31 July Premchand Birth Anniversary 2024 : Kalam Ka Sipahi
Kalam Ka Jadugar Premchand Jayanti 2024 : 31 जुलाई को जनमानस के प्रिय रचनाकार मुंशी प्रेमचंद की 143वीं जयंती है। बनारस के लमही में 31 जुलाई 1880 को पैदा हुए इस लेखक अपनी रचना सोजे वतन के लिए ब्रिटिश हुकूमत से सजा भोगी। Premchand Jayanti 2023 पूरा देश उन्हें नमन कर रहा है। प्रेमचंद हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय कहानीकार, उपन्यासकार एवं विचारक थे। वे आदर्शोन्मुख यथार्थवाद रचनाकार थे। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की 144वीं जयंती पर विशेष लेख "प्रेमचंद के उपन्यास साहित्य में मध्यवर्गीय चेतना", कालजयी उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद जयंती पर निबंध हिंदी में। 31 July Munshi Premchand Birth Anniversary 2024..
प्रेमचंद के उपन्यास साहित्य में मध्यवर्गीय चेतना
हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई, सन् 1880 लमही गाँव के एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। मुंशी प्रेमचंद का बचपन का नाम "धनपत राय श्रीवास्तव था", छोटी उम्र में ही उनकी माता का देहांत हो जाने के पश्चात् विमाता के निष्ठुर व्यवहार से उनके बचपन की कोमलता शीघ्र ही समाप्त हो गई। सोलह वर्ष की आयु में पिता का भी स्वर्गवास होने से सहज ही सौतेली माँ के स्नेह व प्यार से वंचित प्रेमचंद ने परिवार का भरण-पोषण, अर्थाभाव, पीड़ा आदि समस्याओं को देख लिया था। ऐसी विषम परिस्थितियों में प्रेमचंद का कलाकार उभरा और उन्होंने जो देखा और पाया, उन कटु अनुभवों को खुद सहकर, अपने लेखन में रचा है। इसलिए प्रेमचन्द का सत्य समाज का सत्य है और उनकी वाणी भारतीय जनता की भविष्यवाणी बन गई है। उनका साहित्य अपने युग की संपूर्ण परिस्थितियों का लेखा-जोखा भी है और साथ ही नवीन चेतना की किरण भी। उनका साहित्य मध्यवर्गीय समाज की समस्याओं को लेकर चला। उपन्यासकार ने तत्कालीन समाज में फैली कुरीतियों, आर्थिक विषमताओं, अन्धविश्वासों, दहेज प्रथा, मध्यवर्ग की आर्थिक विषमता, अनमेल विवाह, वेश्या प्रथा, जमींदारी प्रथा, महाजन की शोषण वृत्ति, किसान जीवन का संघर्ष तथा टूटते मानव मूल्य आदि का जीता जागता चित्रण अपने - साहित्य में किया जो सामाजिक परिस्थितियों तथा मध्यवर्गीय जीवन स्थितियों व समस्याओं का प्रतिबिंब है।
प्रेमचन्द का साहित्य अपने समय के समग्र भारतीय चिन्तन का साहित्य है। विशेषतः उन्होंने अपनी रचनाओं में किसान तथा मध्यवर्गीय जीवन की ज्वलंत समस्याओं को लेकर उनके समाधान ढूंढने की कोशिश की। डॉ. प्रताप नारायण टंडन जी का कहना है- 'समाज के विभिन्न वर्गों के नैतिक पतन के फलस्वरूप जो दुष्परिणाम सामने आते हैं, उनकी ओर संकेत करते हुए लेखक ने उनके मूल कारणों पर भी प्रकाश डाला है। दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्या-समस्या आदि पर लेखक ने जो विचार प्रस्तुत किये हैं, वे उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण के परिचायक हैं।
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प्रेमचन्द के साहित्य में मध्यवर्ग के तीन श्रेणियों के पात्र मिलते है- 1. उच्च मध्य वर्ग, 2. मध्य वर्ग, तथा 3. निम्न मध्य वर्ग। भारत के मध्य वर्ग के पास समाज के सारे संस्कारों की पूंजी है और मानव मूल्यों के प्रति सर्वाधिक जागरूकता भी है। इस वर्ग की दृष्टि अपने से ऊपर के जिस उच्च वर्ग की ओर रहती है, उस वर्ग की पहली और अंतिम चिन्ता हे 'अर्थ', जबकि निम्न मध्य वर्ग की पहली चिन्ता है 'पेट'। निम्न मध्यवर्ग के जठरानल से ग्रस्त होने से उन्हें न समाज की चिन्ता होती है, न राज्य की । प्रेमचन्द स्वयं इसी मध्य वर्ग से आये थे और उनकी चेतना, आशा, आकांक्षा आदि को अभिव्यक्ति देने वाले सशक्त कलाकार थे। उनके पात्र मुख्यता इसी वर्ग से निकल कर आये हैं। अतः उनके उपन्यासों में मध्य वर्ग की मनीषा, अर्थाभाव, झूठी शान, उसके व्यवहार, उसकी विवशता एवं विडंबना, दहेज-प्रथा, अनमेल विवाह, वेश्या - समस्या आदि की सफल अभिव्यक्ति हुई है।
साहित्यकार सार्वभौमिक और सार्वकालिक हुआ करता है। प्रेमचन्द इसके प्रमाण हैं। वे एक सजग और सचेत लेखक होने के कारण उनके आगमन से हिन्दी उपन्यास- साहित्य में युगांतरकारी परिवर्तन होने के साथ-साथ उपन्यास-विधा भी अपने परिष्कृत रूप में विकसित हुई। उनके प्रथम उपन्यास 'सेवासदन' से लेकर 'गोदान' तक के श्रेष्ठ उपन्यासों में भारतीय जीवन, खासकर मध्य वर्गीय जीवन का महज एवं वास्तविक चित्रण प्रस्तुत किया गया है। मानव मूल्यों के प्रति उनके प्रगतिशील दृष्टिकोण, मध्य वर्गीय परिवारों में उत्पन्न होने वाली समस्याओं का परिष्कार, उनके विकासोन्मुख तत्त्व आदि भारतीय जन-जीवन की अस्मिता की खोज का दर्पण है।
उनका प्रथम उपन्यास 'सेवासदन' में सर्व प्रथम सामाजिक समस्याओं का व्यापक तथा यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है, जिसके द्वारा हिन्दी उपन्यास साहित्य के विकास में नई चेतना, नई दृष्टि, नया शिल्प आदि की दृष्टि से नया मोड उपस्थित किया गया है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने अर्थाभाव के कारण मध्यवर्गीय व्यक्ति की पतनोन्मुख अवस्था का उपन्यास का नायिका सुमन की मनोवैज्ञानिक पारिवारिक एवं सामाजिक परिस्थितियों का वास्तविक एवं सजीव चित्रण के द्वारा व्यक्त किया। सुमन अंत तक दो सामाजिक मान्यताओं की शिकार रहती है, वेश्यावृति त्याग देने पर भी समाज फिर से उस स्वीकार नहीं करता। तक कि वेश्याओं को उस गंद समाज में अलग रखकर पा लिखा देने पर भी समन को यह विश्वास नहीं होता कि समाज उन्हें ग्रहण करेगा ही। इसलिए वह सुभद्रा से कहती है- हमारा कर्तव्य है कि इन कन्याओं को चतुर - ग्रहिणी बनने योग्य बना दें। उनका आदर समाज करेगा या नहीं, नहीं कह सकती।' 'सुमन' पात्र के चित्रण में प्रेमचन्द ने सुधारवादी दृष्टिकोण करें सूक्ष्म और कलात्मक रूप दिया है जिसमें मध्यवर्गीय आदर्श प्रतिबिंबित हो जाता है। इसलिए शर्माजी सुमन के बारे में मन ही मन कहते हैं 'वह खी, जो इतनी साध्वी तथा सच्चरिता हो सकती है, केवल मेरे कुसंस्कारों के कारण कुमार्ग-गामिनी बनी। मैंने ही उस कुएं में गिराया। इस उपन्यास में लेखक ने नारी के प्रति सहानुभूति दिखाकर एक और समाज में नारी की करुण-स्थिति का चित्रण और दूसरी ओर उसकी नैतिक शक्ति और दुर्बलताओं का चित्रण मार्मिक ढंग से किया है।
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'प्रेमाश्रम' में ग्रामीण जीवन में व्याप्त दरिद्रता, कृषक और जमींदार के संघर्ष, जमींदारी प्रथा, गाँधी दर्शन आदि को प्रस्तुत किया है। मध्यवर्ग की धन-लोलुपता, स्वार्थपरता आर अत्याचारी प्रवृत्तियों का यथार्थ चित्रण इसमें मिलता है। मनोहर का बेटा बलराज नई पीढ़ी का उग्र नवयुवक है। वह मरने-मारन तक की चुनौती देता है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने आगामी युग की आहट लेते हुए बलराज के द्वारा बड़ी पीढ़ी के लोगों से कहलाया है तुम सहते रहा। हम नहीं सह सकते। तुम तो दो-चार दिन के मेहमान हो, जो कुछ पड़ेगी, हमारे ही सिर पड़ेगी। जमींदार कार्ड बादशाह नहीं है कि चाहे जितनी जबरदस्ती करे और हम मुँह न खाल। इस ज़माने में तो बादशाहों का भी इतना अख्तियार नहीं, जमादार किस गिनता में है।
बलराज के इस रूप से निश्चय ही पता चलता है यह प्रेमचन्द का ही मानस-सृष्टि है और व किसान एवं मजदूरों की चेतना एवं पंचायत राज की कामना करते हैं। यह प्रेमचन्द-युग से आगे को झलक है।
'निर्मला' उपन्यास दहेज प्रथा और अनमेल विवाह की समस्या पर केंद्रित होकर लिखा गया है। उपन्यास क कथावस्तु मध्यवर्गीय समाज पर केन्द्रित है। प्राचीन भारतीय सामाजिक परंपरा के अनुसार नारी का विवाह अनिवार्य माना गया है। निर्मला की मां विधवा थी। उसने अपनी आर्थिक अभावग्रस्तता के कारण निर्मला का विवाह तीन बच्चों पिता के वकील तोताराम से करा दिया। कल्याणी कहती है वह रूपवती है, गुणशीला है, चतुर है, कुलीना है, हुआ करे दहेज हो तो सारे दोष गुण है। प्राणी का कार्ड मूल्य : नहीं, केवल दहेज का मूल्य है। कितनी विषम भाग्यलीला है। प्रेमचंद ने दहेज को ही मुख्य समस्या मानकर उपन्यास की रचना की है और इसका समाधान भी उसने सुधा के मुख से कहलाया है कि यह वर का धर्म है कि यदि वह स्वार्थी के हाथों बिलकुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे।'
इसमें एक ओर उन्होंने दहेज प्रथा पर कटु व्यंग्य किया है, तो दूसरी ओर उससे विकसित होने वाले भयंकर दुष्परिणामों को भी शिक्षित समाज के सामने रखा है। निर्मला में धर्म और कठिनाइयों को सहन करने की असीम शक्ति है। फिर भी वह एक मध्यवर्गीय नारी होने के कारण, उसमें साहस का अभाव होने से, किसी भी परिस्थिति में विद्रोह नहीं कर पाती । उसके मानसिक वैषम्य और दुर्बलता का बड़ा सशक्त चित्रण प्रेमचन्द ने किया है।
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'गबन' प्रेमचन्द की महत्त्वपूर्ण रचना है जिसमें मध्यवर्ग की एक बड़ी लाचारी यह है कि वह गरीब होने पर भी यह नहीं चाहता कि लोग उसे गरीब समझे। इसमें लेखक ने मध्यवर्ग की अर्थिक समस्या तथा झूठी शान की प्रवृति का चित्रण किया है। उपन्यास की नायिका 'जालपा' का आभूषण-प्रियता का लोभ है। इसीलिए रमानाथ को अपनी झूठी प्रशंसा, नकलचीपन तथा उच्चता बनाये रखने के लिए कर्ज लेकर गहने बनावाना पड़ता है। लेकिन कर्ज चुकाने के लिए दफतर के रुपये गबन करके भाग जाता है। गबन के तीन मुख्य पात्र है, रमानाथ, जालपा और रतन जिनमें प्रत्येक का आर्थिक परिवेश भित्र भिन्न है। रतन के पति जब जीवित थे तब तक वही घर की मालकिन और लाखों क संपत्ति की अधिकारिणी थी। लेकिन वकील साहब की मृत्यु से, दूर का भतीजा घर का मालिक बन बैठता है। तब वह अपनी वेदना को इस प्रकार व्यक्त करती है, जिसमें समस्त विधवा जाति की पीड़ा छिपी हुई है-
'न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था। अ ईश्वर कहीं है और उसके यहाँ कोई न्याय होता है, तो एक दिन उसी के सामने उस पापी से पूगी, क्या तेरे घर में माँ-बह न थी ? तुझे उनका अपमान करते लज्जा न आई ?....... बहिनो, किसी सम्मिलित परिवार में विवाह न करना। अगर करना है, तो जब तक अपना घर अलग न बना लो, चैन क नींद मत सोना।' इस कथन में रतन की करुण पुकार, हृदय का आक्रोश तथा सम्मिलित परिवारों की नारियों में चेतना लाने की कोशिश का चित्रण मार्मिक शब्दों में अंकित किया गया है। इस उपन्यास में नारी जागरण के चिह्न साफ दृष्टिगोचर होते हैं। वह अपने अधिकारों के प्रति सजग है। वहीं परंपरागत स्थिति से संतुष्ट तो नहीं है, फिर भी कार्ड क्रांतिकारी कदम नहीं उठा पाती। डॉ. प्रताप नारायण टंडन का कहन है- मध्यवर्गीय आडंबर वृत्ति और खोखलेपन का जैसा चित्रण 'गबन' में मिलता है, वह विश्वसनीयता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।'
'कर्मभूमि' में प्रेमचन्द ने मुख्यतः मध्यवर्ग की राजनैतिक चेतना, धार्मिक पाखण्ड, छुआछूत, आर्थिक वैषम्य, विवाह, प्रेम एवं पारिवारिक समस्याओं का चित्रण , प्रस्तुत किया है। नारी की आभूषण-प्रियता की समस्या को सामाजिक और आर्थिक समस्या के रूप में ग्रहण किया है और समाज सुधार की दृष्टि से उस पर गंभीरता से विवाह किया है। प्रेमचन्द आदर्शवादी होने के नाते भारतीय नारी के त्याग और क्षमा की मूर्ति समझते हैं। अतः संकट के समय नारी अपने आभूषणों का त्याग करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाती।
'कर्मभूमि' में मखदा भी अपने ससुर को गहने लौटा देती है और स्वाभिमानिनी की भाँति स्पष्ट कह देती है कि फिर से उन गहनों की ओर ताकना भी वह पाप समझती है। पति रमाकान्त सकीना के प्रेम में बिना कुछ कह अपनी पत्नी को छोड़कर चला जाता है, तो प्रेमचन्द उसके मन का विद्रोह इस प्रकार प्रकट करते हैं ऐसे आदमियों की सजा यही है कि उनकी स्त्रियाँ भी उन्हीं के मार्ग पर चलें। जो कहे, उसकी स्त्री उसके पाँव धो-धोकर पियेगी, उसे अपना देवता समझेगी, उसके पाँव दबायेगी और वह उससे हँसकर बोलेगा तो अपने भाग्य को धन्य मानेगी।' इन शब्दों के द्वारा नई सामाजिक विषमताओं का फलस्वरूप मध्यवर्गीय नारी का मानसिक चित्रण तथा वैवाहिक जीवन की असफलता का मार्मिक चित्रण एवं उसकी सजगता को प्रस्तुत किया गया है।
गोदान हिन्दी साहित्य की एक युग प्रवर्तनकारी रचना है। गोदान के युग की नारी यह मानने को तैयार नहीं कि संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल भिन्न है। गोदान की 'सरोज' नारी-स्वातंत्र्य आंदोलन का पक्ष लेती है और कहती है-युवतियों अब ब्याह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह अब केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी। यहाँ सरोज जागरित चेतनाशील नारियों का प्रतीक है।
गोदान भारतीय किसान के जीवन संघर्ष की दुःखभरी गाथा है। इसकी कहानी का केन्द्र बिन्दु किसान है। अतः अन्य कृतियों की तुलना में इसमें मध्यवर्ग कम स्थान प्राप्त कर सका है। फिर भी इसमें मध्यवर्गीय जीवन के संश्लिष्ट चित्र खोजे जा सकते हैं।
प्रेमचन्द का मत था कि साहित्यकार को आदर्शवादी होना चाहिए। भारतीय राष्ट्रीय जागरण एवं जन- चेतना तथा जीवन के वास्तविक संघर्ष का जितना प्रतिबिंब उनकी कृतियों में मिलता है, उतना उस समय के दूसरे लेखक की रचनाओं में नहीं मिलता। प्रेमचन्द के उपन्यासों के आदि और अर्द्धविकास से ही अन्न का पता चल जाता है। उनकी रचनाओं में तत्कालीन सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था के प्रति मध्यवर्ग का शोषण तथा असंतोष व्यक्त हुआ है। मध्यवर्गीय विडंबना और मुलंबेबाजी का कटु सत्य और करुणा इनकी रचनाओं में प्रतिबिंबित होते हैं। इनके सभी पात्र मध्यवर्ग की कुंठा से ग्रस्त होन पर भी सबसे अधिक चेतनशील, भाव-प्रवण और संवेदनशील दिखाई देते हैं।
- केवीएल. कामेश्वरी
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