Need and Possibilities of Comparative Research
तुलनात्मक शोध की आवश्यकता और संभावनाएं
शोध और समीक्षा दो पृथक् शब्द हैं और दोनों के अर्थों में भिन्नता है। शोध के लिए अनुसंधान और अनुशीलन आदि शब्द प्रचलित हैं। समीक्षा के लिए आलोचना, समालोचना आदि शब्द प्रयोग में लाये जाते हैं। शोध शब्द में किसी अज्ञात तथ्य को प्रकाश में लाने और प्रतिष्ठित करने का आशय निहित है। शोध में बिखरे हुए तथ्यों का संयोजन और समाहार भी किया जाता है। शोध के लिए उस समस्त सामग्री का संचय और संग्रह आवश्यक है जो उस वस्तु व विषय से संबंधित है और उस संग्रह को सुव्यवस्थित रूप में सजाकर उनके आधार पर वस्तु मूलक स्थापनाएँ की जाती हैं और निर्णय दिये जाते हैं। शोध में विषय से संबंधित पूर्ववर्ती वक्तव्य भी सम्मिलित किए जाते हैं तथा उनके आधार पर नया अभिमत व्यक्त किया जाता है। शोध के लिए तर्क- सम्मत प्रमाणों की आवश्यकता होती है; और तभी किसी नये निष्कर्ष की स्थापना की जा सकती है। फिर उस निष्कर्ष की पुष्टि करने के लिए विरोधी मतों का खण्डन एवं निराकरण कर नये निर्णय की प्रतिष्ठा की जाती है। यह नया निर्णय जब एक स्वतंत्र - विचार के रूप में उपस्थित होता है तब उसे "थीसिस " या "शोध-प्रबन्ध" कहते हैं।
समीक्षा या आलोचना में किसी अज्ञात या अनुपलब्ध वस्तु की खोज की आवश्यकता नहीं होती। वह एक सुस्पष्ट प्रायः प्रसिद्ध कृति के संबंध में दिया हुआ वैचारिक अभिमत होता है। किसी कृति-विशेष के संबंध में व्यक्त किये गये स्पष्ट और व्यवस्थित विचार ही समीक्षा है। उन विचारों के आधार पर किसी भी सिद्धांत का निरूपण और संस्थापन हो सकता है, जिसे नई समीक्षा-दृष्टि कह सकते हैं। परन्तु इस प्रकार की समीक्षा में लेखक की अपनी अभिरुचियाँ और संस्कार ही अधिक मात्रा में रहते हैं। इसलिए समीक्षा अधिक व्यक्तिपरक होती है, जब कि शोध में व्यक्तिगत प्रतिक्रियाओं के लिए अधिक स्थान नहीं है। अर्थात् समीक्षा में समीक्षक की अपनी दृष्टि और विचार भी प्रमुख रूप से आते हैं और उसमें समीक्षक की अपनी
धारणाओं का प्राधान्य होता है। संक्षेप में समीक्षा सामाजिक जीवन की बौद्धिक और कलात्मक अभिरुचियों का नित्य नया अध्ययन कही जा सकती है परन्तु शोध से निःसृत तथ्य और निष्कर्ष एक अभिनव विचार-धारा का निर्णय करते हैं और नये ज्ञान की सृष्टि में सहायक होते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शोध कार्य का संबंध नये तथ्य और सत्य के उद्घाटन में है जबकि समीक्षा का संबंध प्रचलित धारणाओं और विचारों की संवृद्धि और विकास से है। डॉ. दशरथ सिंह के शब्दों में- "सामान्यतया शोध ज्ञान के अज्ञात एवं अपरिचित तथ्यों के आविष्कार की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। ऐसी प्रक्रिया एक तटस्थ मर्यादा चाहती है, जिस के द्वारा प्रस्तावित विषय को तर्कसम्मत आधार मिल सके। संक्षेप में शोध की प्रक्रिया में तथ्यों का संयोजन और समाहार आवश्यक है। इसके सहारे ही अन्त में वस्तुमूलक स्थापनाएँ की जाती हैं।.... शोध-वृत्ति के अभाव में समीक्षा प्रतिक्रियाओं की व्यवस्था मात्र है और समीक्षात्मक विवेक के अभाव में शोध तथ्यों का बाहरी उपक्रम।"
हिन्दी में शोध कार्य का आरम्भ आज से करीब साठ- वर्ष पहले हुआ। किन्तु सन् 1947 के पश्चात् हिन्दी में अनुसंधान कार्य को विशेष प्रगति मिली। स्वतंत्रता के पूर्व तक केवल आठ विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभागों में शोध- कार्य की व्यवस्था की। स्वातंत्र्य की उपलब्धि के उपरान्त हिन्दी के राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृत होने के साथ अब उसका महत्व भी बढ़ गया है। फलतः भारत के बहुत से विश्व विद्यालयों में हिन्दी में शोध-कार्य की व्यवस्था हुई और अनुसंधाताओं की संख्या बढ़ी।
हिन्दी के राजभाषा के पद पर अधिष्ठित होने के साथ-साथ उसकी समस्याएँ बढ़ीं। प्रशासन की भाषा, विश्वविद्यालय का शिक्षा-माध्यम, न्यायालय की भाषा और पब्लिक सर्विस कमीशन की भाषा कौन-सी हो-आदि बातों पर मतैक्य नहीं है । यह भी पूर्ण रूप से अभी तक निश्चित न हो पाया कि राज-भाषा और प्रादेशिक भाषाओं का क्या संबंध हो और उनका कार्य-क्षेत्र कहाँ तक सीमित हो किन्तु यह कदापि वांछनीय नहीं है कि राजभाषा हिन्दी के महत्व के बढ़ जाने के कारण प्रादेशिक भाषाओं के विकास में कोई अवरोध उपस्थित हो। ऐसे संक्राति काल में प्रादेशिक भाषाओं को समृद्ध बनाने के लिए साहित्यिक आदान-प्रदान की एवं तुलनात्मक अध्ययन की अत्यन्त आवश्यकता है। प्रादेशिक भाषाओं के उत्तम ज्ञान भंडार के रूपान्तर द्वारा हिन्दी को सुसम्पन्न कर इसे परिपुष्ट बनाना होगा। इस कार्य को सुसम्पन्न करने के लिए राजभाषा और प्रादेशिक भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य है। दोनों साहित्यों की विशेषताओं एवं विशिष्टताओं से परिचित होने पर ही एक भाषा एवं साहित्य की उत्तम कृतियों को दूसरी भाषा एवं साहित्य में लाने का प्रयत्न किया जा सकता है। अतः दोनों भाषाओं एवं साहित्यों से संबंधित विश्लेषणात्मक एवं तुलनात्मक अध्ययन अनिवार्य सा हो गया है। इस दृष्टि से देश की एकता के लिए विभिन्न भारतीय भाषाओं एवं साहित्यों का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
हिन्दी समस्त भारतीय भाषाओं की विशेषताओं तथा विभूतियों को आत्मसात् करके ही समृद्ध हो सकती है। इसके लिए हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन एक उत्तम साधन है। यह कार्य जब तक सम्यक् रूप से सम्पन्न न होगा तब तक हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं का विकास सम्भव नहीं है।
वास्तव में तुलनात्मक अध्ययन का लक्ष्य आलोचना एवं अनुसंधान से भी अधिक महत्वपूर्ण है। तुलनात्मक अध्ययन मानवों के सीमित ज्ञान क्षेत्र का विस्तार करता है। उनकी भाषाएँ एक दूसरे से भिन्न होने पर भी साहित्यिक एवं प्रादेशिक बन्धनों को ज्ञानार्जन में बाधा नहीं डालने देता। एक पाश्चात्य विद्वान् मेक्समूलर के कथनानुसार- 'सभी उच्चतर ज्ञान की प्राप्ति तुलना पर ही आधारित है।'
विश्व के विभिन्न देशों में, विभिन्न जातियों में और विभिन्न धर्मों में मतैक्य के न होते हुए भी मानव-मन एक ही साँचे में ढला है। महाकवि वड्सवर्थ के कथनानुसार भाषा, वातावरण, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि में भिन्नता के होते हुए भी सदा से समस्त विश्व में व्याप्त विशाल मानव समाज को कवि और साहित्यिक अपने आवेग और ज्ञान के सूत्रों से आबद्ध करते आये हैं। विभिन्न साहित्यों के तुलनात्मक अध्ययन से साहित्य के दो प्रधान तत्व अवगत होते हैं:-
1. विभिन्न साहित्यों में अभिव्यक्त मानव चेतना की एकरूपता ।
2. उन साहित्यों की विशेषताएँ और विलक्षणताएँ जिनके कारण उनका अपना पृथक अस्तित्व है। विभिन्न भाषा- प्रदेशों की सामाजिक परिस्थिति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, सभ्यता एवं संस्कृति के कारण विभिन्न साहित्यों में पार्थक्य का होना स्वाभाविक है।
अतः विभिन्न साहित्यों की भाषागत विशेषताओं में साहित्यगत एकरूपता एवं विषमता का निरूपण करना तुलनात्मक अध्ययन का एक मुख्य लक्ष्य है। दूसरे शब्दों में चिरन्तन मानव की चिन्तन-शक्ति विश्व साहित्य के कोषों में संचित है जिसके सार्वभौमिक स्वरूप पर प्रकाश डालकर तुलनात्मक अध्ययन मानव के ज्ञान-क्षितिज को विस्तृत करता है।
तुलनात्मक अध्ययन के प्रकार :
विभिन्न भाषाओं तथा साहित्यों के तुलनात्मक अध्ययन को स्थूल रूप से चार प्रकारों में बाँट सकते हैं। वे इस प्रकार हैं :
1. दो लेखकों और कवियों की तुलना, जैसे डॉ. वेंकटेश्वर रेड्डी कृत शोध प्रबन्ध कबीर और वेमना।
2. दो प्रवृत्तियों की तुलना, जैसे डॉ. आदेश्वरराव द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध हिन्दी एवं तेलुगु के स्वच्छंतावादी काव्यों का तुलनात्मक अध्ययन।
3. दो युगों की तुलना, जैसे डॉ. के. भास्करन नायर द्वारा प्रस्तुत प्रबन्ध हिन्दी और मलयालम में कृष्णभक्ति- काव्य ।
4. दो साहित्यिक विधाओं की तुलना, जैसे डॉ. पांडुरंगा राव द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध आंध्र हिन्दी रूपक (हिन्दी और तेलुगु के रूपकों का तुलनात्मक अध्ययन)
दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों में हिन्दी से संबंधित प्रायः सभी विषयों पर अनुसंधान की व्यवस्था है। किन्तु कुछ ऐसे विषय हैं, जिन पर इस क्षेत्र के विश्वविद्यालयों में अधिक सुविधा से कार्य हो सकता है। भारतीय साहित्य की प्रवृत्तियों का सर्वांगीण अध्ययन करने के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि विभिन्न भाषाओं के साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए। हमें एक भाषा के साहित्य के इतिहास की कड़ी दूसरी भाषाओं के इतिहास में प्राप्त होती है। इस कारण से किसी एक भाषा के आधार पर किया हुआ अनुशीलन प्रायः एकांगी एवं त्रुटिपूर्ण रह जाता है और दूसरी भाषा के साहित्य से परिचित होने पर कभी-कभी निष्कर्ष बदल जाते हैं और अनुशीलन की दिशा में भी परिवर्तन हो जाता है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास एवं उसकी प्रवृत्तियों को ठीक समझने के लिए इसकी आवश्यकता है कि उसका अध्ययन भारतवर्ष की विभिन्न भाषाओं के साहित्यों के परिप्रेक्ष्य में किया जाए। किसी एक अनुसंधाता के लिए यह संभव नहीं कि वह देश की चौदह भाषाओं एवं उनके साहित्य का ज्ञान अर्जित करे। इस दिशा में प्रथम सोपान होगा कि किन्हीं दो भाषाओं की प्रमुख प्रवृत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए। इसके बाद ही हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों के अखिल भारतीय स्तर पर अध्ययन के लिए उपयुक्त साधन एवं सामग्री उपलब्ध होगी।
भारत विभिन्न भाषाओं का देश है। यहाँ पर हर एक भाषा का समृद्ध एवं विकसित साहित्य भी है। भारत के विभिन्न साहित्यों में जो समान्तर गतिविधियाँ मिलती हैं, उनके मूल कारणों को जानना आवश्यक है। अनादिकाल से भारत में एक ही विचार धारा, एक ही जीवन-दर्शन परिलक्षित होता आ रहा है। यहाँ पर सांस्कृतिक चेतना पहले उत्पन्न हुई राजनीतिक चेतना बाद में जन्मी है। इसी मूलवर्ती एकता का अनुसंधान अभी होना है। इसलिए भारतीय साहित्यों के समग्र स्वरूप का आकलन करने के लिए उसके विभिन्न प्रादेशिक साहित्यों के बीच तुलनात्मक अध्ययन का होना अत्यन्त आवश्यक है।
अब तक दक्षिण के आंध्र, मैसूर, श्री वेंकटेश्वर, उस्मानिया, कर्नाटक, कोचिन एवं कालिकट विश्व- विद्यालयों से 125 से अधिक शोध छात्रों ने पीएच. डी. की उपाधियाँ प्राप्त कर ली हैं। इनके अतिरिक्त करीब 300 शोध-छात्र विभिन्न विषयों पर शोध कार्य में लगे हुए हैं। आज तक यह देखने में आया है कि दक्षिण भारत के साहित्य की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के तुलनात्मक अध्ययन पर शोध- कार्य हो रहा है। अब समय आ गया है कि इस स्तर पर समस्त दक्षिण भारत के हिन्दी क्षेत्र में विद्यमान प्रतिभा को प्रोत्साहन दिया जाए, भिन्न-भिन्न प्रकार के तुलनात्मक शोध कार्यों में समन्वय लाया जाए, और इस दिशा में उच्चस्तर पर अधिकाधिक कार्य सम्पन्न हो जिस से दक्षिण भारतीय भाषाओं के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी भाषा की साहित्यिक प्रवृत्तियों पर शोध हो। इनमें स्तर की बात लीजिएगा तो कहना पड़ेगा कि स्तर असन्तोषजनक नहीं है। किन्तु ये शोध प्रकाशित हों और विद्वानों की उन पर आलोचना निकले, तब कुछ कहा जाए। अभी-अभी इस दिशा में कदम रखा गया है। लेकिन, हमारे शोध छात्र गुमराह न हों, उनका हिन्दी साहित्य का ज्ञान समग्र एवं सर्वांगीण हो और शोध कार्य ठोस हो। इस दृष्टि से निम्न बातों पर विचार करना वांछनीय है :
1. प्रत्येक शोध - छात्र के लिए भारतीय साहित्य (हिन्दी के माध्यम से) और भाषा-विज्ञान का थोड़ा-सा ज्ञान अवश्य कराया जाए।
2. शोधपद्धति में उसे दीक्षित किया जाए जिस से शोध की वैज्ञानिक प्रणाली से वह परिचित हो।
3. दक्षिण के विश्वविद्यालयों में अधिकतर तुलनात्मक शोध के अन्तर्गत हिन्दी तथा द्रविड भाषाओं एवं साहित्यों के बीच तुलनात्मक शोध चल रहा है। इस संदर्भ में मेरा विचार है कि हिन्दी तथा भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यों में प्राप्त होने वाली समानान्तर सांस्कृतिक एवं साहित्यिक प्रवृत्तियों का आकलन किया जाए ताकि भारतीय साहित्य की उपलब्धियों का संश्लिष्ट स्वरूप प्रकाश में आ जाए। तभी तुलनात्मक शोध का समग्र स्वरूप सामने आ सकेगा और तभी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकरूपता की झाँकी प्राप्त हो सकेगी।
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