पावै!" बहुओं ने पूछ लिया-अब थोड़ा आराम है?"वे बोली-" काँई आराम कोनी सारा दन माथो भनन-भनन करे है।" बहू ने कहा- "तो बाम मसल दूँ?" वे बोली- माथो ठीक बी हुजावै तो पेट में कुलल- कुलल होय है।" बेटे ने कहा - "आपको पेट साफ होने की दवा दी है, थोड़ी देर में फरक पड़ेगा।
उनसे रहा नहीं गया। बिस्तर पर पड़े करवट बदलते वे बोली- "कालजे में कुलमुलाट सी होवै है।" बहुओं ने पीठ पर हाथ फेरा। थोड़ा सहलाया। पर वे बोल पड़ी -"दाँत बी कुलै है।" बहुओं ने कुछ पूछना - बतलाना शुरु किया तो मुँह बिचकाती बोल पड़ी - "जी सो उठे है। दो जणां बोलेड़ा बी कोनी सुहावै है।"वे सब चुप हो गये। दादी जी पैर थोड़ा ऊपर करके बोली- "गोड़ा बी चूँ चूँ करे है। कान में बी संई- संई होरी है।"
सभी पस्त हो रहे थे। आखिर कहाँ- कहाँ से क्या क्या ठीक करें ।पर वे दरद छिपा नहीं पा रही थी। बुढ़ापे का शरीर, हर हिस्सा अपना दर्द जबान पर लाने को मजबूर। पर वे कहे जा रही थी- "कालजे में धकल- बकल लाग री। जी सोरो कोनी।" अब घर के लोग पस्त। क्या क्या देखे! कितने ही स्पेशलिस्ट देखें तब भी कम ही। थोड़ी देर बाद उनको कुछ खाने को दिया तो बोली - हाबत फीको- फच्च है। सवाद कोनी।" खैर शाम होते होते आम खाने को दिए तो बोली-"यो आंबो तो मीठो-गट्ट है।" घरवालों के चेहरे पर थोड़ी हँसी और थोड़ी तसल्ली उभर आई।
- बी. एल. आच्छा
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