हिंदी दिवस 14 सितंबर, 2024 पर विशेष बी. एल. आच्छा जी का लेख "राष्ट्रीय और विश्वभाषा के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी"(Hindi in the perspective of national and world language). विश्व भाषा के रूप में हिंदी, राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का महत्व को बताते हुए हिंदी दिवस पर आलेख, पढ़े और शेयर करें।
राष्ट्रीय और विश्वभाषा के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी
- बी. एल. आच्छा
आजादी मिलते ही गाँधीजी ने कहा था "कृपया, दुनिया को खबर कर दें कि गाँधी - अंग्रेजी भूल गया है।" इस एक वाक्य के अर्थ की कई दिशाएँ थीं। गाँधी ने समझ लिया था कि राजनीतिक-सांस्कृतिक अखण्डता वाले बहुभाषिक बहुसांस्कृतिक देश को मिलाने वाली एक सम्पर्क भाषा अनिवार्य है। यह भी कि विभिन्न क्षेत्रों की भारतीय भाषाएँ शिक्षा और प्रशासन में मातृभाषा को अपनाएँ, मगर राष्ट्रीय सम्पर्क के लिए हिन्दी को स्वीकार करें। यह भी कि आजादी के पहले राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं ने हिन्दी के लिए व्यापक सहमति दी थी और भारतीय भाषाओं के विकास के लिए प्रांतीय शासन में उनकी अनिवार्यता को महत्व दिया। यह भी कि अँग्रेजी का स्थान हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाएँ ले लें। यह भी कि शिक्षण व्यवस्था के लिए मातृभाषा सहज है अतः अँग्रेजी की जटिलता से बाल- शिक्षण कुंठित न हो या कि हिन्दी और भारतीय भाषाएँ अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के साथ विकसित हों, उनमें सहजता हो और अँग्रेजी के कृत्रिम दबाव से मुक्त हों। हिन्दी स्वराज्य की भाषा बने, कला-कौशल व्यापार और वाणिज्य का विकास मातृभाषाओं के साथ हिन्दी में हो। अपने भाषण में तिलक के पत्र का वाचन करते हुए उन्होंने कहा था "विदेशी जीवन का वृक्ष न हरा भरा और न पुष्ट हो सकता है, और न रक्षित रह सकता है।" हिन्दी के स्वीकार के साथ स्वराज्य की इस ध्वनि को आम सहमति मिली। लेकिन संविधान लागू होते-होते यह सहमति पन्द्रह वर्ष के लिए लंबित हो गयी, जो आज तक भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी की राष्ट्रीय स्वीकार्यता के बावजूद अँग्रेजी को स्थायी मुकाम किये हुए है। गाँधी ने अँग्रेजी भूलने को कहा, मगर आजादी के बाद अँग्रेजी को ज्यादा रटा जाता रहा, शिक्षा, प्रशासन और अन्तरराष्ट्रीय संबंधों में। यही नहीं, आज भी अंग्रेजी श्रेष्ठता के सांस्कृतिक अहम् से सभ्यता का प्रदर्शन करती है।
लेकिन जिस हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए मूर्तिमंत किया गया उसे राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए प्रयत्न भी कम नहीं हुए। भारतेन्दु ने तो 'निज भाषा उन्नति अह' के माध्यम से अस्मिता, सांस्कृतिक अभिरक्षा, स्वातंत्र्य सोच, व्यापार-व्यवसाय के विकास, शिक्षण - प्रशासन का राष्ट्रीय नजरिया दिया था, वह परवर्ती साहित्य में साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रवाह बनता गया। भारतेन्दु मण्डल के साहित्यकारों में अँग्रेजी राज के विरोध और जनकल्याण की आकांक्षाएँ अनुगूँज बनने लगी। राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा ने हिन्दी खड़ी बोली का ही परिमार्जन नहीं किया, बल्कि सांस्कृतिक विशिष्टताओं के अनुरूप पौराणिक चरित्रों की युगानुकूल उदात्तता और शक्तिमयता से पुनर्रना की। देखा जाए तो समूचा पुनर्जागरण आन्दोलन, गांधीजी का समूचा क्रियाशील जीवन दर्शन, स्वतंत्रता संग्राम का पूरा इतिहास भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी में वैसे ही उतर आया, जैसे भक्ति का भूगोल समूचे देश की जागरण यात्रा बन गयी। राधा, यशोधरा, कैकेयी, द्रौपदी जैसे अनेक स्त्री पात्र युगानुकूल नये सन्दर्भों में रचे गये और वे नारी की सांस्कृतिक अस्मिता के उदाहरण बन गये। रोमांटिसिज्म की छाया से हिन्दी में आया छायावाद इसी देश की सांस्कृतिक चेतना और शक्तिमयता का मौलिक रूप बन गया "शक्तिशाली हो विजयी बनो, विश्व में गूँज रहा जय गान।" 'जागो - फिर एक बार प्रकृति चैतन्य के साथ स्वातंत्र्य मंत्र बन गया। यों भी देखा जाए तो प्रेमचन्द के उपन्यासों में वही चेतना मौजूद थी जो बाद में प्रगतिशील आन्दोलन में उभर कर आई।
हिन्दी का प्रगतिशील साहित्य मार्क्सवाद का अनुवाद नहीं है। अज्ञेय ने आँगन के पार द्वार को ही नहीं रचा, बल्कि पश्चिमी मनोविश्लेषण को उपन्यासों में कलात्मक स्पर्श दिया। रामचन्द्र शुक्ल के मनोविकारों संबंधित निबंध तो विश्व साहित्य में बेजोड़ हैं। कहानी, उपन्यास और अन्य विधाओं में न केवल प्रभूत सृजन हुआ बल्कि इस देश की सांस्कृतिक जड़ें नये यथार्थ बोध के साथ विस्तार पाती गयीं। आज आदिवासी विमर्श पर भी कितना साहित्य रचा गया है। तात्पर्य यही कि हिन्दी ने जातीय चेतना के साथ राष्ट्रीय सांस्कृतिक परिवेश को मौलिक सृजन से वैश्विक बनाया। अलग बात है कि अच्छे अनुवाद के अभाव में वह विश्वस्तर पर पुरस्कृत नहीं हो पाया।
हिन्दी को पश्चिम की ऐतिहासिक चेतना के अनुरूप साहित्यिक इतिहास रचने का भी गौरव मिला। साहित्यिक कोश, इतिहास कोश, भाषाओं- बोलियों के शब्द कोश, परिभाषिक शब्द कोश निर्माण के लिए प्रयत्न साकार हुए। भारतीय आर्य भाषाओं और परम्पराओं को समझने में रामविलास शर्मा का अप्रतिम योगदान सार्थक रहा। राहुल सांकृत्यायन के घुमक्कड़शास्त्र के साथ यात्रा - साहित्य ही नहीं आया बल्कि भारतीय इतिहास की अधभूली कड़ियों को खोजने वाला साहित्य लौटकर आया। यही नहीं पत्रकारिता के कई नये रूप उभरकर आये। नागरी प्रचारिणी सभा जैसी संस्थाओं ने शोध और अनुसंधान की दिशा दी, प्राचीन साहित्य ऐतिहासिक सम्पदा बनी। डॉ. रघुवीर ने लगभग एक लाख शब्दों वाला शब्दकोश तैयार किया, भले ही उसकी उपयोगिता का उतना लाभ न हो पाया हो। तात्पर्य यही कि हिन्दी ने राष्ट्रभाषा और जनभाषा बनने की दिशा में मौलिक सृजन के साथ शब्दकोशीय सृजन, अनुवाद, विश्व साहित्य की धाराओं से हिन्दी साहित्य को जोड़ने का शक्तिमय यत्न किया। जो महज डेढ़ सौ साल की यात्रा है। अलबत्ता विद्वानों की शब्दावली और पाठ्यक्रम उपयोगी पुस्तकों की रचना में प्रारम्भिक उत्साह के बाद ठंडापन बरतता चला गया। इस पृष्ठभूमि में ही आज हम देश की राष्ट्र भाषा और विश्व भाषा के रूप में हिन्दी की अहमियत को पहचान रहे हैं।
इस पहचान के भी कई पार्श्व हैं। हिन्दी को आरोपित करने के तथाकथित प्रयास अब जितने ठंडे हैं, उतना ही हिन्दी का विरोध भी आज दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के चारराज्यों के केन्द्रों से सवा लाख विद्यार्थी हिन्दी शिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। हिन्दी के सरलीकरण के साथ उसके मानक रूपों को वैज्ञानिक दृष्टि से स्वीकार किया गया। यों भी हिन्दी की सरलता और व्यावहारिक लोच को सभी स्वीकार करते हैं, क्योंकि गाँधीजी ने जिस संस्कृत और फारसी शब्दों के लदेपन से अलग हिन्दी की बोलचाल की परिकल्पना की वह पूरे देश में आम भाषा बनती गयी। हिन्दी फिल्मों और धारावाहिकों ने केवल सांस्कृतिक संबंध प्रगाढ़ किये बल्कि विदेशों में भी वे भारत की पहचान बन गये। रामायण, महाभारत, चाणक्य जैसे धारावाहिक तो विदेशी जमन पर भी कर्फ्यू लगवाकर जनरंजन के साथ भारतीय संस्कृति की प्राचीनता और मानवीय कुटुम्बभाव के उद्घोषक बने ।
आज हिन्दी समझने वाले लोग हमारे प्रान्तों में ही नहीं, संसार के 130-135 देशों में विद्यमान हैं। सांख्यिकी बताती है कि विश्व में हिन्दी बोलने-समझने वाला समुदाय दूसरे स्थान पर है। देखा जाए तो पश्चिम का केंन्द्र अब एशिया में आ गया है और भारत-चीन की अगुवाई की बात होने लगी है। चीनी भाषा यानी मंदारिन को समझने वालों की संख्या चीन तक सीमित है और उनकी चित्र- लिपि अन्य भाषा-भाषियों के लिए बेहद कठिन । ऐसे में हिन्दी का जन प्रवाह और भाषा की आसानियाँ हिन्दी को विश्वभाषा की ओर ले जाती है। आज सिलिकोन वेली ही नहीं, यूरोप के देशों में और मध्यपूर्व के देशों में भी हिन्दी भाषियों की विशाल जनसंख्या इसका प्रमाण है, जो बॉलीवुड की फिल्मों और हिन्दी धारावाहिक कार्यक्रमों से उन देशों के मूल के लोगों को भी प्रभावित करते हैं।
हिन्दी को विश्वभाषा के रूप में पहचान दिलाने के कई कारगर प्रयत्न हो सकते हैं। ये प्रयत्न सरकारी और दूतावासों के माध्यम से ही हो यह जरूरी नहीं। लोक प्रवाह में बहकर कोई भाषा जितना विस्तार करती है और स्थायी सम्पत्ति बन जाती है, उतना सरकारी निर्देशों से नहीं। इंटरनेट के तकनीकी युग में अब यह और आसान होता जा रहा है। पहली बात तो यह कि अँग्रेजी को चुनौती देने के लिए यह धारणा लोकप्रिय बनाई जाए कि भारतीय भाषाओं से हिन्दी का कोई विरोध या स्पर्धा नहीं है। यह कितना आश्चर्यजनक है कि संविधान में बाईस भाषाओं की मान्यता के बावजूद अँग्रेजी बाहर होकर भी आसन जमाये हुए है और उसका प्रतिकार करने के बजाय उसकी अनिवार्यता को स्वीकार किया जा रहा है। अच्छी शिक्षा, अच्छे कॅरियर, ऊँचे जीवन स्तर और विदेशी जमीन का आकर्षण अँग्रेजी को अँग्रेजी- राज से भी ज्यादा व्यापकता दिये हुए है। जैसे अँग्रेजों ने अपने व्यापार के लिए बाबुओं की फौज खड़ी की थी, उसी तरह आज बहुराष्ट्रीय कंपिनयों में जगह पाकर अपनी सफलता और जीवन संतुष्टि को प्रतिमान बना दिया गया है। इस कुचक्र को सभी भारतीय भाषा भाषियों को समझना होगा क्योंकि देश अपने क्षेत्रीय भूगोल और सांस्कृतिक प्रवाह से अस्मिता पाता है तथा विकास की मौलिक संकल्पना भी उसे से आती हैं। मुश्किल तो यह है कि अँग्रेजी की संज्ञाएँही नहीं अब तो उसकी क्रियाएँ भी भारतीय भाषाओं में पसरकर मूल भाषाओं को विस्थापित कर रही हैं।
इस परिदृश्य में हिन्दी और भारतीय भाषाओं को देश और विश्व में अपनी पहचान बनाये रखने के लिए उसी तरह से जाग्रत होना पड़ेगा जैसे भक्ति आंदोलन के भूगोल ने आक्रांताओं को चुनौती दी थी। जैसे पुनर्जागरण ने पूरे देश को नया विवेक और सामाजिक रूपांतरण की चेतना दी थी। जैसे आजादी के आन्दोलन में हर भारतीय भाषा में एक ही स्वर बुलन्द होता था। जैसे हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए विभिन्न प्रान्तों की भाषाओं के नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की सहमति दी थी चाहे सी. राजगोपालाचारी हों या लाला लाजपतराय, गुजरात के गाँधी हों या बंगाल के सुभाष इत्यादि। यद्यपि देश की राजनीति के कुछ अक्ष ऐसे हैं, जो व्यवहारतः साधक नहीं हो पाते।
लेकिन राजनीति से हटकर भी कारगर उपाय किये जा सकते हैं। मसलन भारतीय भाषाओं में अनेक शब्द ऐसे हैं जो मूलतः संस्कृत के हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अहिन्दी भाषी प्रान्तों में ये शब्द आज भी कायम हैं जबकि अँग्रेजी मोह में हिन्दी भाषी इन्हें खो चुके हैं। तृणमूल काँग्रेस, लोकशक्ति, नवनिर्माण वेदिका शेतकरी संघटना जैसी संज्ञाएँ अहिन्दी भाषी प्रान्तों की राजनीति का शिखर हैं, मण्डपम्, छत्रम्, निलयम्, वल्लरी जैसे शब्द अहिन्दी भाषी प्रान्तों की जबान पर हैं, पर हिन्दी को आसान बनाने के नाम पर महाविद्यालय फिर कॉलेज हो गया है हिन्दी अखबारों में और हड़ताल स्ट्राइक में बदल गयी है। अंग्रेजी के कठिन शब्द सबके लिए आसान हैं, पर प्रचलन में आए हुए हिन्दी शब्दों के स्थान पर पत्र पत्रिकाओं में अँग्रेजी शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। वास्तविक रूप से होना तो यह चाहिए कि भारतीय भाषाओं के लोकप्रिय शब्दों को हिन्दी में स्वीकृति मिले और हिन्दी का शब्दकोश ब्रह्मपुत्र घाटी तथा कृष्णा-कावेरी के क्षेत्रों में जीवंत शब्दावली को समाहित करे। जब 'लव इन टोकियो' फिल्म का 'सायोनारा' हिन्दी में गूँज सकता है, तो देशीय भाषाओं की शब्दावली हिन्दी में तथा हिन्दी शब्दावली भारतीय भाषाओं की सहवर्तिनी क्यों न हो। यह अकादमिक कार्य भी है और लोकजीवनपरक भी मसलन हिन्दी में मुहावरा है खोदा पहाड़, निकली - चुहिया और गुजराती में कहते हैं- खोयो डूंगर ने निकल्यो ऊँदर। अब कौन सा मौजू है, जड़ों से पहचान कराता प्रयोग है। इसीलिए मराठी और गुजराती, बंगाली या उड़िया की जड़ें लोकवादी अधिक हैं।
हिन्दी को विश्वभाषा बनाने में केवल केन्द्र और हमारे दूतावास काफी नहीं हैं। उससे बड़ा माध्यम हमारी फिल्में और धारवाहिक हैं। भारत की साहित्य सम्पदा न केवल बृहत् है बल्कि कालजयी प्रासंगिकता के अनुकूल लचीली भी। रामायण, महाभारत, चाणक्य, कबीर जैसे धारावाहिकों ने देश ही नहीं विदेशों में भी सड़कों को सूनी करवा दी थी प्रदर्शन के समय / हिन्दी भाषा के साथ संस्कृति भी पहुँची। यों भी रूस में भारतीय फिल्मों की बेहद लोकप्रियता थी और आज भी हिन्दी फिल्म चीन में भी हजार करोड़ के पार जा रही हैं। यदि आधुनिक दृष्टि के साथ भारतीय साहित्य का धारावाहिकों में संदोहन किया जाए तो सास-बहू वाले धारावाहिकों से न केवल पिण्ड छूटेगा बल्कि देश-विदेश में भारतीय साहित्य की पहचान बनेगी। यह ताकत केवल प्राचीन साहित्य की नहीं बल्कि नये कथा - साहित्य की भी है। विश्व साहित्य को भी इसी तरह हिन्दी में लाकर आँगन के पार द्वार को रोशन किया जा सकता है।
राजनीतिक दृष्टि से हटकर यदि बात की जाए तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन-जिन देशों में गये, वहाँ वहाँ के भारतीय समुदाय ने हिन्दी में उनके भाषणों को सुना और सांस्कृतिक एकजुटता का परिचय दिया। जब विदेशों में भारत के इतने लोक- राजदूत हैं तो अमेरिकी शिक्षण संस्थानों में हिन्दी जगह बना रही है। यह स्थिति यूरोप के देशों में भी है, जहाँ भारतीय वाङ्मय के प्रति नया सोच पैदा हुआ है। आयुर्वेद को प्रकृति मित्र की तरह देखा जा रहा है। यही नहीं भारत के सांस्कृतिक पदचिह्न तो आज भी इंडोनिशिया, कंबोडिया, श्रीलंका, बंग्लादेश, थाईलैण्ड, बर्मा, चीन, नेपाल, भूटान जैसे देशों में विद्यमान हैं। इंडोनेशिया में तो सुकार्णी, सुहार्तो, मेधावाती सुकर्णोपुत्री जैसे शब्द शीर्ष राजनेताओं के नाम हैं, जबकि हिन्दी भाषी इनके अर्थों से भी अपरिचित इस गीली सांस्कृतिक और भाषिक जमीन के साथ उसी तरह रिश्ते बनें जैसे मॉरीशस, डचगुयाना, सूरीनाम आदि से और शोध के माध्यम से ऐतिहासिक पहचान को सामने लाया जाए। जब सालों पहले चीन से रेशम का व्यापार करने और कराटे का प्रचलन कराने वाले कोई तमिल यह व्यापारिक रिश्ता जोड़ सकता था. तो बौद्ध धर्म की आधारभूमि में ये रिश्ते तो उगाये ही जा सकते हैं।
आज कई देशों में प्रवासी भारतीय हैं और वे भी साहित्य रचना हिन्दी में कर रहे हैं। उनकी वर्तमान पीढ़ी तो हिन्दी में पहचान बना रही है पर अगली पीढ़ी में वही हिन्दी बोलचाल और लेखन निरंतर रहेगा? इसलिए ऐसे उपाय किये जाने चाहिए, जो वहाँ पर हिन्दी भाषियों की नयी पीढ़ी में भी हिन्दी को विस्तार दें। इन भारतीयों में भी भाषागत बहुलवाद उसी तरह कायम रहे जैसे हिन्दुस्तान में बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता। इनके समुदाय विदेशी जमीन पर अधिक निकट होते हैं। सांस्कृतिक आयोजनों के माध्यम से यह और आसान हो जाता है। इसी वर्ष अबूधाबी में दूतावास द्वारा आयोजित योग दिवस के कार्यक्रम में दो हजार लोगों ने सहभागिता की। निश्चय ही ये लोग भारतीय संस्कृति और भाषाओं के राजदूत हैं। भले ही जड़ों से थोड़ा कटा महसूस करते हों पर सांस्कृतिक संरक्षण के वे राजदूत तो हो ही सकते हैं।
भारत के विश्वविद्यालयों में ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में शोधकार्य होते हैं, पर विज्ञान के विषयों में अँग्रेजी का ही प्रभुत्व होता है। अब अकादमिक तौर पर वह समय आ गया है, जब उपसर्ग-प्रत्ययों से हिन्दी को पारिभाषिक बनाने के बजाय लोकप्रचलन के निकट की शब्दावली को चुना जाए। प्रादेशिक भाषाओं ने यह काम किया है। विश्वविद्यालयों में भी विज्ञान औरहिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के सहकार से ऐसी लोक प्रचलित शब्दावली को निर्मित किया जाए जिसमें विज्ञान, वाणिज्य या तकनीकी शब्दावली की जरूरत है, जो सामान्यजन की करीबी हो। यहाँ तक कि हिन्दी के संस्कारों से गढ़े गये अँग्रेजी और भारतीय भाषाओं की शब्दावली का निर्माण किया जाए। अभी सवाल परिनिष्ठित हिन्दी का नहीं राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आसान पहुँच के साथ हिन्दी को लोकप्रिय बनाने का है। व्यापार में यह हिन्दी ढ़लकर आए या हिन्दी सिनेमा के लोकप्रिय गीतों नृत्यों के माध्यम से, पर वह लोगों की थिरकन बने। यह भी कि सूचना क्रांति में भारतीय युवाओं का जो दबदबा है, उन्हें भारतीय भाषाओं और हिन्दी के अनुकूल सॉफ्टवेयर बनाने के लिए प्रेरित किया जाए। यह भी कि भारतीय भाषाओं की लिपियाँ सुरक्षित रहे पर उनका लिप्यंतरण आसान होते-होते देवनागरी की सम्पत्ति बनती चली जाए। यदि ये तकनीकी प्रयास हों तो सार्क के देशों में भारतीय संस्कृति और संस्कृत शब्दावली की जड़ें हैं, वे देवनागरी को सार्कलिपि तक ले जा सकती है। दरअसल चुनावों में हमने देखा है कि सभी प्रान्तों में अहिन्दी भाषी नेता भी दूरदर्शन पर हिन्दी में खासी बहस और प्रचार करते हैं, तब कहीं नहीं लगता कि हिन्दी जनता से दूर है और 1947 के पहले की सी सहमति उनकी जबानों पर हिन्दी में छा जाती है। हिन्दी को फिर पुनर्जागरण के साथ जनभाषा बनाने के लिए संकल्पित होना पड़ेगा। इसीसे हिन्दी के साथ भारतीय भाषाओं का सहकार अँग्रेजी के वर्चस्व को सीमित करेगा।
- बी. एल. आच्छा
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