- बन्धु कुशावर्ती
दूरदर्शन केन्द्र, लखनऊ के सामने के बडे़ अहाते 'बलरामपुर गार्डेन' में लगने वाले पुस्तक मेले का य़ह 20वाँ साल है। सन् २०२० के ही एक साल य़ह परवान चढ़ने से रह गया! कारण; वही मुआ कोरोना!
१०दिनों तक चलने वाले इस पुस्तक मेले को पितृ-पक्ष की अवधि में ३ लोगों ने मिलकर लगाने का सिलसिला शुरू किया था। कोई 10 साल बाद बलरामपुर गार्डेन वालों ने किराया बढा़या तो इस त्रयी ने अपेक्षाकृत कम किराये वाले परिसर 'मोतीमहल लाॅन' को पुस्तक मेले का नया ठिकाना बनाया।इससे लखनऊ में हर बरस पुस्तक मेला लगने का एक अच्छा व जरूरी क्रम चल निकलाl परन्तु दुर्योगवश आयोजकों की, आपस की त्रयी; एक सहयोगी के निधन से 'एक जोडी़' ही रह गयी!
• इस देश में पितृ-पक्ष में शुभ कार्य करना वर्जित है।परन्तु इस त्रयी के लिये यह वर्जना फलप्रद रही थी।इसलिये ज़रूरी था कि दिवंगत के परिवार को साथ रखकर इस पुस्तक मेले की 'एका' बनाये रखी जाय किन्तु; बची एक जोडी़ को ही पूर्ववत सारा लाभ अपने हिस्से कर लेने की हवस ने दिवंगत के परिवार को पुस्तक मेले से अलग-थलग कर दिया। यह इस जोडी़ को फला नहीं! तभी से देश के विभिन्न प्रान्तों और उत्तर प्रदेश के भी अनेक शहरों के प्रकाशकों का इस पुस्तक मेले में आना कम होता गया है।
• अतः इस मेले के दिवंगत साझीदार-परिवार की बेटी ने हौसला बाँधा और अपने प्रयत्न एवं अपने ही दम से एक और 'स्वतन्त्र पुस्तक मेला', उसी 'मोतीमहल लान' में लगाया। ये कोशिश सराहनीय थी, पर हर साल लगते पुस्तक मेले में एक बार पुस्तकें ख़रीद लेने पर किस भकुए के यहाँ ऐसी प्राथमिकता या पैसे के आवक की धन्नासेठी है, जो फिर-फिर पहले के जैसे ही किताबें ख़रीदे!हाँ, १०दिन के पुस्तक मेले में एक-दो रोज माहौल देखने व हाल-हवाल लेने की सोच, पुस्तक मेले में जाने का अच्छा बहाना ज़रूर रहता है! ऐसे में मिलने-जुलने वालों के दीदार,मुलाकातों-बातों के बहुरंग, अनायास भी किसी को सहज-लाभ-सरीखे सुखद लगते ही हैं तो आयोजिका बेटी ने अपनी पहली-पहली उद्यमशीलता में पाठकों व पुस्तक प्रेमियों का काफी हद तक खयाल रखा था। सो लखनऊ के पुस्तक मेला एवं पुस्तकों से साबका-राबता रखनेवाले लोगों ने 'एक बेटी के पुस्तक मेला लगाने की साहसिक पहली- पहल' को अपनी उपस्थिति किताबों की खरीददारी के स्तर पर पूरा प्रयास किया कि, नयी उद्यमशीलता का हौसला न टूटे।
• इस बाबत यह भी याद आ रहा है कि एक तेज दिमाग़ ने बाजी मार लेने की सोच के जोम में पितृपक्ष से भी पहले एक पुस्तक मेला,दो साल पूर्व 'अगस्त' में ही, रेलवे स्टेशन चारबाग के सामने स्थित रवीन्द्रालय-परिसर में लगाकर बाजी़ मार लेने का दुस्साहस किया! फल ये मिला कि इसमें बरायनाम ही प्रकाशक आये और जो आये भी, वे अपनी किताबों को पानी की झडी़, तेज बारिश व जमीन पर जल-भराव की मार से बचाने के द्रविण-प्राणायाम करते और अपनी कि़स्मत को कोसते हुए बगैर कोई देरी किये, समय से पहले ही अपना सरंजाम समेट कर ले भागे! जा़हिर है कि आयोजकों को बेमौसम पुस्तक मेला लगाने की न तमीज़ थी (बारिश के मौसम में सितम्बर से पहले पुस्तक मेले लगाये ही नहीं जाते) और न उनमें यह समझ और विवेक ही था कि भीड़-बहुल, सघन और व्यस्त आवाजाही वाले चारबाग इलाके के हुजूम को पुस्तक मेले और 'पुस्तक-संस्कृति' से जोड़ने वाले पुरलुत्फ व प्रभावी उपक्रमों के वे कौन से माध्यम हैं,जो बारिश से पूरे बचाव सहित आकृष्ट भी करेंगे। तो ऐसे पुस्तक मेले के परिसर में ऐसी चुम्बकीय, दमदार और बाँध लेनेवालीं सक्षम-व्यवस्था की दरकार भी थी कि जो आ जाय,वह किताबें तो ख़रीदे ही, लुभावने आकर्षणों के बीच समय गुजा़रने में वक़्त व पैसे की बरबादी न महसूस करे!
• किस्सा-कोताह यह कि उपर्युक्त खींचातानी वाले माहौल मे ही एक पुस्तक मेला और-- यानी 'तीसरा पुस्तक मेला' भी उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के परिसर में नमूदार हो आया।यहाँ भी बमुश्किल ३-४ प्रकाशक ही आये।बाकी तो पुस्तक-वितरक या फिर किलो में खरीदी करके ५०-१०० रुपये में २-३ किताबों के आकर्षण में लुभाऊ-ढंग-ढब से किताबें बेचने वाले आये थेl इनको प्रकाशक तबका, हिकारतन तथा आमफहम जबान में 'कबाडी़' कहता है।ऐसी ही एक और मूर्खता नवम्बर 2022में नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली ने करके अवध-नगरी के तथाकथित 'मेरिन ड्राइव'--गोमती नगर रिवरफ्रंट पर लगाया तो फ्लॉप होना ही था क्योंकि; ऊपर मैंने इंगित भी कर दिया है: "लखनऊ में सितंबर-अक्टूबर में जो पुस्तक मेला सबसे पहले लग गया,बाद कितना भी भव्य पुस्तक मेला लगे तो लगा करे,उसे फ्लॉप ही हो जाना है, इसलिये कि शौक हो, दिलचस्पी हो या जरूरत, सबसे पहले जो पुस्तक मेला लग गया, किताब की खरीददारी उसी में लोग कर चुकते हैं। फिर इस मद में समय और पैसा वगैरह इस कठिन दौर में किसके बजट में हो पाता है!"
• इस सबसे समझा जा सकता है कि पुस्तक संस्कृति को विकसित करने के बजाय लखनऊ में पुस्तक मेला के नाम पर आयोजकों ने यहाँ कोई दो दशकों के बीतते न बीतते, 'दरअसल पुस्तक-संस्कृति की शालीन-उद्यमशीलता' को अपनी 'पेट-भाठू मुनाफाखो़री के मनमाफिक साधन' में बदलते गये हैं!
बडी़ विडम्बना यह है कि लखनऊ में पुस्तक मेला लगाते आयोजक अपनी अण्टी भरने का श्रीगणेश वस्तुतः उन्हीं वास्तविक प्रकाशकों को; स्टाॅल की मँहगी बुकिंग करने के निशाने पर रखते हैं, जिनसे आज भी हिन्दी प्रकाशन का आधारभूत-ढाँचा काफी़ हद तक का़यम है! सबसे पहले अपनी ही जेब क़तरने की चोट महसूसते ऐसे प्रकाशकों की समृद्ध उपस्थिति से जुडा़ सच ये है कि अगस्त के बाद सबसे पहले लगनेवाले पुस्तक मेले में प्रमुख प्रकाशकों की अधिक मौजू़दगी, प्रकारान्तर से पुस्तक-प्रेमियों की मौजू़दगी ही नहीं, छुट्टी के दिन समेत शाम को भी उनकी पुस्तक मेले में उपस्थिति;अपरिहार्य दिनचर्या का हिस्सा बनी रहती है तो उन जैसों-सी बडी़ तादाद भी शाम को पुस्तक मेले में आकर,खुद तो कुछ न कुछ किताबें ख़रीदती ही है, साथ में आये लोगों-परिचितों को भी ख़रीदवाती है। इससे सही हाथों तक तो किताबें जाती ही हैं, पुस्तक मेले के माहौल में प्रासंगिक, बौद्धिक व गम्भीर चर्चाओं-विमर्शों की जीवन्तता भी बनी रहती है!यह सब किसी भी पुस्तक मेले को सार्थक बनाता है! इसके बिना कोई पुस्तक मेला, 'सचमुच का पुस्तक मेला' नहीं,बस यों-सा ही कुछ पुस्तक मेले के ढोंग- सा घिसटता हुआ लगता है!आयोजक पुस्तक मेले से अपनी ही अण्टी भरने की मंशा की जो शुरुआत पूर्व के वर्षों में बुक-स्टॉल का किराया बढ़ाने से करते रहे हैं,इस साल में वो वह साइकिल, मोटर-बाइक व कार-स्टैंड तथा खानपान के मँहगे स्टालों आदि से 'पेट भाठते रहने की हद तक भारी वसूली करने' में कोई कोरकसर नहीं छोड़ रहे!सो पैसा फेँक मिजाज वाले तबकों को छोड़ दें तो चाय-नाश्ते के नाम पर लोगों के लिये बतकही से लेकर बहस व चर्चा की अड्डेबाजी़ जैसी अनौपचारिकता तो बहुतायत में परिसर के बाहर की खानपान की गुमटियाँ,ठेले व दूकानें ही कहीं ज्यादा सहज व अनुकूल रहेंगी और लखनवी जुबान में लगे हाथ इसी खाते/कोटे में ही एक बार 'गंजिंग भी हो जाएगी।'
• यह सब इसलिये चलता आ रहा है क्योंंकि; राजधानी की सरकार और लखनऊ के जिला प्रशासन और लखनऊ नगर निगम ने बीते दो दशकों से भी ज़्यादा के समय में लखनऊ में लगते पुस्तकमेलों के 'क्या-कहाँ-कैसे?' की तरफ से बेहद निरपेक्षता बनाये रखी है। २०-२५ साल पहले वाला ही विकासशील शहर नहीँ रह गया है लखनऊ!उत्तर प्रदेश की राजधानी के नाते अब यह भी महानगरीय-प्रकृति और संस्कृति वाले विकसित शहरों के समानान्तर अग्रगामी होता जा रहा है।यहाँ पर सरकारी-गैर सरकारी कई विश्वविद्यालय, अभियान्त्रिकी और प्रबन्धन आदि की शिक्षा देने वाले, उच्च-शोध व मानविकी विषयक भी अनेक संस्थान संचालित हो रहे हैं।साहित्यिक-सांस्कृतिक कला-बोध सम्पन्नजनों का खासा-बडा़ बौद्धिक -वर्ग भी यहाँ की आबादी का हिस्सा है। सन् '८५ से ९० एवं '९५ से २००० के बीच राष्ट्रीय पुस्तक न्यास/ नेशनल बुक ट्रस्ट ने लखनऊ में राष्ट्रीय पुस्तक मेले लगाये पर शर्मनाक है कि राजधानी में बैठे सरकारी अमले से लेकर यहाँ के जिला प्रशासन तक ने इसमें कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली, जबकि बिहार के पटना के अलावा विभिन्न हिन्दी राज्यों के अनेकानेक महानगर,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास की 'वार्षिक पुस्तक मेला' की श्रृंखला-सूची में वर्षों पहले से सूचीबद्ध चले ही नहीं आ रहे बल्कि; हर साल इन राज्यों के एक-दो शहर इस सूची में जुड़ते रहते हैं। यही बात पूर्वोत्तर राज्यों समेत हिन्दीतर राज्यों के बारे में भी सच हैं! पुस्तक मेले वहाँ की संस्कृति का हिस्सा हैं!अतः'लखनऊ महोत्सव' की तरह ही 'लखनऊ पुस्तक कुम्भ' जैसे किसी सार्थक नाम से शिक्षा विभाग या सूचना विभाग की जिम्मेदारी पर दिल्ली की ही तरह, "राजधानी लखनऊ में पुस्तक मेला को एक ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण वार्षिक अनुष्ठान" के रूप में सुनिश्चित जीवन्त किया जाय! इससे राजधानी लखनऊ और उसके आसपास के ज़िलों में भी पुस्तक संस्कृति, पठनीयता आदि समृद्ध होगी। ---इस सब में 'नेशनल बुक ट्रस्ट, नयी दिल्ली से संवाद और विचार विमर्श सहज ही सम्भव हैl
अतः स्पष्ट है कि पूर्वोक्त-अनुसार राजधानी की प्रदेश सरकार, शिक्षा विभाग, लखनऊ मंडल के कमिश्नर, जिला अधिकारी लखनऊ व लखनऊ नगर निगम के स्तर पर पुस्तक-संस्कृति को विकसित और समृद्ध बनाने की दृष्टि से अपनी सकारात्मक-भूमिका व गम्भीर-दायित्त्व के प्रति सजगता और सक्रियता की पहलक़दमी और साथ ही परिणामप्रद कर्तृत्त्व को भी प्रमाणित करना होगा!
National Book Fair Lucknow : 20वाँ राष्ट्रीय पुस्तक मेला, लखनऊ
Celebrating 20th Glorious Book Loving Years
राष्ट्रीय पुस्तक मेला, लखनऊ - NATIONAL BOOK FAIR Lucknow - Pustak Mela, Lucknow
"Spreading the light of Knowledge"
2 September 2023 to 2 October 2023 : Balrampur Garden Opp.Doordarshan Kendra, Ashok Marg, Lucknow, Uttar Pradesh.
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