14 September Hindi Diwas : Samvidhan Mein Hindi
14 सितंबर हिंदी दिवस पर विशेष संविधान में हिंदी : राष्ट्रीय हिंदी दिवस सितंबर 14 और विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी पर विशेष "संविधान में हिंदी"। हिंदी भाषा पर महत्वपूर्ण जानकारी संविधान में हिंदी। पढ़े और शेयर करें।
संविधान में हिंदी
राष्ट्रीय एकता के रूप में हिंदी का प्रयोग शताब्दियों पुराना है और यह कहा जा सकता है कि हिंदी का उद्भव ही भारत की एकता के लिए हुआ है। भाषा केवल संप्रेषण का साधन मात्र ही नहीं, उसके पीछे जीवन ओर धरती के स्पंदन का सांस्कृतिक तत्व भी है। संस्कृत ने एक समय जो कार्य किया था वह हिंदी का दायित्व प्रारम्भ से ही रहा है। राष्ट्रीय संदर्भ में हिंदी की स्थिति को ध्यान में रखें तो अनेक नाम सुझाए गए हैं- राष्ट्रभाषा, राजभाषा, संघभाषा, संपर्क भाषा, व्यवहार भाषा आदि। इन नामों को लेकर काफी आपत्तियाँ भी उठाई गई। परंतु इन नामों के पीछे वास्तविक अभिप्राय क्या था?
राष्ट्रभाषा इस शब्द के प्रयोग के पीछे एक ऐतिहासिक कारण है। हिंदी को राष्ट्रभाषा इसलिए नहीं कहा गया कि वह राष्ट्र की एकमात्र सर्वप्रमुख भाषा है, बल्कि इस नाम का प्रयोग अंग्रेजी को ध्यान में रखकर किया गया था। अंग्रेजी एक विदेशी भाषा थी जो विदेशी शासन का अनिवार्य अंग थी। अंगी के साथ अंगों का भी निराकरण आवश्यक हो जाता है। अंग्रेजी शासन - सूत्र का विरोध करते समय उससे संबंधित और भी जो वस्तुएं थी उनका विरोध आवश्यक हो गया। क्योंकि विदेशी भाषा का प्रभाव केवल शासन तक ही सीमित नहीं रहता। वह संस्कृति को भी प्रभावित करती है। इसलिए स्वाधीनता संग्राम के समय नेताओं ने प्रत्येक दृष्टि से स्वदेशीपन या राष्ट्रीयता की भावना जगाने की कोशिश की और यह नाम उसी प्रसंग में सामने आया। अंग्रेजी- जैसी विदेशी भाषा को छोड़कर अपनी भाषाओं के प्रति उन्मुख होना चाहिए, हृदय से इसको स्वीकार करना चाहिए। यही उस आंदोलन का अनिवार्य लक्ष्य था। यानी विदेशी शासन के विरुद्ध आंदोलन को सक्रिय बनाने का यह एक अंग था।
दूसरी बात सम्पूर्ण राष्ट्र में संचार की कोई भाषा हो सकती है तो वह है हिंदी हिंदी की इसी विशेषता को ध्यान में रखकर उसे संविधान ने राजभाषा के रूप में स्वीकृति प्रदान की। अतः समग्र राष्ट्र के लिए जो भाषा संपर्क स्थापित करने का कार्य कर सके उसे राष्ट्रभाषा कहने में क्या हानि या आपत्ति हो सकती है। इसमें दूसरी भाषाओं की अपेक्षा हिंदी को श्रेष्ठ बनाने का प्रश्न ही नहीं उठता और व्यापक दृष्टि से देखने पर संविधान में स्वीकृत बाईस भाषाएँ ही क्या, भारत की सभी भाषाएँ या बोलियाँ राष्ट्रभाषा कहलाने की उचित अधिकारिणी हैं।
भारतीय संविधान में हिंदी के लिए कहीं भी राष्ट्रभाषा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। इसे या तो संघभाषा (Language of the Union) या संघ की राजभाषा (Official Language of the Union) कहा गया है। संघभाषा कहने के पीछे भी उद्देश्य वही है जो राष्ट्रभाषा के पीछे, जो भाषा सारे संघ के लिए प्रयुक्त हो उसे संघभाषा कहना उचित ही है। आपत्ति करने वाले यहाँ भी आपत्ति कर सकते हैं कि शेष भाषाएँ भी तो संघ की ही हैं, फिर हिंदी को ही संघभाषा क्यों कहा जा रहा है। आखिर उस भाषा का कोई नाम तो रखना ही होगा जो राज्यों या प्रदेशों तक ही सीमित न रहकर सारे राष्ट्र के कार्यकलाप के लिए व्यवहृत हो रही है।
फिर संबंध भाषा, संपर्क भाषा, व्यवहार भाषा- इन नामों में कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि भारत में एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है जो पारस्परिक संबंध अथवा व्यवहार के लिए सुविधाजनक हो। नाम से अधिक महत्व यहाँ काम का है। वैसे कोई चाहे तो राजभाषा शब्द में भी आपत्ति कर सकता है क्योंकि श्रेष्ठता की भावना का रूप उसमें भी संभव है। राजभाषा अर्थात राजा की भाषा अर्थात शासक की भाषा। हम जानते हैं कि जनतांत्रिक शासन पद्धति में राजा शब्द का महत्व नहीं है। दंतकथाओं के राजा की तरह यह भी महत्वहीन शब्द मात्र है। कहने को राजभवन तो आज भी है, पर उनमें राजा नहीं रहते और जो रहते हैं वे राज्य के वैधानिक अध्यक्ष मात्र है, जिनका प्रशासनिक अधिकार नहीं के बराबर है। इसलिए राजभवन के समान ही राजभाषा भी निरीह शब्द है, जिसका अर्थ केवल राजकीय भाषा अर्थात, राजकाज की भाषा है। इसी अर्थ में भारत सरकार ने राजभाषा आयोग (Official Language Commission) का निर्माण किया था।
राजभाषा का प्रयोग मुख्यतः चार क्षेत्रों में अभिप्रेत है - शासन, विधान, न्यायपालिका और कार्यपालिका। इन चारों में जिस भाषा प्रयोग हो उसे ही राजभाषा कहा जाता है। यह कार्य शुरू में अंग्रेजी द्वारा होता रहा है और इसी का स्थान राजभाषा रूप में हिंदी को देना है। राजभाषा का यही अभिप्राय और उपयोग है।
भारत में भाषा की राजकीय स्थिति चार प्रकार की है - प्रादेशिक, अंतः प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय।
1. प्रादेशिक : प्रादेशिक भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण के बाद प्रत्येक राज्य के लिए एक-एक भाषा स्वीकृत हुई । इसको चाहें तो राज्यभाषा भी कह सकते हैं। किसी राज्य अथवा प्रदेश का शासन कार्य वहीं की भाषा में होगा, जैसे असम में असमिया, बंगाल में बंगला, तमिलनाडु में तमिल, केरल में मलयालम आदि। इस सीमा में हिंदी को दाखला नहीं देना है। प्रत्येक राज्यों को अपना कार्य अपनी भाषा में करने की पूरी छूट और स्वतंत्रता है। वह जो चाहे, जैसा चाहे, अपनी भाषा में करें।
2. अंत: प्रादेशिक : भारत अनेक राज्यों का - संघ है। इसलिए राज्य की सीमा पार करने पर एक ऐसी स्थिति आती है जिसमें एक भाषा छोड़कर दूसरी भाषा से सामना होता है। गुजरात की भाषा गुजराती है तो केरल की मलयालम । ये दोनों भाषाएं परस्पर अबोध्य हैं। गुजराती बोलनेवाला मलयालम नहीं समझता और मलयालम बोलने वाला गुजराती। इस कठिनाई को दूर करना है। पहले यह कार्य अंग्रेजी के द्वारा होता रहा। अब इसे हिंदी को ग्रहण करना है। इसलिए अंतः प्रादेशिक संचार के लिए हिंदी आवश्यक हो गई है। यही से हिंदी का उपयोग आरंभ होता है। एक राज्य से दूसरे राज्य का संपर्क स्थापन अंग्रेजी के बदले हिंदी को करना है।
3. राष्ट्रीय : तीसरी स्थित वह है जिसमें राज्यों को केंद्र से संपृक्त होना है, अर्थात केंद्र और राज्यों के बीच संचार की भाषा क्या हो, यह प्रश्न है। यह कार्य शुरू से ही अंग्रेजी करती आ रही है। इसे अब हिंदी करेगी। केंद्र और राज्य के स्तर पर अथवा यों कहें कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी को प्रयोग में लाना है।
4. अंतर्राष्ट्रीय : अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे दूसरे देशों में स्थित अपने राजदूतों के अधिकार पत्र भेजने होते हैं। राजनयिक वार्ताएं करनी होती हैं। वाणिज्य व्यवसाय की संविदाएँ तैयार करनी पड़ती है। भारत की संघभाषा के रूप में हिंदी का यह चौथा उपयोग है। इससे पहले यह कार्य अंग्रेजी से लेते रहे हैं। लेकिन इससे राष्ट्रीय सम्मान को अनेक बार ठेस पहुंची है। कुछ देशों में हमारे अधिकार पत्र अंग्रेजी में गए और वहाँ से यह कहकर लौटा दिए गए कि भारत की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं है। इसलिए हम इन पत्रों को स्वीकार करने में असमर्थ हैं। दुबारा उन पत्रों को हिंदी में भेजना पड़ा, तब वे स्वीकृत हुए। जो सभ्य समुन्नत देश हैं वे अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अपनी भाषा - के माध्यम से ही अपना कार्य करते हैं और उसमें गौरव का अनुभव करते हैं।
इस प्रकार प्रादेशिक, अंत: प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में पहला क्षेत्र व्यवस्था प्रादेशिक भाषाओं का होगा और शेष तीनों में हिंदी रहेगी, अर्थात हिंदी प्रादेशिक भाषाओं का स्थान नहीं लेने जा रही है, वह केवल उन स्थानों को लेगी जिन पर अब तक अंग्रेजी अधिकार जमाए बैठी रही है। इससे वस्तुस्थिति हो जाती है कि भारतीय भाषाओं में किस की क्या सीमा और क्या उपयोग है।
आज भारत की प्रशासकीय व्यवस्था ऐसी है कि जिस तत्परता और गति से हिंदी का व्यवहार होना चाहिए था उतना नहीं होता है। अंग्रेजी भाषा के प्रति अतिमोह के कारण हम कुछ वास्तविक बातों के संबंध में उदासीन हो गए है। इस संदर्भ में हम सभी इस बात को स्वीकारते हैं कि अंग्रेजी विदेशी भाषा है और वह कभी भी भारतीय संस्कृति की भाषा नहीं हो सकती । भाषा की गुलामी ही सच्ची गुलामी होती है। इसी कारण ही हमारी राष्ट्रीय एकता में वह चपलता दिखाई नहीं देती है, जो होनी चाहिए थी। इसीलिए एकता की रसधारा सर्वव्यापक बनाने के लिए हिंदी का अधिकाधिक विकास होना आवश्यक है। हिंदी जितनी समृद्ध होगी, उतना ही राष्ट्र समृद्ध होगा और एकता की रसधारा में वृद्धि होगी।
- डॉ. नरसिंह राव कल्याणी
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