Swami Dayananda Saraswati: A Philosophical Personality
स्वामी दयानन्द सरस्वती : एक दार्शनिक व्यक्तित्व
स्वामी दयानन्द सरस्वती का नाम सुनते ही मानस में एक ऐसे कर्तव्यनिष्ठ ब्रम्हचारी का चित्र उभरता है, जो सामाजिक क्रांति के अग्रदूत माने जाते है। उन्होने सदियों से चली आ रही सड़ी-गली परंपराओं पर कुठाराघात किया ताकि हिन्दू समाज में नवचेतना जागृत की जा सके। स्वामी जी वैदिक संस्कृति के महान रक्षक थे। स्वामी जी का जन्म 1824 ई. में गुजरात प्रांत के टंकारा नामक गाँव में हुआ। उनके पिता अंबाशंकर जी समाज के प्रतिष्ठित व समृद्ध नागरिक माने जाते थे। वह एक कट्टर शैव थे, अतः पुत्र को शैव बनाने की इच्छा स्वाभाविक ही थी। बाल्यकाल में स्वामीजी को "मूलशंकर" के नाम से जाना जाता था। पिता की इच्छा थी कि पुत्र उनकी भाँति वेदों में पारंगत हो। मात्र पाँच वर्ष की आयु में बालक ने मंत्र स्त्रोत व श्लोक रट लिए। पिता वे परिवार के अन्य वयस्कजन चाहते थे कि बालक में एक सद्गृहस्थ, संस्कारी युवक के संस्कार कूट कूट कर भर दिए जाएं किन्तु मूलशंकर का भविष्य दूसरी दिशा में ले जा रहा था।
असाधारण मनुष्यों के लिए साधारण घटनाएँ भी कम प्रभावी नहीं होती, उनकी तीक्ष्ण दृष्टि, भाव प्रवणता, वैचारिक क्षमता, • प्रत्येक घटना की मीमांसा करने को विवश कर देती है। यूँ तो भीतर ही भीतर उनकी बुद्धि किसी नए मार्ग के अन्वेषण में व्यस्त थी, किन्तु एक घटना ने तो आस्था व अनास्था के प्रश्नों का ही समूल नाश कर दिया। 1838 में शिवरात्री के अवसर पर पिता की आज्ञा से रात्री जागरण करते हुए मूलशंकर ने देखा कि शिव की प्रस्तर मूर्ति पर चूहे दौड़ रहे थे। पिता से पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह तो पत्थर की मूर्ति है अतः उन्होंने निश्चय किया कि पत्थर का पूजन फिर क्यों हो। वे घर गए और उपवास भंग करके स्वल्पाहार लिया। इस घटना से मूलशंकर जी के मन में वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया। यह सब देखकर उनके पिता अंबाशंकरजी स्वामी जी का विवाह करने की सोचते है, लेकिन स्वामी के मन में पूर्णत: विरक्त भावना भर चुकी थी। 22 वर्ष की अवस्था में गृह त्याग किया और अपना नाम "शुद्धचैतन्य" रखा। बाद में 1861 में दयाराम से दयानन्द हो गये। वे मथुरा पहुँचे उन्हें सदगुरु के रूप में स्वामी विरजानन्द का सानिध्य प्राप्त हुआ। वहाँ उन्होंने "महाभाष्य" जैसे व्याकरण ग्रंथो निरक्त, निघंटु, वेदों आदि ग्रंथो का अध्ययन किया। 1863 ई. से 1883 ई. तक वे वैदिक ज्ञान और धर्मप्रचार में लगे रहे। 1875 में ई. तक वे वैदिक ज्ञान और धर्म प्रचार में लगे रहे। 1875 में उन्होंने 'सत्यार्थ प्रकाश' ग्रंथ प्रकाशित किया। उन्होंने 1875 ई. में ही राजकोट में सर्वप्रथम आर्य समाज की स्थापना की।
स्वामी दयानन्द सरस्वती एक क्रान्तिकारी और विश्वदृष्टा थे। मानव जीवन का ऐसा कोई भी वैयक्तिक या सामाजिक पहलु नही है जिसका पथ प्रदर्शन स्वामी जी ने नहीं किया हो। सभी विषयों पर वह शारीरिक, मानसिक या फिर अध्यात्मिक विकास हो उन्होंने उस पर लेख लिखे तथा व्याख्यान में दिये । उनकी महत्ता से प्रभावित होकर महात्मा गाँधी ने एक बार कहा था- "स्वामी दयानन्द हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषि सुधारको और श्रेष्ठ पुरुषों में से एक थे। उनके जीवन का प्रभाव हिन्दुस्तान पर बहुत अधिक पड़ा है।"
सच में ही स्वामी दयानन्द जी का व्यक्तित्व एक दार्शनिक है। दर्शन के इतिहास में आज तक दयानन्दजी का दर्शन नही मिलता। इसका कारण क्या है यह बात समझना कठिन है किन्तु यह समझना सरल भी है क्योंकि उन्होंने प्राचीन हिन्दू धर्म तथा अन्य सभी धर्मों की इतनी आलोचना की कि वे एकमात्र आलोचक और सुधारक रह गये। फिर उनके अपने जो दार्शनिक विचार है, वे "सत्यार्थ प्रकाश" में मिलते है। उन्होंने कहा कि - "ईश्वर सत् चित् और आनन्द का स्वरूप है। ये तीनों गुण शाश्वत है। इस दृष्टि से उन्हें अद्वैतवादी अथवा द्वैतवादी न कहकर "प्रेतावादी" की संज्ञा दी गयी है। यहाँ पर वे शंकराचार्य और रामानुजार्य से भिन्न मत रखते है। सत्यार्थ प्रकाश प्रथमोल्लास में उन्होंने ईश्वर के 108 नाम बताये है, जो उसके विभिन्न गुणों के बोधक है। वेदों में ईश्वर को पुरुष-रूप में भी माना गया है। इस आधार पर स्वामी दयानन्द ने भी ईश्वर को, पदार्थभिलाषी, पुरुषार्थपूर्ण विवेक युक्त माना है। इन विचारों से सुस्पष्ट है कि स्वामी दयानन्द ने ईश्वर को सगुण और निर्गुण- दोनों का ही मेल बताया है। उनका विश्वास है, "अनादि पदार्थ तीन है- एक ईश्वर, दूसरा जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात जगत का कारण। इन्हीं को नित्य भी कहते है। जो नित्य पदार्थ है उनके गुण कर्म और स्वभाव भी नित्य है।"
स्वामी जी ने मनुष्य की आत्मा के बारे में कहा है- मनुष्य का शरीर आत्मा का निवास है। आत्मा अमर और शाश्वत है तथा उसकी ज्ञान-शक्ति सीमित है। आत्मा को शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, दुःख-सुख और सत्यासत्य का ज्ञान होता है। इसका आधार मनुष्य की ज्ञानेन्द्रियाँ है। मनुष्य की आत्मा चैतन्य स्वरूप है। जीव ईश्वर के व्यापक स्वरूप से सम्बन्धित है, वह शरीर में परिच्छिन्न है।
स्वामी जी के अनुसार "यह सृष्टि (प्रकृति) सत्य है" वे कहते है- जो पृथक द्रव्यों का ज्ञान-युक्ति पूर्वक मेल होकर नाना रूप बनाती है। उनके द्वारा स्थापित 'आर्य समाज' के 10 नियमों में कुछ संकेत प्राप्त है जो सत्य (ज्ञान) को दर्शाते है :
सब सत्य-विद्या और जो पदार्थ-विद्या से जाने जाते है, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
सत्यग्रहण करने और असत्य का त्याग करने के लिए सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है।
वेद पढ़ना-पढ़ाना, सुनना सब अर्थों का परम धर्म है।
इन नियमों से सत्य, विद्य अथवा ज्ञान के सम्बन्ध में दयानन्द जी के विचार मिलते है। सत्य से मनुष्य प्रत्येक वस्तु का और अपना भी स्वरूप जानता है और जब यह ज्ञान होता है तब उसमें प्रकाश (विधा) होता है और वास्तविकता प्रकट होनी है।
संदर्भ ग्रंथ;
1. बंकिम-तिलक, दयानन्द (अरविन्द)
2. महर्षि दयानन्द सरस्वती (पं. हरिश्चन्द्र विद्यालंकार)
3. भारतीय चिन्तक (डॉ. पृथ्वी नाथ पाण्डेय)
- एस. दत्ता गुरु
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