आधुनिक हिन्दी नाटकों में स्त्री स्वतंत्रता का रूप

Dr. Mulla Adam Ali
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Aadhunik Hindi Natakon Mein Nari

Aadhunik Hindi Natakon Mein Nari

आधुनिक हिन्दी नाटकों में स्त्री स्वतंत्रता का रूप

आधुनिक हिन्दी साहित्य में नाटक एक सशक्त विधा है। यह जन-समाजके लिए एक प्रत्यक्ष प्रेरणा स्रोत है। समाज और व्यक्ति से जुड़े यथार्थता को नाटककार सिर्फ लिखित नाटक के रूप में नहीं, बल्कि रंगमंच पर लाकर जन-जन तक इसका प्रभाव पहुँचाने में सफल होता है। अभिनय के द्वारा नाटक के पात्र धीरे-धीरे अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व ग्रहण कर लेते हैं, जो प्रत्येक व्यक्ति सामाजिक जीवन में चाहता है।

नारी समाज का एक विशेष अंग है। सृष्टि के प्रारंभ से समाज निर्माण में एक मुख्य भूमिका निभाती आ रही है। परन्तु प्रत्येक क्षेत्र में उसकी स्वतंत्रता पर आघात पहुँचती है। इसलिए नारी आधुनिक हिन्दी नाटककारों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र रही है। विशेष रूप में महिला नाटककार ने अपने नाटकों के नारी पात्रों के द्वारा स्त्री स्वतंत्रता का रूप और संघर्ष अति- सुन्दर ढंग से चित्रित करने में सफल हो पायी हैं।

परिवर्तित सामाजिक मूल्यों और समाज व्यवस्था के बीच नारी का जीवन, मन, विचार जब विभिन्न स्तरों पर आहत होते हैं, तब उसके मन में कुछ बदलने की बेचैनी होती है। वह अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ स्वतंत्र निर्णय लेती है। यहाँ पर मन्नु भण्डारी और मृदुला बिहारी के नाटकों में स्त्री स्वतंत्रता का रूप पर दृष्टिपात किया गया है।

मन्नु भण्डारी के द्वारा लिखित नाटक 'बिना दीवारों के घर' में मध्य वर्गीय परिवार के कामकाजी दम्पत्तियों के मनमुटाव और वैचारिक संघर्षों का चित्रण है। घर, एक मकान है, जिसकी दीवारें प्यार, विश्वास, त्याग और सहयोग की भावना के आधार पर मानवीय रिश्तों से बनायी जाती है। पर जहाँ पति, पत्नी पर संदेह की दृष्टि से देखता है वहाँ ये रिश्तों की दीवार टूट जाती है। नाटक में अजित अपनी पत्नी शोभा को शिक्षित बनाता है। शोभा कॉलेज लेक्चरर बनती है। उसकी एक बेटी भी है। परिवार के मित्र के रूप में जयंत शोभा को कॉलेज में प्रिंसिपल का पद दिलाने में सहायक होता है। परन्तु अजित के मन में जयंत और शोभा के खुले व्यवहार को लेकर संदेह होने लगता है। वह शोभा पर अनेक पाबंदियाँ लगाता है। अपने पति को समर्पण भाव से प्यार करने वाली शोभा के मन में पति के हाथों अपने चरित्र, स्वत्व और व्यक्तित्व की अवहेलना पाकर उसका स्त्रीत्व विद्रोह कर उठता है। तब वह अपनी जीजी से कहती है 'मैं अब एक मिनट के लिए भी इस घर में नहीं रहना चाहती जीजी। ये बैकार नहीं होते तो कभी की घर छोड़कर चली जाती। कौन रह सकता है ऐसे शक्की आदमी के साथ ?' शोभा घर छोड़कर जाने को तैयार होती है। परन्तु अजित बच्ची को शोभा के साथ नहीं छोड़ता। वह अपनी पति से कहती है 'तुम सोचते हो कि तुम अप्पी के बहाने मुझे इस अपमानजनक स्थिति में रहने को मजबूर कर सकोगे। पर ऐसा होगा नहीं। ऐसा नहीं हो सकता।' पति अजित के ईर्ष्यालू, संदेही स्वभाव से तंग आकर कहती है 'इस घर की चार दीवारी के परे भी मेरा अपना कोई अस्तित्व है, व्यक्तित्व है.... ठीक है, मैं तो अकेली ही चली जाऊँगी। जहाँ मैंने अपने भीतर की पत्नी को मारा है, वहीं अपने भीतर की माँ को भी मार दूंगी।' उस परिवार से दूर वह अकेली रहना चाहती है, जहाँ उसका व्यक्तित्व और स्वतंत्रता सुरक्षित रह सके। यहाँ शिक्षा और आर्थिक स्वतंत्रता के आधार पर नारी मुक्ति का सपना साकार होता है।

आज की नारी जागृत है। वह किसी आज्ञा के बंधन में आकर अंधानुकरण करना नहीं चाहती। अपना पथ स्वयं चुनना चाहती है। चुने हुए मार्ग पर अग्रसर होना चाहती है। मृदुला बिहारी के द्वारा लिखित नाटक 'छोटा सा अंतराल' नाटक की पल्लवी आधुनिक विचारों वाली शिक्षित लड़की है। शादी के लिए जब लड़की देखने आते हैं, तब वह अपने पापा से कहती है कि 'पापा, आपने मुझे आत्म-निर्भर बनने का पहला पाठ पढ़ाया है।... लड़की का अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व नहीं होता ? हमारा सारा सामाजिक परिवेश लड़कियों को एक माल की तरह पेश करता है, माल की तरह स्वीकार करता है।' जब उसकी माँ लड़के के बारे में बोलती है तो वह दृढ़ स्वर में कहती है 'हम केवल रहन-सहन से आधुनिक हैं, विचारों से नहीं।' लड़का सुधीर से वह खुद कहती है कि 'हमें एक कामाडेटी तरह पेश करने का मतलब हुआ कि हमारे भीतर अधीनता का भाव जगाना और ये... ये मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ है।'

मृदुला बिहारी के द्वारा लिखित नाटक 'जंगली आग' की नायिका वीना का पति सुधीर, पत्नी का नौकरी करना पसंद नहीं करता। जब वीना इस बात को अपनी सहेली मीरा से कहती है तो मीरा का स्वर नारी जागृत का आवाहन देता है। वह उसे कहती है ‘अपने हक के लिए लड़ना पड़ता है, दूसरा नहीं आएगा तुम्हें मुक्त कराने...। जिस चीज के प्रति स्त्रियों को विद्रोह करना चाहिए उसे वे नजरें झुकाकर स्वीकार कर लेती हैं... यहाँ जो अनुचित है, वही उचित की संज्ञा पाता है।... लेकिन आज पीड़ित स्त्री को आवाज उठानी होगी...।'

हिन्दी की महिला नाटककारों के नाटकों से स्त्री वैयक्तिक स्वतंत्रता की तलाश है। यह तलाश तीव्र से तीव्रतर होती गयी है। नारी आज पारिवारिक मिथ्या प्रतिष्ठा को स्वीकार नहीं करती। इस प्रकार महिला नाटककारों ने नारी मन की अन्तः स्थल तक पहुँच कर उसके अंदर स्वतंत्रता के लिए धधकती विचार -ज्वाला को पहचान पाने में समर्थ हुई हैं।

- श्रीमती प्रीतीलता एस.

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