हिंदी डे विशेष : कोटि-कोटि कंठों की भाषा है - हिंदी

Dr. Mulla Adam Ali
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Hindi Diwas Par Visesh : 14 September Hindi Day

Hindi Diwas Par Visesh

Hindi Divas par Vishesh

हिंदी दिवस 14 सितंबर और विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी पर विशेष हिंदी भाषा के महत्व पर लेख "कोटि-कोटि कंठों की भाषा है हिंदी", हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और दिलों की भाषा है, हिंदी दिवस पर हिंदी पर महत्वपूर्ण लेख "जन-जन की भाषा है हिंदी" पढ़े और शेयर करें।

कोटि-कोटि कंठों की भाषा है - 'हिंदी'

हिंदी ज्ञान की सभी विधाओं की संवाहिका है। कौन नहीं जानता कि विश्व का उच्च स्तरीय गणित, रेखागणित, परमाणु विज्ञान, ज्योतिष विज्ञान, औषधि विज्ञान आदि की संवाहिका अनेक वर्षों तक संस्कृत रही है। वर्तमान परिदृश्य में यही भूमिका तिभाने की पूरी योग्यता हिंदी में भी है। 14 सितंबर हिंदी दिवस मना लेना ही हमारा मकसद नहीं अपितु हमारा उद्देश्य है कि हिंदी संपूर्ण विश्व में अपने यथोचित स्थान पर स्थापित हो। किसी महारानी को छल से दासी बना देना कहाँ की वीरता है? हिंदी विश्व महारानी होने की बजाय बेचारी दासी की भांति उदासी और मायूसी में जीने की मजबूर है। इसके दोषी तो हम भी हैं। हम हिंदी बोलने व लिखने में अपमान महसूस करते हैं। हिंदी के विरुद्ध विभिन्न टिप्पणियों को हम चुपचाप बर्दाश्त कर लेते हैं, यह भी ठीक नहीं। रूस अभी भी बहुभाषायी राष्ट्र है लेकिन कोई भी रूसी नागरिक अपनी रूसी भाषा के विरुद्ध एक भी टिप्पणी सुनना पसंद नहीं करता । हर देशवासी को अपने देश व भाषा पर बहुत गर्व होता है। मगर भारतवासी इस ओर थोड़े लापरवाह से हैं। आज जर्मन, रूसी, फ्रेंच, चीनी, जापानी, स्वीडिश आदि अनेक भाषाएँ अंग्रेजी की तुलना में किसी भी स्तर पर पीछे नहीं है। पर दुर्भाग्य देखिये हिंदी इन तमाम भाषाओं से अग्रणी और सक्षम होते हुए भी विज्ञान की अनन्य विधाओं के क्षेत्र में पिछड़ गई है या ऐसा कहें कि इसके विकास को सरकारी तंत्र ने हमेशा हतोत्साहित किया है, यह कहकर कि हिंदी विज्ञान अथवा तकनीकी विधाओं की संवाहिका बनने की योग्यता नहीं रखती। जब तक भारत में ही हिंदी नहीं होगी तब भला विश्व में हिंदी कैसे हो सकती है? जब तक हिंदी भाषा राष्ट्रीय संपर्क की भाषा नहीं बनती, जब तक हिंदी शिक्षा का माध्यम नहीं बनती, जब तक हिंदी शोध और विज्ञान की भाषा नहीं बनती जब तक हिंदी शासन, प्रशासन, विधि, नियम और न्यायालयों की भाषा नहीं बनती, तब तक भारत के आँगन में नवान्न का उत्सव कैसे होगा? हिंदी की तुलसी कैसे पल्लवित होगी?

भाषाएँ भारतमाता के गले में एक वरेण्य मनोरम अलंकार के रूप में शोभायमान कब आएगा वह स्वर्ण विहान जब हिंदी की तूती बजेगी, बोलेगी और भारतीय होगी। यह उपलब्धि राज्यशक्ति व लोकशक्ति के समवेत, संयुक्त और समर्पित प्रयत्नों से ही संभव है। सदियों पुराना अमीर खुसरों का फारसी में यह कथन कि "मैं हिंदी की तूती हूँ. तुम्हे जो भी पूछना हो तो मुझसे हिंदी में पूछो, में तुम्हे सब कुछ बता दूंगा।" स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी ने देश के भविष्य के लिए देश की एकता और अस्मिता के लिए हिंदी को ही राष्ट्र की संपर्क भाषा माना है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने अपने एक निबंध में लिखा है कि जिस हिंदी भाषा के खेत में ऐसी सुनहरी फसल फली है वह भाषा भले ही कुछ दिनों यो ही पड़ी रहे तो भी उसकी स्वाभाविक उर्वरता नहीं मर सकती। वहाँ फिर खेती के सुदिन आएँगे और पौष मास में नवान उत्सव होगा। परंतु आज भी भारतवर्ष के अंदर ऐसे कितने लोग है जो हिंदी भाषी होने का गर्व रखते हैं। हमारे लोकतंत्र ने इंडिया दैट इज भारत संविधान में अंकित कर भारत के नागरिकों को दस प्रतिशत अंग्रेजी बोलने वालों के समक्ष बौना कर दिया। हम अपनी भाषा और परंपराओं के प्रति सचेष्ट जागरूक एवं संवेदनशील कितने है जरा विचार करके देखिये? आजादी आयी और संविधान बनाने का उपक्रम शुरू हुआ। संविधान का प्रारूप अंग्रेजी में बना, संविधान की बहस अंग्रेजी में हुई। यहाँ तक कि हिंदी के पक्षधर जो सुराज आएगा सुराज आएगा बहुत चिल्ला रहे थे वे भी अंग्रेजी भाषा में ही बोले।

चिज्ञेव स्तर पर हमने हिंदी को प्रतिष्ठा दिलाने का असफल प्रयास तो किया, किंतु अपने ही राष्ट्र में उसे प्रतिष्ठित नहीं कर पाये। राजभाषा का सम्मान तो हिंदी को प्राप्तः है फिर भी उसका प्रयोग राष्ट्रभाषा की मर्यादा के अनुरूप नहीं हो रहा है। अतः भारत सरकार द्वारा हिंदी प्रतिष्ठित कराने का कारगर प्रयास निरंतर किये जाने की आवश्यकता है? अगर कोई आज हमसे पूछेगा कि भारत में हिंदी अभियान क्यों शिथिल पड़ गया है. क्यों भारत अपने संविधान का संकल्प और सपना अब तक साकार नहीं कर पाया तो हम क्या उत्तर देंगे। हम आज तक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की यह घोषणा साकार नहीं कर पाये।

"है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी।"

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी स्पष्ट कहा है

"निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति की मूल।"

माना कि हमने अंग्रेजी से बहुत कुछ सीखा है परंतु विदेशी भाषा से कोई राष्ट्र महान नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी विदेशी भाषा जन सामान्य की भाषा नहीं हो सकती। हमें हिंदी को ही अपनाना चाहिये।

"कोटि-कोटि कंठों की भाषा,

जनगण की मुखरित अभिलाषा।

हिंदी है पहचान हमारी,

हिंदी हम सबकी परिभाषा।"

राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी का व्यापक प्रचार प्रसार होना अति आवश्यक है। इस पुनीत कार्य हेतु हर तंत्र एक जुट होकर सार्थक प्रयास करें तभी यह कार्य पूर्णतः सफल होगा। जन-जन की भागीदारी एवं जवाबदारी हिंदी के विकास के लिए सुरक्षित और सारगर्भित सिद्ध होनी चाहिए तभी हिंदी संपूर्ण विश्व में सुशोभित हो सकेगी।

- श्री रामचरण यादव

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