Comparative Literature and Translation
तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद
"साहित्यिक अनुवाद" और "तुलनात्मक साहित्य" दोनों ही ज्ञान के विशिष्ट संदर्भ हैं। भारत की बहुभाषिक तथा बहुसांस्कृतिक प्रकृति के मद्देनजर इनका महत्व भी कम नहीं है । यह खेद का विषय है कि भारत के भाषाई यथार्थ तथा भारतीय साहित्य की संकल्पना में निहित बहुआयामिता के परिप्रेक्ष्य में इन दोनों की "व्यापकता" को परखने में चूक होती रही है। उदाहरण के लिए एक लंबे अर्से तक "अनुवाद" को मूल लेखक की तुलना में गौण ही नहीं, दोयम दर्जे का कार्य भी माना जाता रहा। इस धारणा ने अनुवादक को "व्यक्तित्व विहीन" और अनूदित - पाठ को मूल पाठ की तुलना में साहित्यिकता की दृष्टि से 'हीन' मानने में भी संकोच नहीं किया। जबकि साहित्य का अनुवादक मूल पाठ के 'सहपाठ' का सृजन लक्ष्य भाषा में इस प्रकार करता है कि लक्ष्य भाषा के 'संप्रेषणपरक पक्ष' और 'अनुवादक' दोनों अथवा निजी व्यक्तित्व लेकर अनूदित पाठ में उतरने लगते हैं। रोमन या कोब्सन ने साहित्यिक अनुवाद की इस प्रक्रियापरक सच्चाई को परखने के बाद ही यह कहा था कि "साहित्यिक अनुवाद में केवल सृजनात्मक अनुवाद ही संभव है।" इसीलिए साहित्य का अनुवादक मूल पाठ के प्रति चाहे कितना ही ईमानदार क्यों न हो, वह मूल की नकल नहीं करता। इसी तरह साहित्यिक पाठ का कोई भी अनूदित पाठ यह बता सकता है कि वह मूल से संबद्ध होते हुए भी अपने गहन और भावपरक प्रेषण में उससे भिन्न होता है। साहित्यिक अनुवाद के प्रति यह व्यापक दृष्टिकोण तुलनात्मक अध्ययन की कई दिशाएँ हमारे समक्ष खोल सकता है जिनका लाभ हम हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच बड़ी मात्रा में उपलब्ध अनूदित साहित्य भंडार को दे सकते हैं।
आज यह प्रमाणित किया जा चुका है कि अनुवाद पद्धति लगभग उतनी ही पुरानी है जितना कि मौलिक सृजन का इतिहास । अतः भारत की बहुजातीय और बहुसांस्कृतिक प्रकृति अनुवाद को नए संदर्भों में देखने की मांग करती है। समाज भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से अद्भुत और अनूठे इस देश में विभिन्न भाषाओं के मध्य प्रवाहित अंतः सांस्कृतिक धाराओं की समझ के विकास में अनुवाद की भूमिका को महत्व तो दिया गया पर इनकी 'समझ' के व्यापक और तुलनात्मक आधार अथवा अध्ययन की सरणियाँ विकसित नहीं की जा सकी हैं। इन्हें पाने-समझने का दायित्व पूरी तरह अनुवादक की सामर्थ्य और क्षमता पर ही निर्भर है। आज के युग में जब भिन्न भाषा समुदायों के बीच गत्यात्मकता कई गुना बढ़ चुकी है और भारतीय भाषाओं में परस्पर संपर्क और संप्रेषणीयता के अवसर उन्नत हुए हैं, साहित्यिक अनुवाद की निश्चित निर्धारित प्रणाली की पहुँच अनुवादकों तक नहीं पहुँच पाई है। अनूदित पाठ के विस्तार की भी समस्या है। भारतीय भाषाओं से हिन्दी में पर्याप्त अनुवाद होते रहे हैं। हिन्दी से भारतीय भाषाओं में कम। पर दोनों ही प्रकार के अनुवाद के पाठक कम हैं। आधुनिक युग की विडंबना है कि 'स्वभाषा' के प्रति हमारा लगाव क्रमशः कम हो रहा है। अतः भाषाओं के बीच तनाव और संघर्ष बदस्तूर जारी है। मूल्यों का स्थानीयकरण होने लगा है, क्षेत्रीयता की भावना जोर पकड़ने लगी है और हमारे विचार संकीर्ण हो चले हैं। अफसोस कि सरकार भी बिलगाव की भावना को हवा दे रही है। यही वजह है कि हम एक ही भाषा के साहित्य में अपने को जकड़े रखना चाहते हैं, अपनी मातृभाषा के साहित्य में। भारत के संदर्भ में साहित्यिक अनुवाद एक सीमा में ही सही, पर भारतीय मानस को इन क्षुद्र भावनाओं से मुक्त करता है। साहित्य क्योंकि सिर्फ सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति ही नहीं, सामाजिक यथार्थ भी है। इसलिए इसमें कोई संदेह नहीं कि साहित्यिक अनुवाद संकीर्णता के बंधनों से मुक्त करके हममें 'ऐक्य', 'एकता' और 'समानता' की उच्च भावना का संचार करता है, कर सकता है। भारतीय भाषाओं में रचा साहित्य इस उच्च भावना के प्रसार का माध्यम है। तभी वह 'भारतीय साहित्य' है, भिन्न भाषाओं में सृजित साहित्यों का सामूहिक नाम।
'भारतीय साहित्य' की एकात्मकता को सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने इन शब्दों में आकार दिया है- "कुछ समान कुछ भिन्न अनुभवों, भावनाओं तथा विचारों से बद्ध भारतीय साहित्य भिन्न भाषाओं के माध्यम से व्यक्त होता हैं फिर भी भारतीय साहित्य 'एक' है, जो भले ही भिन्न भाषाओं में अभिव्यक्ति पाता हो, उसकी आत्मा एक है।" यह मानी हुई बात है कि भारतीय साहित्य की एकात्मकता को अनुवाद द्वारा सामने लाया जा सकता है और तुलनात्मक साहित्य द्वारा पहचाना तथा व्यक्त किया जा सकता है। ये दोनों भिन्न भाषा संस्कृतियों को एक- दूसरे के निकट लाने का ही नहीं, भाषा समाज और साहित्य के समान रूपों, आदर्शों, मूल्यों तथा परंपराओं की परख का भी साधन बनते हैं।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में अनुवाद की भांति ही तुलनात्मक साहित्य की परिधि के निर्धारण में भी हमारी दृष्टि या तो एक सीमा के आगे नहीं जा सकी या इसे समग्रता में नहीं देख सकी। इलियट ने तुलना एवं विश्लेषण को आलोचक के दो प्रमुख औजार माना था- 'कंपैरिजन एंड एनालिसिस आर द चीफ़ टूल्स ऑफ़ Z क्रिटिक।" तुलना कई धरातल में प्रचलित है, पर उनकी परिधि सीमित है। इस पर श्रीवास्तव (2000) की टिप्पणी है कि "कथानक, साहित्यिक आंदोलन, विधाओं और प्रवृत्तियों के धरातल पर किया जाने वाला अध्ययन तुलनात्मक साहित्य का सीमित संदर्भ है ।" इस संदर्भ का संबंध मानव की स्वभावगत प्रकृति से होता हैं अपने आस-पास के जगत को देखने और रूपायित करने में मानव की सहजता वृत्ति 'तुलना' की प्रक्रिया अपनाती है। भाषाओं के व्याकरण में ही देखें तो अनेक भाषिक तत्व तुलना के आधार पर ही निर्मित हुए हैं, जैसे विलोमार्थी शब्द-वर्ग (अच्छा-बुरा, जीवन-मृत्यु, मोटा-पतला, सुख-दुख, गर्म-ठंडा आदि), सामासिक शब्द - रचना (लंबोदर, पीतांबर, नीलकंठ, श्वेतांबरा आदि), तुलनात्मक संरचनाएँ (और और भी, उससे, कम से कम, उच्च, उच्चतर आदि), अतिशय रूप रचना (सबसे, अधिकतम, ज्येष्ठ, बेहतरीन, अग्रज, बदतर, ज्यादा आदि) और लघुतावाची रूप रचना (कनिष्ठ, अनुज, सह, सहायक आदि) । काव्य भाषा में बिंबों, प्रतीकों की रचना- परंपरा के पीछे भी तुलना की पद्धति ही सर्वोपरि है । कहने का तात्पर्य यह है कि मानव के इस तुलनात्मक स्वभाव के कारण ही हर युग में रचनाओं और रचनाकारों के बीच तुलना की जाती रही है। हर युग ने अपने युग के रचना-संसार की विशिष्टता को उभारने में अन्य तरीकों के साथ-साथ तुलनात्मक विधि को भी अपनाया हैं निश्चित ही तुलनात्मक साहित्य की ये विधियाँ सीमाबद्ध हैं पर इसमें कोई शक नहीं कि इन सीमित संदर्भों को समेटते हुए तुलनात्मक अध्ययन के नवीन आयाम, नये संदर्भ और नई दिशाएँ खोली जा सकती हैं जिनके द्वारा भारतीय भाषाओं और उनके साहित्य के अंतः संबंधों को और भी गहराई के साथ उद्घाटित किया जा सकता हैं । तुलनात्मक साहित्य के सीमित संदर्भ के तीन धरातल प्रो. श्रीवास्तव ने निर्धारित किए हैं। पहले इन्ही तीनों की व्यापक परिधि निर्मित की जाय।
पहला धरातल कथानक का है। प्रो. श्रीवास्तव के अनुसार भिन्न भारतीय भाषाओं में सृजित राम कथा, कृष्ण कथा और संत साहित्य की परख "तुलनात्मक साहित्य" का परंपरागत आयाम रहा है। कथा, कविता, नाटक आदि विधाएं आधुनिक युग में तुलना की सामग्री बने। परियों, राजकुमारों, राक्षसों, देल्यों, पशु-पक्षियों आदि की लोक कथाओं की मूल संरचना को भिन्न भाषाओं में देखना लनात्मक अध्ययन की एक दिशा बननी चाहिए इस तरह जन्म से लेकर मृत्यु तक के लोगों की तुलना भी कम ही हो पाई है। एक कवि/ लेखक की किसी रचना का दूसरे कवियों / लेखकों की रचनाओं में प्रच्छन संबंध होता है। अतः बिना एक को जाने दूसरे का अध्ययन संभव नहीं है। उदाहरण के लिए विद्यापति के भक्ति पदों को समझने के लिए जयदेव द्वारा संस्कृत में रचित 'गीत गोविंद' की समझ अनिवार्य है अतः कथानक के आयाम पर तुलनात्मक साहित्य की असवश्यकता यहाँ भी निर्विवाद है।
दूसरा धरातल साहित्यिक आंदोलन से संबंद्ध है। पुनर्जागरण (रेने साँ) नवक्लासिकीवाद (नियो क्लासिज्म), स्वच्छंदतावाद (रोमांटिसिज्म) यथार्थवाद (रियलिज्म) बिंबवाद (सिंबालिज्म) आदि धाराएं या बाद भारत की अलग- अलग भाषाओं में किस तरह प्रतिफलित हुए हैं यह देखना तुलनात्मक साहित्य का केन्द्रीय सरोकार रहा है। पर इन धाराओं या वादों के प्रभाव में रचे साहित्य का भाशिक रूपांतरण किस दिशा में हुआ है अथवा भाषाओं का रूपागत विकास शब्द, अभिव्यक्ति और प्रतीक रचना के स्तर पर दो भिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्य में किन भिन्न अथवा समान धरातलों पर हुआ है, इस ओर देख पाने की शुरुआत अभी नहीं हो सकी है। इसी तरह मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के माध्यम से भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति के एकतान प्रवाह को तुलनात्मक अध्ययन ने पृष्ट और प्रमाणित किया है। भक्ति चेतना की अविच्छिन्न धारा की भी भारतीय भाषाओं के मध्यकालीन साहित्य की में परख की गई है पर भिन्न भाषाओं की भिन्न अभिविन्यास प्रणालियों की तुलना की दिशा अभी भी अछूती है। चेतना के धरातल को और व्यापक बनाने की दिशा भी खुली हुई है। उदाहरण के लिए बंगला में 'वैष्णव चेतना' अनुभूतियों की तीव्रता और भावोद्रेक के रूप में अभिविन्यस्त हैं तो मराठी में वह बौद्धिक चेतनता से बाधित है। तुलनात्मक साहित्य इन दोनों भाषाओं के अभिविन्यास संबंधी भेदों और उनके कारणों की पड़ताल तो कर ही सकता है यह भी देख सकता है कि हिन्दी में कबीर ने अपने को मराठी प्रवृत्ति से जोड़ा। इसके अतिरिक्त अन्य कलाओं के साथ मध्यकालीन साहित्य को जोड़कर देखने की दिशा में भी अत्यल्प कार्य किए गए हैं। जयदेव के प्रभाव को उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम के मंदिरों में खचित मूर्तियों के संदर्भ में देखा गया है और भिन्न नृत्य शैलियों के उद्भव और विकास को भी रेखांकित किया गया है। संगीत, चित्रकला, शिल्पकला, स्थापत्य और मूर्तिकला के साथ मध्यकालीन साहित्य को जोड़कर देखा जाना अब अनिवार्य है। यह कलागत तुलना आधुनिक साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन में भी कारगर सिद्ध हो सकती है।
तीसरा धरातल विधाओं से संबंधित है। नाटक, गीतिकाव्य मुक्तक आदि का तुलनात्मक अध्ययन प्रचलित है। इसका विस्तार रूप के आधार पर भी दिखाई देने लगा है पर इसी दिशा में गहराई के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। इस प्रकार के अध्ययन में दोहा, चौपाई, लंबी कविता, छोटी कविता तथा सभी , गद्य विधाओं के संदर्भ में शिल्प और बुनावट के स्तर पर तुलना करते हुए भारतीय भाषाओं की अभिव्यक्तिपरक समानताओं- विषमताओं की ओर दृष्टिपात किया जा सकता है। इस धरातल पर, विशेषकर गद्य साहित्य के केन्द्र में रखकर एक विधा में अन्य विधाओं के अवमिश्रण की भी परख की जाती है इससे भाषाओं की 'उदारता' और 'कृपणता' पर उनकी विकासात्मक स्थितियों के वैशिष्ट्य के साथ टिप्पणी की जा सकती है।
अब अनुवाद के संदर्भ को देख जाय। यह तथ्य आज सर्वमान्य है कि भारतीय साहित्य के प्रसार में हिन्दी भाषा की केन्द्रीय भूमिका है। कहा तो यहाँ तक गया है कि 'प्रायः अन्य भारतीय भाषाओं की कृतियाँ सबसे पहले हिन्दी में अनूदित होती हैं फिर हिन्दी के माध्यम से अन्य भारतीय भाषाओं में आती हैं। (विश्वनाथ अय्यर)। अनुवाद की शक्ति को अब हमे वैज्ञानिक ढंग से देखना होगा। अनुवाद संबंधी विचारों की सीमाओं से भी हमें जूझना होगा। इसके लिए अनुवाद के वैज्ञानिक स्वरूप की तार्किक विवेचना आवश्यक होगी कि अनुवाद प्रक्रिया में दो भाषाओं की शक्ति और संस्कार की तुलना भीतर ही भीतर चलती रहती है। और यह भी कि अनुवाद मात्र अंतरण की क्रिया नहीं है बल्कि स्त्रोत भाषा के पाठ का लक्ष्य भाषा के पाठ के रूप में तुलनात्मक, तुल्यार्थक, समतुल्य सिद्धांत के आधार पर 'रूपांतरण की प्रक्रिया है। यह रूपांतरण भिन्न रूपों में सिद्ध मिलता है जिनकी चर्चा रोमन याकोब्सन ने अपने लेख "ऑन लिंग्विस्टिक आसपेक्ट ऑफ ट्रांसलेशन" में की है। तीन रूप हैं- अंतरभाषिक अनुवाद, अंतराभाषिक अनुवाद और अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद। सामान्यतः "अनुवाद" का अर्थ हम "अंतरभाषिक" के संदर्भ में ही लेते आ रहे हैं जो दो भाषाओं के बीच होता है। निश्चित ही इस प्रकार के अनुवाद में अंतरण की प्रक्रिया दो भाषाओं की टकराहट से मुक्त नहीं रहती। यह टकराहट भाषा, और भाषा के पाठ में तुलनात्मक अध्ययन की अनेक दिशाएँ प्रशस्त कर सकती है और जिनकी ओर अत्यल्प ध्यान गया है जबकि "अनुवाद समीक्षा" और "अनुवाद- मूल्यांकन" की एक जबरदस्त सैद्धांतकि पीठिका आज उपलब्ध है जो यह मानती है कि साहित्य के अनुवादक में भाषा और भाषा संबंधी दक्षता साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं भाषिक स्तर पर परिपक्व होनी चाहिए। यदि अनुवादक में यह दक्षता और परिपक्वता नहीं है तो अनुवाद- तुलना द्वारा अनुवादक की अंतर्निहित सीमाओं का विवेचन किया जा सकता है। अंतरभाषिक अनुवाद के अंतर्गत तुलनात्मक साहित्य की दूसरी दिशा "साहित्य भाषा" के वैशिष्ट्य के माध्यम से खुलती है। साहित्य-भाषा की अनेकार्थता, व्यंजनार्थता ही उसे "साहित्य" बनाती है। भाषा के ऐसे तत्वों को अनूदित पाठ में किस तरह से भाषा, साधा गया है यह देखना दो साहित्य भाषाओं की तुलनात्मक व्यवस्था को प्रस्तुत करना हैं। इस प्रकार की तुलना साहित्य, संस्कृति और समाज के उन अनेक प्रकार के अंतः संबंधों का खुलासा हो सकता है जो आज भाषा और साहित्य संबंधी चिंतन की धुरी बने हुए हैं यथा, भाषा का समाजशास्त्र, साहित्य का समाजशास्त्र, समाज भाषा विज्ञान, शैली विज्ञान, प्रतीक संकेत विज्ञान आदि। तीसरी दिशा का संबंध अनुवाद- प्रक्रिया से है। साहित्यिक कृति एक "भाषिक पाठ" होती हैं। अतः जब दो भिन्न भाषाओं के भाषाई घटकों का विश्लेषण करते हुए अनुवादक अनुवादकी ओर प्रवृत्त होता है तो मूल पाठ के भिन्न भाषिक स्तरों पर "अनुवादनीयता" और "अननुवादनीयता" की स्थिति उसके सामने आती हैं। अर्थात किसी भाषिक स्तर पर अनुवाद की पूर्ण संभावना होती हैं कहीं आंशिक तो कहीं शून्य। जैसे सामान्य कथनों विवरणों में पूर्ण अनुवाद की संभावना है, मुहावरों, वाग्मिताओं और समाज संदर्भित अभिव्यक्तियों में आंशिक तथा सांस्कृतिक गुण एवं बुनावट के स्तर पर शून्य। अनुवादनीयता के इन तीनों स्तरों पर सूक्ष्म विश्लेषण संभव है। "इन्हें पहचानना और इन पर ध्यान देते हुए अनूदित पाठ देखना- जाँचना तुलनात्मक साहित्य की समीचीन और उपयुक्त दिशा हो सकती है'' (श्रीवास्तव)। भारत एक "अनुवाद क्षेत्र" है, यह उद्घोषणा बार-बार की जाती है। भारत एक बहुभाषिक- बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है, यह मत भी दृढ़ हो चुका है। फिर भी अनुवाद समीक्षा- मूल्यांकन से उदभूत तुलना उपेक्षित है। इसके बिना हम कभी भी यह सिद्ध नहीं कर सकेंगे कि अनुवाद तुलनात्मक साहित्य अन्योन्याश्रित ज्ञान क्षेत्र के अप्रतिम उदाहरण हैं।
इनके अतिरिक्त भी अंतरभाषिक अनुवाद की तीन स्थितियों की चर्चा की जा रही है (श्रीवास्तव)। इन तीनों स्थितियों में भी तुलनात्मक अध्ययन की संभावनाएँ छिपी हुई हैं। पहली स्थिति वह है जहाँ मूल पाठ और अनूदित पाठ एक ही व्यक्ति द्वारा रचा और अनूदित किया जाता है। उदाहरण के लि अज्ञेय ने अपनी कई कविताओं जैसे "सोना मछली", "एक बूंद' आदि के अंग्रेजी अनुवाद स्वयं किए है। भारत भूषण अग्रवाल, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे आदि ने भी ऐसा किया है। दूसरी स्थिति अप्रत्यक्ष अनुवाद की है जहाँ मूल रचना किसी एक भाषा में हो और अनुवाद किसी दूसरी भाषा में किए गए अनुवाद के आधार पर उसका अनुवाद किसी तीसरी भाषा में किया जाय। तीसरी स्थिति में स्रोत भाषा के मूलपाठ के एकाधिक अनुवाद भिन्न अनुवादकों द्वारा किए मिलते हैं। दूसरी और तीसरी स्थिति के संदर्भ में यहाँ उस बहुचर्चित रचना "रुबाइयात उमर खय्याम" को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है। जिसका अंग्रेजी अनुवाद फिटजेराल्ड ने प्रस्तुत किया और इस अनुवाद को आधार बनाकर हिन्दी में इसके पाँच अनुवाद केशव प्रसाद पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, बच्चन, रघुवंश लाल गुप्त और सुमित्रानंदन पंत ने प्रस्तुत किए। प्रेमचंद की कहानियों, गोदान उपन्यास, कामायनी और हिन्दी की कई प्रसिद्ध रचनाओं के एकाधिक अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध हैं । भारतीय भाषाओं से हिन्दी और हिन्दी से भारतीय भाषाओं के अनुवाद में इन तीनों स्थितियों की खोज, उनका आकलन और तद्रूप तुलनात्मक अध्ययन भारतीय साहित्य के संदर्भ में नव्य दिशाएँ खोल सकता है।
अंतराभाषिक अनुवाद में भी तुलना की संभावनाएँ निहित हैं। इस अनुवाद में एक भाषा की प्रतीक व्यवस्था का उसी भाषा की अन्य प्रतीक व्यवस्था द्वारा अंतरण किया जाता है। बच्चन ने यीट्स की कविता "सॉरी ऑफ लव' का जिक्र किया है जिसके भिन्न रूप क्रमशः 1891, 1892, 1899 और 1925 में छपे । अज्ञेय की कुछ कविताएँ भी दो रूपों में छपी हैं। इनके तो शीर्षक भी अलग हैं जैसे "जयतु हे कंटक चिरंतन" और "जैसे तुझे स्वीकार हो।" अज्ञेय की एक कहानी भी दो रूपों-संस्करणों- शीपकों में प्रकाशित है- "रोज़" और "गैंग्रीन"। एक ही भाषा की दो भिन्न व्यवस्थाओं की दृष्टि से प्रेमचंद की कुछ कहानियों के हिन्दी-उर्दू संस्करणों को देखा जा सकता है। श्रीवास्तव ने 'शतरंज के खिलाड़ी" पर विचार किया है।
अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में लक्ष्य भाषा के स्थान पर कोई इतर माध्यम अपनाया जाता है। उपन्यासों का फिल्मीकरण (देवदास, गोदान, सारा आकाश आदि) किसी कहानी-उपन्यास पर आधारित टी.वी. सीरियल, कथा या काव्य साहित्य पर चित्र आदि इसी प्रकार के अनुवाद हैं। यही हमें एक ही भाषा में किए गए अंतर विधापरक अनुवाद की स्थिति पर भी तुलनात्मक साहित्य की एक दिशा के रूप में विचार करना चाहिए। जैसे उपन्यास, कहानी कविता का नाट्य रूपांतर ये दोनों ही अनुवाद प्रकार तुलनात्मक अध्ययन की नयी दिशाएँ ही नहीं, नई प्रविधि भी हमें दे सकते हैं। इस दिशा में किसी भी भारतीय भाषा ने उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है जबकि संचार माध्यमों की विश्व व्यापकता और रंगमंच की प्रयोगधर्मिता के कारण भारत की सभी भाषाओं में अंतर प्रतीकात्मक और विधापरक अनुवाद की प्रक्रिया बहुत पहले से जारी है।
भारत में तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद दोनों ही भारतीय साहित्य का यथार्थ हैं। यह भी यथार्थ है कि अनुवाद में "तुलना और भाषा" का स्थान स्वतः सिद्ध रहता है। यह भी एक सच्चाई है कि हिन्दी भाषा और साहित्य के विस्तार में भारतीय भाषा भाषी समुदायों ने अपार रुचि दिखाई है और भारतीय भाषाओं का साहित्य हिन्दी में प्रस्तुत करके हिन्दी भाषी समुदाय को भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य के रसास्वादन में भागीदार बनाया है। हिन्दी साहित्य को भारतीय भाषाओं में लाने का श्रेय भी इन्हें ही है। इससे भारतीय भाषाओं का साहित्य तो एक-दूसरे के नजदीक आया ही, तुलनात्मक साहित्य की नींव भी मजबूत हुई। क्योंकि अनुवादों के आधार पर बिना मूल भाषा जाने भी हम अपनी मातृभाषा में उस भाषा का साहित्य पढ़ सकते हैं और अपनी मातृभाषा के साहित्य से उसकी तुलना कर सकते हैं। डॉ. नगेन्द्र के शब्दों में "तुलनात्मक साहित्य वास्तव में एक प्रकार का अंतः साहित्यिक अध्ययन है जो अनेक भाषाओं के साहित्य को आधार मानकर चलता है और जिसका उद्देश्य होता है- अनेकता में एकता का संधान।" उन्होंने यह भी कहा कि "साहित्य सृजन और आस्वादन की चेतना जातीय एवं राजनैतिक भौगोलिक सीमाओं से मुक्त, एकरस और अखंड होती है। 'भारतीय मानस भी वसुधा को कुटुंब बनाने का स्वप्न संजोने वाला मानस है। उसकी इस सहज दृष्टि और संबंध निर्माण की प्रकृतिगत भावना ने भारतीय साहित्य हो नहीं, विश्व साहित्य के स्तर पर भी इसे व्यापक और बहु आयामी बताया है। इसमें एक ओर बोली- भाषा, संस्कृत, पाली प्राकृत, अरबी फारसी, उर्दू-दक्खिनी आदि ऐसे प्रभाव युग्म हैं जो हिन्दी साहित्य के भीतर ही तुलना के अनेक संदर्भ समेटे हुए हैं। भारतीय भाषाओं के बीच तो यह ही। तीसरी ओर भारत में लिखा जा रहा अंग्रेजी साहित्य है जो अपना जीवन नस भारत की जमीन से खींचता है। भारतीय साहित्य (अंग्रेजी सहित) की यह विशेषता भी तुलनातमक साहित्य द्वारा उभरी है कि चाहे वह किसी भी भाषा में क्यों न लिखा जा रहा हो अपनी लोक जड़ों को सूखने नहीं देता तथा अपनी जातीय और राष्ट्रीय अस्मिता को सुरक्षित रखता है। इस प्रकार के व्यापक विचार 'तुलनात्मक साहित्य को विस्तीर्ण फलक प्रदान करते हैं जिसकी परिणति होती है- "वर्लड लिट्चर" (गेटे) या "विश्व साहित्य" (टैगोर) की संकल्पना में जहाँ पूरा विश्व और संपूर्ण साहित्य एक हो जाता है- When all literature and world become one | वह संकल्पना जो यह मानती है कि साहित्य सबसे पहले मानव और समाज केंद्रित होता है तथा मानवीय अनुभूतियों से उसका सर्वाधिक जुडाव होता है । मानवीय अनुभूतियों की यह सार्वभौमिकता ही विश्व - साहित्य को "एक" बनाती हैं। तुलनात्मक साहित्य के इस व्यापक स्वरूप के तहत यहाँ भारतीय संदर्भ में कुछ और दिशाओं की ओर भी मैं संकेत करना चाहता हूं, जो हमारी अनभिज्ञता या आलस की वजह से छिटकी ही रह गयी है।
1. एक ही भाषा के मौखिक और लिखित साहित्य के बीच अंतरसंबंधों के खोज की दिशा, जहाँ लोक विश्वासों, मान्यताओं, मिथकों, मूल्यों और काव्य रूपों के मौखिक या लोकजनित स्वरूप का लिखित साहित्य में रूपांतरण होता है ।
2. जो प्रवासी भारतीय हिन्दी या अपनी मातृभाषाओं में लेखन कर रहे हैं उनकी तुलना भारत में रचे जा रहे हिन्दी और अन्य भाषाओं के साहित्य से करते हुए भारतीय भाषा एवं साहित्य के अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ को उभारनेवाली दिशा।
3. द्विभाषिक एवं बहुभाषिक साहित्यकारों यथा हिन्दी- उर्दू, अंग्रेजी - हिन्दी, हिन्दी-तेलुगु, हिन्दी-मराठी इत्यादि दो-दो भाषाओं में साथ-साथ लिखने वालों की संख्या भी भारत में कम नहीं है। दो भिन्न भाषाओं में इन लेखकों की अभिव्यक्तिपरक क्षमता की तुलनात्मकपरक की दिशा।
4. हिन्दी की अधीनस्थ बोलियों की अपनी साहित्यिक परंपरा रही है। एक बोलीभाषी रचनाकार का मानक हिन्दी में लेखन ठेठ हिन्दी भाषी के अथवा हिन्दीतर भाषा भाषी के हिन्दी लेखन से किन स्तरों पर भिन्न है, यह एक दिशा हो सकती है, दूसरी यह देखना कि बोलीभाषी हिन्दी लेखक की भाषिक शक्ति या सीमाएँ क्या हैं और तीसरी यह कि उसकी प्रथम भाषा (बोली) मानक हिन्दी को भावप्रवण बनाने और उसकी अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ाने में कितनी साधक या बाधक है।
5. समकालीनता के आस्वाद को पिछली रचनाओं के संदर्भ में उकेरना भी तुलनात्मक साहित्य की एक दिशा हो सकती हैं। रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लक्ष्मीकांत वर्मा की पंक्तियों "जब यह घर की काई लगी दीवारें/घुने चौखटें/ उखडे प्लास्टर / उजडी छतें और परनालें देखता हूँ / सोचता हूँ/ कैसा लगता है/ धीरे-धीरे जिंदा पुरातत्व का पनपना" के सूत्र गालिब के इस शेर "उग रहा है दरी- दीवार से सब्जा गालिब / हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है'' से जोड़कर समकालीन आस्वाद को कुछ और सार्थक बना दिया है।
6. तुलनात्मक अध्ययन द्वारा सार्वभौमिक काव्यशास्त्र की स्थापना की दिशा का संकेत भी श्रीवास्तव ने दिया है। भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्रीय चिंतन में ही ऐसे समान बिंदु हैं जैसे "वक्रोक्ति" और "विचलन" की संकल्पना । व्याकरण के स्तर पर भी भारतीय एवं पाश्चात्य व्याकरण चिंतन की स्थापनाओं की तुलना से उनकी सार्वभौमिकता सिद्ध की जा सकती है।
7. भारत में रचे जा रहे अंग्रेजी साहित्य की परंपरा भी तुलनात्मक साहित्य की अनेक संभावनाएँ अपने में समोये हुए है। एक दिशा भारतीय अंग्रेजी साहित्य तथा भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य के तुलना की है। दूसरे अंग्रेजी भाषी दोनों के अंग्रेजी साहित्य की तुलना भारतीय अंग्रेजी साहित्य के साथ की सकती है। तुलना के दूसरे आयाम पर यह देखना महत्वपूर्ण हो सकता है कि "भारतीय अंग्रेजी साहित्य भी भारतीय की पहचान तथा भारतीय संस्कृति एवं जीवन मूल्यों के संप्रेषण का माध्यम है" (एस.के. वर्मा)। आज यह भी कहा जा रहा है कि भारतीय अंग्रेजी साहित्य के रचनाकार 'अंग्रेजी भाषा को " भारतीय जीवन की रंगत और भारतीय समाज के मुहावरों से बांध रहे हैं और "भारतीयता" की अवधारणा के प्रति सजग रहते हुए अंग्रेजी भाषा को भारतीय रंग तथा गंध के साथ एक भारतीय भाषा के रूप में ढालने का प्रयास कर रहे हैं।" (ब्रज काचरू)
8. भारतीय भाषाओं के साहित्य की तुलना विकसित देशों के भाषा-साहित्य (फ्रेंच, जर्मन, रूसी, अंग्रेजी) से करना भी तुलनात्मक साहित्य की एक दिशा बननी चाहिए क्योंकि इन भाषाओं का प्रचुर साहित्य अनूदित होकर हमारी मातृभाषाओं, खासकर हिन्दी में आ चुका है। इसकी दूसरी दिशा पड़ोसी देशों के साहित्य की ओर खुलती है। नेपाल, बर्मा, भुटान, मलेशिया, बंग्लादेश के साहित्य से तुलना भारतीय साहित्य के सांस्कृतिक विस्तार का परिचय भी दे सकती है। तीसरी दिशा विकासशील और अविकसित देशों जैसे अफ्रीकी या ऐशियाई देशों के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन "तीसरी दुनिया" में व्याप्त समाजार्थिक संघर्षो का ऐक्य बता सकता है।
9. विभिन्न जातीय साहित्य के बीच "सहयोजन", "प्रभाव" और "सामनांतरता" को दर्शा पाना तुलनात्मक साहित्य की एक अन्य दिशा है जिसमें "राष्ट्रीय साहित्य" और "विश्व साहित्य" दोनों को अलग-अलग और साथ-साथ रखकर कई बिंदु तलाशे जा सकते हैं।
10. " तुलनात्मक साहित्य" चिंतन में प्ररूपी (Typological) अध्ययन दृष्टि का विकास हुआ है जिसकी यह मान्यता है कि एक ही भौगालिक क्षेत्र में बंधे या एक ही महाद्वीप से संबद्ध राष्ट्रों के साहित्य में वैचारिक और अनुभूतिपरक समानताएँ मिलती हैं। अतः दक्षिण पूर्ण एशिया के साहित्य के संदर्भ में भारतीय साहित्य को देखना भी तुलनात्मक अध्ययन की एक सार्थक दिशा हो सकती है।
तुलनात्मक साहित्य के इस व्यापक आयाम की कई दिशाओं को हम अभी तक अपना नहीं पाए हैं। एक तरह से कहा जाए कि हम इनसे अछूते हैं। कुछ भी हो, इन आयामों से खुलकर सामने आती है कि इसके अधिकांश बिंदुओं पर अनुवाद एक बात की भूमिका स्वतः सिद्ध है। ये आयाम आज की वैश्विक स्थिति के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है, यह तथ्य भी इस चर्चा से उभरता है। विश्व की सीमाएँ सिमट चुकी हैं। विश्व के छोटे-बड़े राष्ट्र एक दूसरे के निकट आने को आतुर हैं। इस निकटता को सिद्ध करनेवाली एक विस्तृत सम्प्रेषण श्रृखंला निर्मित हो चुकी है। साहित्यिक-सांस्कृतिक आदान प्रदान के नये-नये रास्ते खुल चुके हैं। एक दूसरे को हम ज्यादा जानने लगे हैं, एक दूसरे में हमारी रुचि बढ़ी है। इन सारी स्थितियों को जन्म देने में अनुवाद की भूमिका प्रमुख रही है और इन्हें दृढ़ आधार प्रदान करने में तुलनात्मक साहित्य के सीमित संदर्भ की। इस "सीमित " को "विस्तीर्ण" करना अब हमारा काम है । कथानक, विधा, आंदोलन अथवा विचारधारा, पात्र परिकल्पना, परिस्थितियों पर केंद्रित तुलनात्मक साहित्य का जमाना लद गया।
दुनिया के कई हिस्सों में इस हवा के गुजरे दशकों हो गये। अब हमें इन नव्य संभावनाओं की ओर कदम बढ़ाने ही होंगे। हमारे लिए यह कोई कठिन काम नहीं है क्योंकि भाषा और साहित्य दोनों के विकास में संपर्क और आदान-प्रदान हमारी विशेषता रही है। समन्वय, सामंजस्य, सह-अस्तित्व और सहिष्णुता जैसे गुणों ने ही भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं में सर्जित साहित्य को "भारतीय साहित्य" बनाया है। अपनी इस गुणवत्ता को सान चढ़ाते हुए हम इस आलेख में चर्चित दिशाओं में उत्खननपूर्ण कार्य करें तो निश्चित ही भारतीय भाषाओं और साहित्य को भी नयी दिशाएँ मिल सकेंगी और उनके लिए संभावनाओं के नये-नये गवाक्ष खुल सकेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं।
संदर्भ;
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- दिलीप सिंह
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