Hazari Prasad Dwivedi
स्वनामधन्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी इस युग के महान चिन्तक, साहित्य मनीषी हैं। उन्हें याद करना एक साथ अनेक शताब्दियों का समवेत साक्षात्कार करना है। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का स्पर्श करना संस्कृति के महासिंधु में अवगाहन करना है। उनका ऋषितुल्य व्यक्तित्व संस्कृति, सभ्यता, समाज, साहित्य और इतिहास का एक तरंगित ज्योतिपुंज है इसके आलोक में हम अतीत से लेकर मध्यकाल तक और वर्तमान से होते हुए भविष्य तक दृष्टि दौड़ा सकते हैं। परंपरा और आधुनिकता के बीच एक सेतु की भूमिका निभाते हुए उन्होंने दोनों में अद्भुत समन्वय स्थापित किया। 'चलति एक पादेन, तिष्ठति एक पादेन' के रूपक के माध्यम से उन्होंने परंपरा की प्रवहमानता और आधुनिकता की गतिशीलता के मध्य संतुलन बनाते हुए मानव जाति की प्रगतिकामी चेतना को सम्मुख रखा। निबन्ध हो या आलोचना, कविता हो या उपन्यास सभी में उनकी परिष्कृत सांस्कृतिक दृष्टि का हमें परिचय मिलता है।
सबसे पहले उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में मुझे जो आकृष्ट करता है, वह है मनुष्य के प्रति उनकी गहरी आस्था। साहित्य को वे मनुष्यता का निरंतर प्रवाहमान धारा से जोड़ते हुए सिद्ध करते हैं कि 'मनुष्य ही साहित्य का परमोद्देश्य है'। उनकी घोषणा थी कि 'मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ। जो वाग्जाल मनुष्य की दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है। प्रकृति से जोड़कर मनुष्य की विकास यात्रा का विश्लेषण करते हुए उनका कहना था 'जड़ से चैतन्य, चैतन्य से मन-बुद्धि और मन-बुद्धि से मनुष्यत्व का विकास चकितकर देनेवाली एक घटना है।' उनकी संपूर्ण साहित्य साधना का मूलस्वर आत्मदान का है। आत्मदान भी ऐसा कि 'दलित- द्राक्षा के समान अपने आपको निचोड़कर दे देना। भलाई के लिए आप अपने आप को निःशेष भाव से देकर ही सार्थक हो सकते हैं।' उन्होंने मनुष्य को देवता से भी उच्च कहा। 'मनुष्य देवता से भी उच्च है। अग्नि आदि देवता केवल अपने धर्म का पालन करते हैं। अग्नि का धर्म जलाने का है। वह बुझाने का कार्य कर ही नहीं सकती। किन्तु मनुष्य अपने प्रयत्नों से असाध्य कार्य भी कर सकता है। वह सभी प्रकार का अभिनय कर सकता है । उसके भीतर - अतुल शक्ति छिपी हुई है। भगवान ने भी मनुष्य बनकर अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये हैं। मनुष्य की जो प्रयत्न करनेवाली शक्ति है वाग्देवता उसी के प्रतीक हैं।'
अपनी कृतियों में द्विवेदीजी ने शास्त्र की अपेक्षा लोक को अधिक महत्व दिया। उन्होंने मनुष्य मात्र को सर्वोपरि मानने पर बल दिया। उनकी सांस्कृतिक दृष्टि अभिजन तक सीमित न होकर आमजन तक गई। शताब्दियों से वंचित और उपेक्षित इस वर्ग के प्रति उनकी सहानुभूति अद्भुत थी। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर को स्थापित करके उन्होंने एक नये इतिहास की नींव डाली।
जिस प्रकार पानी ठहरा रह जाय तो सड़ जाता है। स्वच्छ और निर्मल बने रहने के लिए उसका बहते रहना जरूरी है, उसी प्रकार परंपरा को भी अपनी प्रासंगिकता बनाये रखने के लिए प्रगति और परिवर्तन के निकष पर खरा उतरना पड़ता है। द्विवेदी जी इसी परंपरा को जीवन और जीवंतता का लक्ष्य मानते थे। नारी की गरिमा और वंचित वर्ग के सम्मान को उनके साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान मिला।
पंडित हजारीप्रसाद जी गैर हिन्दी प्रदेश- बंगाल के शांतिनिकेतन के स्वच्छ वातावरण में दो दशक तक रहे। शांतिनिकेतन के वातावरण का उनके व्यक्तित्व और मानस के निर्माण पर यथेष्ट प्रभाव पड़ा। शांतिनिकेतन तो वसुधा नीड़ था। विश्वमानवता का आदर्श विधापीठ। वहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर 'जैसे विश्वकवि, नंदलाल बोस जैसे कलाकार, आचार्य क्षितिमोहन सेन, विधुशेखर भट्टाचार्य जैसे विद्वान, सी. एफ. आन्ड्रेस जैसे संतों से उनका संपर्क हुआ। शांतिनिकेतन उन दिनों विश्वमानस की विधेयात्मक हलचलों का केन्द्र था। शांतिनिकेतन और काशी के वातावरण में बहुत अंतर था। हिन्दी के केन्द्र में हिन्दी का अध्यापन करना और हिन्दीतर क्षेत्र में हिन्दी अध्यापन दोनों अलग अलग बातें है। उन्होंने 'हिन्दी साहित्य की भूमिका' के निवेदन में संकेत किया है 'विश्व भारती के अहिन्दी भाषी साहित्यिकों को हिन्दी साहित्य का परिचय कराने के बहाने इस पुस्तक का आरंभ हुआ था। मूल व्याख्यानों में बहुत से अंश छोड़ दिये गये हैं जो हिन्दी भाषी साहित्यिकों के लिए अनावश्यक थे। द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य को हिन्दीतर भाषा-साहित्यों अर्थात् अखिल भारतीय भाषाओं की पृष्ठभूमि में देखते हैं। इस प्रकार उनमें एक अखिल भारतीय दृष्टि Pan Indian Out look थी जो उनके विशाल दृष्टिकोण का परिचायक है।
जहाँ तक मेरा अध्ययन है, आचार्य जी की अपनी रचना- विधा उनके निबंध हैं। वे मूलतः निबंधकार हैं और मेरी समझ में वे हिन्दी साहित्य के श्रेष्ठ व्यक्तिपरक निबंधकार हैं। उनके निबंधों का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। निबंध की - विधा ही ऐसी है कि उसमें सब कुछ समा सकता है। निबंध विधा की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उसमें लेखक का आंतरिक व्यक्तित्व सर्वाधिक व्यंजित होता है। उनकी संस्कार शुद्ध मानसिकता उनकी सहजता बन गई है, जो उनके निबंधों में देखी जा सकती है। उनका गहन और व्यापक चिंतन एवं जीवन पर्यवेक्षण सबसे अधिक उनके निबंधों में ही प्रकट हुआ है। ऐसा मैं मानता हूँ। विद्वान होते हुए भी विद्वत्ता उनके ऊपर भार नहीं बनी। वे अपनी गंभीर विद्वत्ता का बोझ क्षणभर में उतारकर सामान्य मनुष्य की भाँति सोच और अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने साहित्य, विविधकलायें, इतिहास, दर्शन, ज्योतिष, धर्म, राजनीति, प्रायः सभी विषयों पर निबंध लिखे हैं। लेकिन उनके सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय निबन्ध वृक्ष, पुष्पों और वनस्पतियों पर हैं। 'अशोक के फूल' संभवतः उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध निबन्ध है। 'शिरीष के फूल', 'देवदारू', 'कुटज', 'आम फिर बौरा गए' इस तरह के निबंध हैं। इन निबन्धों में वे मिथकों, या लोक विश्वासों रूढ़ियों की ऐसी व्याख्या करते हैं कि प्राचीन और आधुनिकता, जीवन स्थितियाँ और मानवमन की परतें अपने आप उद्घाटित हो जाती हैं। वे भाषा, लोक साहित्य आदि से इतिहास के आंतरिक पुनर्निर्माण की सामग्री बटोरकर अतीत का सांस्कृतिक पुनःस्थापन करने में पंडित जी अपना सानी नहीं रखते। इस मामले में वे बेजोड हैं।
उनके उपन्यासों की बात करें तो उनके ऐतिहासिक उपन्यास अपनी संवेदना और शिल्प में अभूतपूर्व और अद्वितीय हैं। मुझे लगता है कि द्विवेदी जी हिन्दी में भारतीय शिल्प-परंपरा के अकेले उपन्यासकार हैं। उसका प्रमुख कारण ऐसा लगता है कि भारत के मध्यकालीन कथा साहित्य को समझने और उसमें रसमग्न होने की क्षमता और उसे आधुनिक जीवन संदर्भ में मोड़ सकने की शक्ति। 'बाणभट्ट की आत्मकथा' द्विवेदी जी का सर्वाधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय उपन्यास है। आचार्य नलिन विलोचन ने इसे 'परकाय प्रवेश की क्षमता' कहा है। उन्होंने संस्कृत के श्रेष्ठ गल्प-शैली और शिल्प को खड़ीबोली हिन्दी में उतार लाने का स्तुत्य प्रयास किया है। इसमें उनका गद्य लंबे लंबे अलंकृत वाक्यों के लिए प्रसिद्ध है। द्विवेदीजी ने हिन्दी भाषा की प्रकृति के अनुकूल भाषा का प्रयोग किया है जो काम इतना आसान नहीं है। सामाजिक ऐतिहासिक दृष्टि से अतीत को वर्तमान और वर्तमान को अतीत में घुला मिलाकर एक कर देने में उनकी सृजनशक्ति की क्षमता प्रकट है। द्विवेदी जी परम्परा और आधुनिकता के परस्पर संबंध को समझाने के लिए संस्कृत की यह उक्ति प्रायः उद्धृत करते थे - 'चलति एकेन पादेन तिष्ठति एकेन पादेन परंपरा एक पैर से चलती है दूसरी पर खड़ी रहती है । उन्होंने अपने अन्य उपन्यासों में भी इसी कौशल से मध्यकालीन संस्कृति का कथाचित्र निर्मित किया है।
हिन्दी की उन्नति और प्रगति को वे भारतीय अन्य भाषाओं की प्रगति और उन्नति के संदर्भ से देखने का आग्रह करते थे। उनकी यह राय थी कि हिन्दी राष्ट्रभाषा है या नहीं इसका निर्णय हिन्दीतर जनता को करना है। यह हिन्दी भाषियों की समस्या नहीं है। वे कहा करते थे कि हमारा साहित्य ऐसा होना चाहिए कि अन्य भाषा-भाषी उसे पढ़ने के लिए अपने आप आकृष्ट हों।
आचार्य जी अध्यापक थे, गुरु, महानगुरु। वे परम शिष्यवत्सल गुरु थे । यह मेरा सौभाग्य रहा कि सुदूर दक्षिण से हिन्दी के गढ़ में आकर हिन्दी की उच्च शिक्षा पाने की ललक से चले आये मुझे उन्होंने भरपूर स्नेह दिया, मुझे प्रोत्साहन भी उनसे प्राप्त हुआ। एक दशक से भी ज्यादा रहकर अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने यहाँ वापस लौटते मुझे बुलाकर उन्होंने यह दिशा निर्देश दिया कि दक्षिण के छात्र अपनी भाषा, साहित्य, संस्कृति को हिन्दी में ले आवे ताकि हिन्दी के माध्यम से हम समस्त भारतीय भाषाओं के उत्तम साहित्य के सौन्दर्य, माधुर्य एवं रसगंध से परिचित हों और आनंदित हों। समस्त भारतीय भाषाओं के साहित्य को एक राष्ट्रीय साहित्य-जातीय साहित्य संपदा के रूप में देखने, समझने और परखने का उनका इस अखिल भारतीय दृष्टिकोण एवं विशाल मानवता की दृष्टि ने मुझे अभिभूत कर दिया। आज तक मैं अपने गुरुजी के इस दिशा-निर्देश का पालन करने का अपनी क्षमता और योग्यता के अनुसार - प्रयास करने में संलग्न रहता हूँ। यह तो भगवान की कृपा समझिये कि मुझे ऐसे मानवता से संपन्न गुरु मिले। इसके लिए मैं ईश्वर को अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।
- डॉ. एम. शेषन्
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