Children's Hindi Literature : Children's Stories in Hindi -
Children's Poetry in Hindi
बाल साहित्य : बाल कहानियां | बाल कविताएं | Children's Hindi Literature
बाल साहित्य : बालकों में अध्ययन के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए लिखा जाने वाला साहित्य को बाल साहित्य कहते हैं। वास्तविक बाल साहित्य वह है जिससे बालकों में मानसिक, शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। बाल साहित्य मुख्य रूप से 4 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। "हरिकृष्ण देवसरे" भारत के पहले बाल साहित्यकार है जो मध्यप्रदेश से ताल्लुक रखते हैं। बाल साहित्य में पहले पीएचडी करने वाले व्यक्ति भी "हरिकृष्ण देवसरे" ही है।
बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक कथाओं और कहानियों और मनोरंजन का अथाह सागर बाल साहित्य में होता है। बालकों के रुचियों और इच्छाओं को ध्यान में रखकर बाल साहित्य लिखा जाता है। आज के बालक कल के देश का भविष्य होते हैं, हमारा फर्ज है की हमें उन्हें अच्छा ज्ञान और अच्छे संस्कार दे। बचपन हमारे जीवन का वह हिस्सा है जो हमें इच्छाओं के पंख लगाकर आसमान में उड़ाता है, कल्पनाओं के सागर में घुमाता है और नए नए कार्य करने के लिए लालायित करता है।
बाल साहित्य का अर्थ एवं परिभाषा : सरल अर्थ में बाल साहित्य का अर्थ है, बालकों के नजरियों से बालकों के लिए उन्हीं में भाषा में लिखा गया साहित्य, बाल साहित्य कभी कभी बालकों द्वारा भी लिखा हुआ हो सकता है। बाल साहित्य शब्द बाल और साहित्य दो शब्दों से बना है। बाल अर्थात नन्हा मुन्ना बालक या बच्चा।
साहित्य समाज का दर्पण होता है और बाल साहित्य बालकों के अन्तर्मन का प्रतिबिम्ब। बाल साहित्य बच्चे के सहज, सरल मन का दर्पण होता है, वहीं बाल गोपाल की अठखेलियाँ, - बाल सुलभ चेष्टायें, नटखटपन, कल्पनाशीलता, क्रीड़ायें आदि बाल साहित्य की जान होती हैं। बाल रचनायें पढ़कर बालकों का तदनुरूप भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक, मानसिक, आत्मिक, संवेदनात्मक उत्कर्ष होता है। सार स्वरूप कहा जा सकता है कि श्रेष्ठ बाल साहित्य की नींव पर ही उत्तम समुन्नत, सम्यक स्वस्थ समाज रूपी भवन खड़ा किया जा सकता है यशस्वी बाल रचनाकार दीनदयाल शर्मा का बाल साहित्य सुन्दर एवं स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में महती भूमिका का निर्वहन करने में पूर्णरूपेण सक्षम हैं।
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सर्वप्रथम बाल साहित्य को तीन रूपों में विभक्त किया गया है- 1. शिशु साहित्य, 2. बाल साहित्य, 3. किशोर साहित्य
1. शिशु साहित्य
छः साल तक के बालक के लिए लिखा गया साहित्य शिशु साहित्य की श्रेणी के अंतर्गत माना गया है। शिशु का अनुभव जगत बहुत सीमित होता है और कल्पना क्षेत्र बहुत विस्तृत । अतः इनके लिए अति सहज, सुग्राह्य भाषा में लघु आकार की रचनाएँ लिखी जाती हैं यथा लौरी, प्रभाती, खेल गीत, अभिनय गीत, निरर्थक गीत, कल्पना प्रधान छोटी-छोटी कहानियाँ, पहेलियाँ, चुटकुले इत्यादि । कठपुतली के नाटक, विभिन्न मुद्रओं वाली नृत्य नाटिकाएँ भी शिशुओं के प्रिय रहे हैं। इनके विषय पशु-पक्षी, फूल-पत्तियाँ, प्राकृतिक उपादान रहे। शिशु सुनकर और देखकर साहित्य का आस्वादन करता है। लोरियाँ, प्रभातियाँ, कहानियाँ आदि सुनकर वह प्रमुदित होता है। नाटक, नृत्य आदि को देखकर वह उल्लसित होकर नाचने तक लग जाता है। शिशु साहित्य की भाषा बहुत सरल, सहज होती है इसमें एक भी शब्द ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे शिशु आत्मसात नहीं कर सके।
डॉ. नागेश पाण्डेय के अनुसार 6 वर्ष तक के बालकों के लिए रचित साहित्य शिशु साहित्य कहलाता है। शिशुओं के अनुभव एवं शब्दकोश अत्यंत सीमित और कल्पनाक्षेत्र अत्यन्त विचित्र होता है। अस्तु, उनके लिए अति सरल, सहज एवं सुग्राह्य विषयवस्तु की आवश्यकता है।
2. बाल साहित्य
छः वर्ष के बाद बालक की दुनिया धीरे-धीरे बदलने लगती है। वह घर, परिवार, विद्यालय, समाज, देश के बारे में जानने-समझाने की कोशिश करने लगता है। उसकी जिज्ञासा, वृति बदलने लगती है। मैत्री भाव जाग्रत होने लगता है। पाठ्य-पुस्तकें और बाह्य परिवेश से घुल-मिल जाने से उसके शब्द ज्ञान में वृद्धि भी हो जाती है और वह कल्पना के साथ-साथ यथार्थवादी होने लगता है क्या, कैसे, क्यों, कब आदि अनेक सवाल उस के मन में करवटें बदलने लगते हैं। अपने परिवेश की हर वस्तु को देखकर वह कौतुहल से भर जाता है। उनके संदर्भ में कई-कई प्रकार से सोचने लगता है। उसकी तर्क क्षमता, उत्सुकता, संपर्क क्षेत्र में विस्तार होने लगता है। उसकी कल्पनाशक्ति का विस्तार होने लगता है। अतः बाल रचनाकार को भी उसी के अनुरूप सर्जना करनी होती है। उसको बालक की उपर्युक्त प्रवृत्तियों की कसौटी पर खरा उतरने के लिए ऐसा साहित्य रचना चाहिए जिसे बालक खुशी से अपना सके। उस उम्र के बच्चे के लिए सकारात्मक, वैज्ञानिक, यथार्थवादी, आस्थावादी प्ररेक राष्ट्र प्रेम जाग्रत करने वाली रचनाएँ पसंद करते हैं जो सरल, सहज, सरस और सुबोध भी हो और बालक में सृजनात्मक शक्ति भी जाग्रत कर सके एवं जीवन मूल्यों से जुड़ सके। इनके द्वारा अनायास शिक्षा भी ग्रहण करे तो अत्युत्तम होगी। बालक अनेक विधाओं में रचनाएँ पढ़ना चाहते हैं यथा- गीत, कविता, कहानियाँ, नाटक, एकांकी, बाल-गजल, पहेलियाँ, चुटुकले, संस्मरण, बाल उपन्यास आदि बाल साहित्यकार का दायित्व है कि वह इन सभी विधाओं में रोचक साहित्य का सृजन करे।
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3. किशोर साहित्य
तेरह से अठारह वर्ष की उम्र किशोरावस्था कहलाती है। यह अवस्था एक तरह से संक्रमण की होती है। इस समय रसायनों के परिवर्तन के कारण किशोर में शारीरिक एवं मानसिक बदलाव या कहें कि उसके व्यक्तित्व का विकास बड़ी तीव्रता के साथ होने लगता है। इस वजह से किशोर किसी प्रकार का नियंत्रण पसंद नहीं करता, यह उम्र अंतरमुखी होती है एवं उनकी रुचियों में विस्तार हो जाता है। किशोर अपनी अलग कल्पनालोकीय दुनिया में विचरण करता है। उसका स्वाभिमान बहुत बढ़ जाता है और समझदारी भी हर बात का विश्लेक्षण तर्क से करता है। भावी जीवन को लेकर केरियर को लेकर वह चिंता भी करने लगता है। समाज संस्कृति, परिवेश, राजनीति, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों, धर्म आदि किशोर को चिंतन करने के लिए विवश करते हैं एवं कई प्रकार की सामाजिक रूढ़ियों से उसका साक्षात्कार होता है, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, प्रतिस्पर्द्धा, अंधविश्वासों से उसे दो चार होना पड़ता है। इस वय में पढ़ाई का बोझ सबसे अधिक होने के कारण किशोर अकसर चिड़चिड़े हो जाते हैं। विपरीत लिंग के प्रति उत्सुकता और आकर्षण चरम पर होता है। यह उम्र अत्यधिक नाजुक मोड़ से गुजरती है, सही रास्ते से भटकते देर नहीं लगती किशोर साहित्य किशोरों की मानसिक सन्तुष्टि प्रदान करने के साथ उनका समाग्दर्शन भी करें, शिक्षित करे, उनकी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करें किशोर बौद्धिक रूप से बहुत विकसित होते हैं, अतः उनका साहित्य बहुआयामी होना चाहिए और सभी विधाओं में भी, क्योंकि किशारों को गीत, गजल, कहानियाँ, निबन्ध, नाटक, एकांकी, उपन्यास जीवनी आत्मकथा आदि सभी विधाओं को पढ़ना अच्छा लगता है अध्ययन की दृष्टि से बाल साहित्य के स्वरूप को निम्नलिखित रूपों में विभाजित किया जा सकता है-
ऐतिहासिक बाल साहित्य, पौराणिक बाल साहित्य, राष्ट्रीय बाल साहित्य, सामाजिक बाल साहित्य, वैज्ञानिक बाल साहित्य, सांस्कृतिक बाल साहित्य, काल्पनिक बाल साहित्य, मनोवैज्ञानिक बाल साहित्य इसी प्रकार विधागत रूप से बाल साहित्य के निम्नांकित स्वरूप विद्वानों ने निरूपित किये हैं। बाल काव्य, बाल कहानियाँ, बाल नाटक और एकांकी, बाल उपन्यास, बाल संस्मरण, बाल निबन्ध, अन्य बाल पहेलियाँ, चुटुकले, चित्र कथायें, बाल जीवनी आदि।
आइए बाल साहित्य के कुछ परिभाषाएं देखते हैं : डॉ. नागेश पाण्डेय 'संजय' के शब्दों में बाल साहित्य सही मायने में वह है जिसे पढ़कर बच्चे आनंदित हो, उनमें आत्मा सुधार और सम्यक विकास हो और जीवन के संघर्षों से जूझने के दिशा में क्रियाशील हो सके। बाल साहित्य का प्रणयन वस्तुतः अत्यंत कठिन कार्य है। वास्तविक बाल साहित्यकार वह है जो बच्चों के लिए बच्चों की अनुभूतियों को आत्मसार कर उन्हीं की भाषा में लिखता है। इसलिए बाल साहित्य को परकाया प्रवेश की संज्ञा दी गई है।
डॉ. राष्ट्र बन्धु के शब्दों में बाल साहित्य प्रेरक और रोचक दोनों होना चाहिए जभी बाल साहित्य बच्चों को आकर्षित करता है उसमें रोचकता हो और प्रेरक भी हो अन्यथा वह निरुद्देश्य होने से गुणकारी नहीं हो सकता।
आधुनिक मीरा महादेवी वर्मा बाल साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि स्वयं एक काव्य बालक ही है, स्वयं ही साहित्य है।
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डॉ. लक्ष्मी नारायण दुबे बच्चों की दुनिया सर्वथा पृथक होती है उनका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व होता हैं वे संस्कृति, साहित्य तथा समाज के लिए नए होते हैं। स्कूली साहित्य बाल साहित्य नहीं है अपितु बच्चों के जीवन तथा मनोभावों को जीवन के सत्य एवं मूल्यों के पहचानने की स्थिति से जोड़कर जो साहित्य उनको सरल एवं उनकी अपनी भाषा में लिखा जाता है और जो बच्चों के मन को भाता है वही बाल साहित्य है।"
बालकों की प्रिय पत्रिका के चंदामामा के सम्पादक श्री बाल शौरि रेड्डी- बाल साहित्य वह है जो बच्चों के पढ़ने योग्य हो, रोचक हो, उनकी जिज्ञासा की पूर्ति करने वाला हो उस में बुनियादी तत्वों का चित्रण हो। बच्चों के साहित्य में अनावश्यक वर्णन न हो। कथावस्तु में अनावश्यक पेचीदगी न हो। वह सरल, सहज और समझ में आने वाला हो। सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत तथ्यों को प्रतिपादित करने वाला हो। "
'बाल सखा' के सम्पादक लल्ली प्रसाद पाण्डेय के अनुसार बाल साहित्य का उद्देश्य है बालक, बालिकाओं में रूचि लाना, उनमें उच्च भावनाओं को भरना और दुर्गुणों को निकाल कर बाहर करना, उनमें हर तरह का सुधार करना और उनका जीवन सुखमय बनाना।"
निरंकार देव सेवक- बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, जो बच्चों का मनोरंजन कर सके और मनोरंजन भी वह जो स्वस्थ और स्वाभाविक हो, जो बच्चों को बड़ों जैसा बनाने के लिए नहीं, अपने अनुसार बनाने में सहायक होने के लिए रचा गया हो।
हार्वे डार्टन (पाश्चात्य समीक्षक)- बाल साहित्य से मेरा अभिप्राय इन प्रकाशनों से है, जिन का उद्देश्य बच्चों को सहज रीति से आनन्द देना है, न कि उन्हें मुख्य रूप से शिक्षा देना अथवा उन्हें सुधारना अथवा उन्हें उपयोगी रीति से शांत करना।
Bal Kahani in Hindi : हिन्दी बाल कहानियाँ
बाल कहानियां : बच्चों के लिए काफी रोचक कहानियां लिखी गई हैं जैसे - पंचतंत्र कथाएं, अकबर बीरबल कथाएं, चंपक, नंदन, चाचा चौदरी, गिल्लू आदि। सभी कथाएं बच्चों के रुचियों पर आधारित प्रेरणादायक है। बच्चे इन कथाओं को बढ़े शौक से पढ़ते हैं। हिन्दी लेखकों का भी बाल साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ईदगाह और पंच परमेश्वर जैसी कहानियां मुंशी प्रेमचंद ने बच्चों के लिए लिखी है। लाख की नाम नाटक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा है। गुलेल का खेल कहानी भीष्म साहनी ने, नाच घर उपन्यास प्रियम्वद ने, पेपर चोर कहानी संकलन करुण ग्रोवर की काफी प्रसिद्ध है।
कहानी बालकों की सर्वाधिक प्रिय प्राचीन विधा है। कहानी सुनने में बच्चों को परम आनन्द प्राप्त होता है। वे कहानी सुनने के बड़ों की हर बात मान सकते हैं, यहाँ तक की खाना-पीना भी भूल जाते हैं। बच्चे स्वभाव से ही जिज्ञासु कौतूहल प्रिय होते हैं। इस उम्र में कल्पना शक्ति, चरम पर होती है। कहानी की सबसे बड़ी विशेषता ही ये ही है कि इसमें कौतूहल निरंतर बना रहता है। बच्चों के साथ-साथ बड़े लोगों को भी कहानी सुनना और सुनाना बहुत प्रिय लगता है। जहाँ तक कहानी के जन्म का सवाल है, सुनिश्चित भाषा के जन्म के साथ ही इस का प्रादुर्भाव हुआ होगा। जैसे ही मनुष्य ने बोलना सीखा होगा, तभी से उसने कहानी कहना शुरू कर दिया होगा। किसी आदमी के साथ कोई रोचक या किसी भी प्रकार की कोई घटना घटित हुई होगी, तब उसने अपने परिवेश के लोगों को बढ़ा-चढ़ा कर बताया होगा. और इस प्रकार धीरे-धीरे कहानी का अपना रूप विकसित होने लगा होगा। एक से दूसरे व्यक्ति दूसरे से अगले आदमी तक पहुँचते-पहुँचते कहानी ने अपनी यात्रा शुरू की होगी। इस संदर्भ में प्रसिद्ध पत्रिका नंदन के सम्पादक जय प्रकाश भारती ने लिखा है-
'मानव ने जब से भाषा द्वारा अपने भाव व्यक्त करने की क्षमता विकसित की, तभी से वह कहानी कहने और सुनने लगा। मनुष्य जंगल में चला जा रहा होगा। अचानक किसी जंगली जानवर ने उस पर आक्रमण कर दिया। आदिम युग के उस मानव ने आत्म रक्षा के लिए संघर्ष किया। उस जंगली पशु का वध कर साँझ को निवास पर लौटकर उस ने इस घटना को बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन किया। भय, कौतूहल, अतिरंजना, मनोरंजन जैसे तत्वों के कारण यह छोटी सी घटना कहानी बन गई। एक ने दूसरे से और उसने तीसरे को चौथे को वह सुनाई, इसी तरह मौखिक रूप से कहानी की शुरूआत हुई।
डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के अनुसार पुराने जमाने में किन्हीं रोचक और रोमांचक घटनाओं से प्रेरित होकर मानव के महत्वपूर्ण अनुभवों को लोग कहानियों के रूप में सुनाया करते थे। ये कहानियाँ बच्चे विशेष रुचि से सुनते थे। उन्हीं की स्मरण शक्ति के परिणामस्वरूप ये कहानियाँ हजारों मील की यात्रायें करके संसार के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँची और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सुरक्षित रही।'
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Bal Kavita In Hindi : हिन्दी बाल कविताएँ
बाल कविताएं : 'बाल कविता अर्थात् बालकों के लिए काव्य जिस काव्य में बालकों की भाषा में, उनकी अपनी दृष्टि, अपना चिंतन और अपनी कल्पनाएँ. अभिव्यक्त होती हों सही अर्थ में वही बाल काव्य है। सच्ची बाल कविता वह है जिसमें बच्चों के होठों से दोस्ती करने की ताकत हो। कभी हरा समन्दर गोपी चन्दर ... अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बो...। अस्सी नब्बे पूरे सौ. के रूप में कविता बच्चे से जन्म जन्मान्तरों का नाता बनाये हुए हैं। बाल काव्य का प्रत्यक्ष उद्देश्य तो मनोरंजन होता है। किन्तु परोक्षत वह बालकों के मन में संवेदना के अंकुरण उपजाकर उन्हें राष्ट्र के सुयोग्य नागरिक के रूप में तैयार भी करता है। बालकों में अर्थग्रहण और सौन्दर्यबोध की क्षमता प्रदान करने की दृष्टि से भी बाल काव्य की अपनी विशिष्ट भूमिका है।
बाल काव्य में प्रमुख रूप से बाल गीत, बाल कविता, बाल गजल, हाइकू, मुक्तक, बाल पहेलियाँ, बाल कुंडलियाँ आदि गिनी जाती हैं। विषय की दृष्टि से बाल काव्य का व्यापक परिवेश है। बच्चों को प्रिय लगने वाले सभी उपादान बाल काव्य के विषय होते हैं यथा पेड़-पौधे- तितलियाँ, फूल-पत्ते, तारे, चंदामामा, हवा, सागर, नदियाँ, पर्वत, पशु-पक्षी, खेल-खिलौने, बस्ता, किताबें, मदारी, गुड़िया, फल-फूल, मोर, बाग-बगीचे आदि।
आचार्य भरत मुनि ने रस को काव्य की आत्मा के रूप में प्रतिपादित किया है। बाल काव्य में भी रस की महती भूमिका से इन्कार नहीं किया जा सकता है। इस में मुख्यतः वात्सल्य, हास्य, वीर, शांत, अद्भुत रस का प्राधान्य होता है। रस का अर्थ आनन्द होता है और बाल काव्य का प्रधान रस आनन्द रस ही है। आयु के अनुसार विद्वानों ने बाल काव्य तीन स्वरूपों में विभाजित किया है- शिशु काव्य, बाल काव्य, किशोर काव्य। बाल काव्य की भाषा बालकों के तरह सरल, सरस, स्वाभाविक, प्रवाहपूर्ण चित्रात्मक, गेय, संगीतात्मक, ध्वन्यात्मक होनी चाहिए।
शैली अत्यंत सहज हो। कठिन क्लिष्ट शब्दावली के लिए यहाँ कोई स्थान नहीं होता। मुहावरों, लोकोक्तियों का अधिक प्रयोग बाल काव्य को दुरूह बना सकता है। बड़ों के काव्य की तरह कटाक्ष, व्यंग्य, दुरूहता, काठिन्य बौद्धिकता, वैचारिकता गम्भीरता का प्रयोग एक तरह से बाल काव्य में वर्जित माना गया है।
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बाल साहित्य की उपयोगिता निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट है :
• बाल साहित्य बच्चों को खुशियों से भर देता है।
• इससे बालकों की कल्पना शक्ति का विस्तार होता है।
• बाल साहित्य पढ़ने, देखने और सुनने से बच्चे कई प्रकार की कई कलाओं से सहज रूप से जुड़ जाते हैं। साथ ही बाल साहित्य लिखना भी सीख जाते हैं।
• बाल साहित्य से बालकों की क्रियात्मक क्षमता और सृजनशीलता में वृद्धि होती है।
• बाल साहित्य से बच्चों के अतिरिक्त समय का बहुत अच्छा सदुपयोग होता है।
• इसके पढ़ने से बालकों में स्वावलम्बन, आत्मनिर्भरता, अनुशासन, दृढता, साहस, मैत्रीभाव, सहयोग की भावना, प्रेम आदि भाव स्वतः ही जाग्रत हो जाते हैं।
• कहानियों, कविताओं, पहेलियों आदि के पठन-पाठन से बालकों की स्मरण शक्ति बढ़ती है और उन्हें कंठस्थ कर लेने से जीवन भर के लिए मन-मस्तिष्क में संचित हो जाती है।
• कहानी सुन कर मित्रों को या किसी और को सुनाने से उनकी वाक कला, वाक चातुर्य में संवर्द्धन होता है।
• नाटकों के पठन और मंचन से अभिनय कला का विकास भी होता है।
• बाल साहित्य की पुस्तकों में बने चित्रों को बार-बार देखने से बालक में बनाने का कौतूहल जाग्रत होता है और इससे उनमें रेखांकन एवं रंग भरने की कला स्वतः ही विकसित हो जाती है।
• बाल साहित्य को आत्मसात करने से बच्चे व्यावहारिक ज्ञान भी प्राप्त करते हैं।
• बाल पहेलियाँ सुनने से कौतूहल जाग्रत होता है और हल करने से बच्चों का मानसिक विकास होता है, संतुष्टि मिलती है, चिंतन-मनन से द्वार खुलते हैं।
• चुटकुले बच्चों को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर देते हैं।
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