आदिवासी : भारत की जनजाति के लोग

Dr. Mulla Adam Ali
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Tribes of India in Hindi

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आदिवासी : भारत की जनजाति के लोग

भारत एक अति प्राचीन देश है। यह अपनी। और विचित्रताओं के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ के लोग जहाँ कहीं भी रहें अपनी संस्कृति, परंपरा, जाति, धर्म समुदाय, अपनी विचारधारा, अपनी विशेष जीवनशैली के लिए संसार के अति विशिष्ट लोग बने हैं।

आदिवासी

भारत के लोग संसार के अन्य लोगों की तरह महानगरों, नगरों, गाँवों में ही नहीं, बल्कि वे पहाड़ों और जंगलों में भी रहते हैं। इन जंगलों और पहाड़ों में रहने वाले लोगों को आदिवासी कहा जाता है। सर्वेक्षणों से पता चला है कि भारत में लगभग चार सौ आदिवासी समुदाय हैं। आदिवासियों की आबादी देश की आबादी का 7 प्रतिशत है। आदिवासी से तात्पर्य है। एक प्रकार की प्रारंभिक 'होमो सेपियन' नस्ल के लोग। आदिवासी शब्द आदि=प्रारंभिक समय के आदि-बसने वाले / रहने वाले यानि ऐसे लोग जो भारत में प्रारंभिक काल से रहते आ रहे हैं। ये लोग ही वास्तव में भारत की मूल संतति और मूल निवासी हैं।

जीवनशैली

आदिवासियों की अपनी विशेष जीवन शैली है। वे अन्य लोगों से अलग-थलग जंगलों और पहाड़ों में बसते हैं। उनके अतराफ सभ्य समाज के लोग रहने के बावजूद वे अपने खाल से बाहर नहीं आते। अपनी वेशभूषा के द्वारा अपनी अलग से पहचान बनाए रखते हैं।

व्यवसाय

अधिकांश आदिवासी या तो शिकारी होते हैं या जंगलों में कंदमूल, जड़ी-बूटियाँ आदि चुनकर अपनी जीविका चलाते हैं। ये लोग खेती भी करते हैं। कृषि की अति प्राचीन पद्धति काट और जलाने अपनाते हैं। वास्तव में वे विशाल भू-क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार की फसलें भी बोते हैं।

धर्म व संस्कृति

चारो ओर से हिन्दू और मुसलमान धर्म के लोगों से चिरे रहने के बावजूद उनसे अप्रभावित हुए बिना अपने स्वयं के धर्म, रीति-रिवाजों, परंपराओं का पालन करते हैं। उनकी अपनी विशेष संस्कृति है, जिसकी वे रक्षा करते हैं। इसीलिए भी वे सबसे अलग-थलग रहते हैं। उनके अपने देवी-देवता हैं, अपनी पूजा पद्धति है। उन्हें जनजाति : आदिवासियों को 'जनजाति' भी कहा जाता है। इस शब्द का प्रयोग स्वतंत्रता के बाद से उनके लिए उपयोग किया जाने लगा है। कुछ क्षेत्रों में उनका अपना शासी वर्ग है और इसलिए भी 'जनजाति' के लोग अपना अलग अस्तित्व या पहचान बनाये हुए हैं।

मुक्त

आदिवासी वास्तव में मुक्त लोग थे। भारत यूरोपी कॉलोनी बनने से पूर्व वे स्वच्छंद और स्वतंत्र थे। उनके ऊपर बाहर के लोगों का कोई नियंत्रण नहीं था। परन्तु, जबसे बाहर के व्यापारियों, ब्याज से पैसा देने वालों और जमींदारों ने इन आदिवासी क्षेत्रों में अपना पदार्पण किया और साम्राज्यवादी ब्रिटिश तानाशाही के समर्थन से इन आदिवासियों की जमीनें हड़प ली। उनके ऊपर नयी न्याय व्यवस्था लागू करके उनकी अपनी शासी पद्धति बदल दी।

बराबरी

साम्राज्यवाद की स्थापना से पूर्व आदिवासी अन्य लोगों के साथ बराबरी का जीवन जीते थे, जिसे छीन लिया गया और उनका शोषण शुरू हो गया। बाहरी लोग उनके मालिक बन बैठे। गत कई शताब्दियों में आदिवासियों के बीच कई प्रवासी घुस गये और कई आदिवासी प्रवासी बन गये। आज के आदिवासियों ने अति प्राचीन इतिहास के आदिवासियों के वर्गों को विस्थापित कर दिया।

आदिवासी और राज्य

अंग्रेजी शासनकाल में आदिवासियों को असभ्य या जंगली माना जाता था। ब्रिटिश साम्राज्य में अपने हित के लिए आदिवासियों ने अपने आपको बदला। शासन उनकी काट- जलाने की कृषि पद्धति को अनुपजाऊ और लाभ माना। कई साम्राज्यवादी अधिकारी यह मानते थे कि क्या आधिवासियों का संरक्षण उपयोगी और आवश्यक था।

जब अंग्रेजी शासन ने आदिवासियों पर अपना शासन लादा तो उन लोगों ने कोई प्रतिरोध नहीं किया। आम तौर से शांतिप्रिय थे। और लड़ाई-झगड़े से अपने को दूर रखते थे। उनकी बहुत कम आबादी वाले क्षेत्रों पर अपने नियंत्रण को खोते हुए भी उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं जताया।

वे अधिकारियों के सामने आने के बजाय उनसे छिपते या जंगलों में चले जाते। ब्रिटिश सरकार ने उन पर 'कर' लादा तो चुपचाप अपने क्षेत्रों को छोड़कर अन्यत्र प्रवास कर जाते थे। सन् 1860 की अवधि के बाद ब्रिटिश शासन ने आदिवासियों को नियत-भूमियों में कृखि करने के लि प्रोत्साहित किया। कर विधान लगाकर उनके गाँवों के नक्शे बनाये गये और भूमियों को प्लाटों में बांटा गया। हर किसान को अपनी मर्जी के माफिक चाहे जितने प्लाट लेने की सुविधा दी गयी। बाद में उन भूमियों का पंजीकरण कर उन्हें उनका मालिक बनाया गया।

उनसे भूमि कर वसूल किया जाने लगा। आदिवासियों ने कम प्लाट ही लिये। शेष प्लाट यूँ ही पड़े रहे। धीरे-धीरे गैर-आदिवासियों ने उन भूमियों को अपने कब्जे में ले लिया। जिन गैर-आदिवासियों ने इन भूमियों पर कब्जा कर लिया वे अधिकांश कर्जदाता या पारसी लोग थे। वे अपनी भूमियों से आदिवासियों को घास या ईंधन लेने नहीं देते। उन पर चौकीदारों को तैनात कर दिया। आदिवासियों के जानवरों को चरागाहों में चरने देने के लिए पैसा वसूल किया जाने लगा। पहले ये चारागाह गाँव वालों/आदिवासियों की अपनी संपत्ति थी, जिनमें वे अपनी पसंद की फसलें बोते या घास या तकड़ी काटते थे। एक तरह से आदिवासियों को चारागाहों या लकड़ी या ईंधन के इस्तेमाल से वंचित कर दिया गया। आम तौर से यह समझा जाने लगा कि ये घास के मैदान मलेरिया पैदा करने का कारण है। उन्नीसवीं सदी में सड़े-गले वनस्पति को जो पेयजल को गंदा करती थी, मलेरिया का कारण बना। बाद में पता चला कि मलेरिया फैलने का कारण मच्छर है। यह माना जाता था कि मच्छर जंगलों में रहते हैं। इसीलिए स्वास्थ्य की रक्षा करने और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए जंगलों को काटा जाने लगा। कुछ क्षेत्रों में आदिवासियों को जंगल का इस्तेमाल करने से रोका जाने लगा। उनसे पैसा न मिलने पर उनके पशुओं को पारसी लोग अपने कब्जे में ले लेते थे। उन्हें जंगलों में काम करने पर मजदूरी दिये बिना बेगार करवाया जाता था। उनसे मुफ्त में पौधे रोपवाये जाते, जले जंगलों को साफ करवाये या कटवाये जाते थे। वन अधिकारी आदिवासियों को दबाकर रखते और उन्हें अपना गुलाम समझते या गुलाम बनाकर रखते थे।

- डॉ. प्रीति सोहनी

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