Environmental Consciousness in Hindi Stories
साम्प्रतिक हिन्दी कहानियों में पर्यावरण चेतना
पर्यावरण प्रदूषण आज विश्व में चिंता का विषय है। भारत में पिछले लगभग चार दशकों से प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित दोहन से पर्यावरण में प्रदूषण घुलता गया है। इससे व्यक्ति जीवन और संतुलित सामाजिक विकास दुष्प्रभावित हुए, हैं। औद्योगिक विकास के नाम पर प्राकृतिक प्रभावों की उपेक्षा से क्षेत्र विशेष की भौगोलिक स्थितियों में परिवर्तन आता गया है और यह परिवर्तन ही प्रदूषण का हेतु बना। औद्योगिक विकास आर्थिक समृद्धि के द्वार खोलता सुख-सुविधाओं से जुड़ता है। अपनी सम्मोहकता में सुख-सुविधाएं प्राप्ति के महत्त्व को ही दर्शाती हैं, विनाश की वेदना को नहीं। पर्यावरण संरक्षण का औद्योगिक विकास से विरोध नहीं, प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग में तात्कालिक आर्थिक लाभ की स्वार्थपूर्ण दृष्टि से है। वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों के प्रवाह में कल-कारखानों से उत्सर्जित पदार्थों का निष्कासन, वाहनों से निकलता कूड़े के ढेर, खेतों, खुले मैदानों, रेल की पटरियों के किनारे निसंकोच मल- मूत्र विसर्जन, कुंडों-पोखरों, तालाबों में पशु-स्नान, कपड़ों की धुलाई आदि तीव्र गति से पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। भारत में अनियंत्रित जन संख्या वृद्धि, महानगरों का विस्तार, औद्योगिक संस्थानों द्वारा पर्यावरण संतुलन विषयक दिशा- निर्देशों की अवहेलना, सरकारी और गैर सरकारी प्रबंध- निरिक्षण समितियों में व्याप्त दायित्वहीनता, जन सामान्य की तद् विषयक अज्ञानता आदि पर्यावरण प्रदूषण में निरन्तर वृद्धि कर रहे हैं। कम संख्या में ही सही, विश्वचेतना में साम्प्रतिक हिन्दी कहानियों में भी सामाजिक जीवन का यह पक्ष उभरा है। कहानिकारों ने पर्यावरण प्रदूषण के दुष्परिणामों को दर्शाते हुए प्रकृति में संतुलन बनाये रखने का आग्रह किया है।
दिव्या भट्ट की 'कीट भक्षी'' में मृत्यु-दर्शन को उभारते हुए बड़े कीड़ों द्वारा छोटे कीड़ों को आहार बनाने के तथ्य को गहराया गया है। कीड़े ही कीड़ों का आहार बनते हैं। इस प्रकार प्रकृति अपना कीट विषयक संतुलन बनाये रखती है। कहानी में व्यक्त भाव वन्य पशु संरक्षण से जुड़ता है। सृष्टि से किसी भी पशु, कीट या पक्षी प्रजाति का लुप्त होना श्रेयकर नहीं है। सामाजिक जीवन में पालतू पशुओं और उत्पादन सहायक कीटों का जितना महत्त्व है, पर्यावरण संरक्षण में उतना ही वन्य पशुओं और जन्तुओं का है। जीव विज्ञान साक्षी है, कि प्रजाति विशेष के लुप्त होने से प्राकृतिक संतुलन डगमगाया है। नीलप्रभा भारद्वाज की 'क्योंकि वह आदमी है" का परिंदा आदमी से कहता है कि आदमी प्रकृति को चुनौती देता है। आदमी ने वनों को काटकर बस्तियां बसाई, नगर बसाये। उसने सागर-किनारे बहु मजिले भवन निर्मित किये। समय बदलने पर सब कुछ नष्ट हो गया। कालान्तर में यही परिन्दा उसी आदमी को देखता है। आदमी पुनर्निमाण में व्यस्त है। कहानी में दर्शाया गया है कि प्रकृति में संतुलन बिगड़ने से विनाश बढ़ता जाता है। एक दिन सब कुछ नष्ट हो जाता है। ऐसा होते हुए भी सृजन रुकता नहीं पुनर्ररचना व्यक्ति का स्वभाव है। विनाश के पश्चात् निर्माण होता है किंतु असंतुलन विनाश का कारण बनता ही है। उदय सहाय की 'तीर्थमय यात्रा'' में कैलाश यात्रा की प्रासंगिकता में पर्वतीय सौंदर्य को दर्शाते हुए ऐसे सौंदर्य को अक्षुण्य बनाये रखने का आग्रह है। पर्वत उन भूगर्भीय और भौगोलिक शक्तियों, परिवर्तनों और परिणामों के प्रमाण हैं जो सृष्टि रूप में प्राकृतिक संतुलन का अंग है। पर्वत से जुड़ी कथाएं, किवदंतियां, आस्थाएं, विश्वास आदि लोक जीवन का अभिन्न अंग हैं। पर्वतीय सौंदर्य मन में मधुरता, मदुलता, ससृणता घोलते हुए उसे शांत, स्थिर, प्रसन्न और स्वच्छ रखता है। प्राकृतिक उपादानों के ये सामाजिक जीवन को भी कुत्साओं, वीयत्सताओं उपहार, और विकृतियों से दूर रखने में सहायक होते हैं। डॉ. हासन रशीद खान की 'इक्कीसवीं सदी की छत'" में बृक्षों के महत्त्व को गहराया गया है। कहा गया है कि बृक्षारोपण हमारी सामाजिक आवश्यकता है। कहना होगा कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के विकास में नदियों की जो भूमिका रही है लगभग वही भूमिका वनों और वृक्षों की रही है। हमारे ऋषि-मुनियों ने जहां नदियों के किनारे आश्रम बनाये वहीं वनों में जाकर घोर तपस्या भी की, आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की। वन जलवायु को प्रभावित करने के बड़े कारक रहे हैं। वनों की अंधाधुंध कटाई से वर्षा कम हुई है, तापमान में वृद्धि हुई है। पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है। कहानी में पर्यावरण प्रदूषण से सामाजिक जीवन में आसन्न संकट की आशंका से कहानीकार ने वृक्षारोपण को इस शताब्दी की महती आवश्यकता बताया है। मुरारी शर्मा की 'मुट्ठी भर धूल' में सतलुज नदी पर बनाये जा रहे बांध की पृष्ठभूमि में नदियों के सहज प्रवाह को बांधने से पर्यावरण संतुलन की बिगड़ती स्थितियों पर चिंता व्यक्त की गयी है। बांध निर्माण ग्रामीणों के लिए विस्थापना और पुनर्वास की समस्या भी बन जाता है।
संतोष दीक्षित की 'देखते-देखते में नदियों के प्रदूषण से नित्य बढते पेयजल के संकट के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की गयी है। भारत में नदियां मुख्य जल स्रोत रही हैं। कृषि व्यवसाय बहुतांश में नदियों के जल पर निर्भर करता है। प्रदूषण के साथ नदियां सूख भी रही हैं। कहानी में कहानीकार की स्मृतियों में गंगा के किनारे बिताये जीवन के चित्र उभरते हैं। गंगा अब पवित्र नहीं रही। नगरों-गांवों का मलमूत्र, कचरा, कल-कारखानों के उत्सर्जित पदार्थ आदि गंगा नदी में 'प्रवाहित' कर दिये जाते हैं। इस प्रदूषित जल के उपयोग से अनेक प्रकार की बीमारियां फैलती हैं, सामाजिक जीवन कुप्रभावित होता है। जल का प्रदूषण गंगा नदी के प्रति हमारी आस्थाओं, विश्वासों, श्रद्धा, भक्ति आदि को भी डगमगा देता है। गंगा नदी से जुडी हमारी कथाओं, लोक गीतों, प्रवचनों आदि पर भी प्रश्नचिन्ह लग जाते हैं। भारतीय सभ्यता और संस्कृति के अनेक अंश विवादास्पद बन जाते हैं। कहानी नदी जल प्रदूषण को व्यापक सामाजिक जीवन में उभारती हुई पर्यावरण संतुलन के प्रति सचेत करती है। डॉ. देवेन्द्र मिश्र की 'एक अनार सौ बीमार" में अनार के पौधे को लेकर उठती गिरती भावनाओं द्वारा पर्यावरण संतुलन पर बल दिया गया है। घर की नाल में उगे हुए अनार के पौधे को पड़ोस के लड़कों द्वारा उखाड़ दिये जाने पर कथानायक व्यथाग्रस्त हो जाता है। बढ़ता हुआ पौधा मन को प्रफुल्लता से भर देता था। उसे देखकर सुख का अनुभव होता था। उसका न रहना मन में विषाद घोल देता है। कहानी पेड़-पौधों को प्रफुल्लता, प्रसन्नता, सुखानुभूति, आनन्द आदि का स्रोत मानते हुए प्राकृतिक सौंदर्य के महत्त्व को गहराती है। अभिताभ शंकर राय चौधरी की 'नोनाजल'" में सुनामी से हुए विनाश को दर्शाया गया है। सुनामी ने तमिलनाडु के सागर तट पर बसे हुए गांवों को तहस-नहस कर दिया। मछुआरे और उनके परिवार उजड़ गये।
पर्यावरण चेतना केन्द्रित साम्प्रतिक हिन्दी कहानियां गहरे विश्व बोध में मानव जीवन की एक ज्वलंत समस्या पर प्रकाश डालती है। पर्यावरण प्रदूषण भारत ही नहीं समस्त विश्व में चिंता का विषय बना हुआ है। कहानीकारों का इस विषय में चिंतित होना प्रस्तुत की पहचान, सम-सामयिक अपेक्षाओं आदि को दर्शाता है। उसकी यह चिंता साहित्य को सामाजिक समस्याओं से सीधे जोडती है। साहित्य की अन्य विधाओं की अपेक्षा कहानियों में ये समस्याएं अधिक प्रभावात्मकता में उभर रही हैं।
संदर्भ;
1. समकालीन भारतीय साहित्य, नवम्बर-दिसम्बर 2006
2. मधुमती, फरवरी 2007
3. समकालीन भारतीय साहित्य जनवरी-फरवरी, 2007
4. मधुमती, अगस्त 2007
5. समकालीन भारतीय साहित्य, नवम्बर-दिसम्बर 2007
6. वही
7. मधुमती, जनवरी 2008
8. समकालीन भारतीय साहित्य, मई-जून 2008
9. भाषा, मई-जून 2008
10. आजकल, दिसम्बर 2008
डॉ. ब्रह्म स्वरूप शर्मा
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