Pahli Roti : 21vi Sadi Ki Hindi Anudit Gujarati Kahani
21वीं सदी की हिंदी अनूदित गुजराती कहानी
पहली रोटी
परात में से थोडा-सा गूंथा हुआ आटा हथेलियों के बीच रखकर लिली उसे गोल-गोल घुमाने लगी। तभी खिड़की से आने वाली रोशनी पल भर में सारे रसोईघर में फ़ैल गयी। लिली ने देखा कि रोज की तरह आज भी सूरज खिड़की के छज्जे की किनारी पर टंग गया था।
पल भर के लिए हुआ कि उस सूरज को वह वहाँ से उतारकर उसे पानी के साथ मिला दे और मसल-मसल कर उसको गूंथ ले फिर गूंथे हुए उस पिंड को किसी डिब्बे में रखकर किसी ठंडी-सी जगह पर रख आए । और जब खुद अँधेरा अपने अँधेरे से डरकर मरने लगे तब उस आटे से एक लोई लेकर उसकी गोल-गोल रोटी बेल लें और सूरज का एक फुलका बना दें।
‘यह देवदासी कौन होती है?’ बैठक रूम में सोफे पर लेटे-लेटे ‘महानंदा’ उपन्यास पढ़ रही अंजी का प्रश्न सुनाई दिया। उसने जब ये पूछा तब देवीप्रसाद आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे अखबार में विज्ञापन वाले पेज को एकटक देख रहे थे। अंजी के हाथों में जयवंत दलवी के उपन्यास ‘महानंदा’ का कवर पेज देखते ही बुदबुदाने लगे –‘ह्म्म्म...लगता है ऐसा तो पढ़ाई में ही कुछ आता होगा वरना ये देवदासी के बारे में जानने की अंजी को कहाँ जरूरत पड़ गई? अपने जमाने में तो ये सब हम यूँ ही पढ़ लिया करते थे। तुम किसी भी प्रसिद्ध उपन्यास का नाम ले लो, यकीनन पढ़ ही रखा होगा हमने। हाँ! ये भी पढ़ा है मैंने।’ कहते हुए उन्होंने अखबार को समेटे लिया।
‘पुराने ज़माने के उच्च वर्ग के लोगों ने एक भयंकर प्रथा बनाई थी। प्रथा क्या थी ? प्रथा के नाम पर किसी कँवारी कन्या को ‘देवी’ के रूप में स्थापित करके आजीवन किसी देवता के चरणों में समर्पित कर देते थे और फिर इस धरती के उपस्थित देवताओं को भी उसका भोग चढ़ाया जाता...वो ही...।’
अंजी आश्चर्य से भरे चेहरे से देवीप्रसाद के चेहरे को देखती रही।
‘...पर अगर वह खुद न चाहती हो तो ? उसे ऐसा न बनना हो तो?’ पूछते हुए अंजी की आँखे फटी की फटी रह गई।
‘उसमें उसकी इच्छा का कोई महत्त्व नहीं होता। बस, परंपरा है तो है...!’ देवीप्रसाद ने खड़े होकर आधी खुली खिड़की को पूरी तरह खोलते हुए कहा।
‘इस उपन्यास की नायिका मनु? बेचारी की किस्मत तो देखो ? इतना अच्छा, पढ़ा-लिखा, शहर का लड़का मिला। फिर भी उसकी माँ! खुद उसे देवदासी बनाने पर तुली है। वो भी उसकी सग्गी माँ! देखो न, मनु खुद देवदासी की बेटी है, फिर भी बाबुलराय के प्रति उसका प्रेम कितना प्रगाढ़ है ! और वो बाबुलराय धत्...! स्वार्थी और कायर कहीं का! बेचारी मनु... दो-दो बार धोखा मिला, वो भी उसके अपनों के हाथों; माँ और प्रेमी दोनों... दोनों ने उसे धोखा दिया, मुझे तो उसका प्रेम...’ पिता के साथ प्रेम की बात करते हुए वह थोड़ी सकुचाई –‘मतलब मेरे दिल में तो बार-बार मनु के जीवन के ही ख्याल आ रहे हैं...।’ अंजी का स्वर अत्यंत दुःख से भर गया।
‘हाँ... जब मैंने पढ़ा था तब मुझे भी ऐसे ही दया आ रही थी कि.... पर ये तो उपन्यास है न...!’
‘पापा, आपने कभी हकीकत में देवदासी को देखा है!’
अंजी का प्रश्न सुनते ही पलभर के लिए रसोईघर में बेल रही रोटी रूक सी गई। लिली सामने के बैठक रूम में बैठे हुए देवीप्रसाद के चेहरे को तकती रही। देवीप्रसाद ने भी उसके सामने देखा लेकिन तुरंत खिड़की से बाहर की ओर झांकते हुए –‘नहीं, मैंने खुद ने तो नहीं, किंतु बचपन में मेरे दादा ने ऐसी ही एक स्त्री की कहानी मुझे सुनायी थी। तब वे महाराष्ट्र के किसी गाँव में नौकरी कर रहे थे।’
एक गहरी साँस लेते हुए वे बोले, ‘जरा देख तो, बाहर कुत्ता आ गया है; जा, जाकर उसे रोटी डाल दे।
रसोई में गोल-गोल रोटी बनने लगी। अंजी किचन के प्लेटफॉर्म के पास आकर खड़ी रही । ‘कुत्ता आ गया है... ’ –लिली बड़बड़ाई। अंजी ने बांस की टोकरी में रखी हुई रोटियों की गड्डी को एक तरफ से उठाया और सबसे नीचे वाली रोटी निकालने लगी। लिली ने फटकारा –‘ऊपर की ही ले ले ना, चल जा।’
‘नहीं, मम्मी देखेगी तो डांटेगी... पहली रोटी ही तो डालते है न! कुछ तो ऐसी बात होगी! तभी तो पहली रोटी!....’
‘पहली हो या अंतिम क्या फर्क पड़ता है...खाने से मतलब है न!’ तनिक गुस्से में आकर लिली ने तवे पर से गरमा-गरम रोटी का फुल्का अंजी के हाथ को स्पर्श कराते हुए उतारा, ‘अरे...! जरा देख तो सही... जल गई मैं...।’ उसने पहली रोटी को झडप के साथ खिंच लिया और कु...कु...कु...ले...ले...ले...कु...कु...कु... ले...ले...ले... करती हुई दरवाजे की तरफ भागी। कु...कु...कु...ले...ले...ले...की आवाज बड़ी देर तक रसोईघर में सुनाई दे रही थी।
आँगन में उस आवाज के साथ दूसरी आवाजें भी मिल गई थी। हँसी-ठिठोरी और तालियों की गूँज अंदर तक सुनाई आ रही थी। संजय का भारी स्वर अलग ही सुनाई दे रहा था –‘...तो आ गया लफंगों को लेकर...’ विचार आते ही तवे पर सिक रही रोटी थोड़ी ज्यादा सिक गई। उसने रोटी पर पड़े काले-काले धब्बों को गौर से देखा। गैस बंद किया और एक ट्रे में पानी के ग्लास रखकर चुपचाप जाकर दे आई –...वे लोग अंदर तो न आए! बाहर से ही चले जाए...।
गैस तो बंद था परन्तु पानी दे रही लिली की आँखों में आग की लपटें धूं-धूं कर रही थी। सफ़ेद शर्ट वाले लड़के की दोनों आँखें उसकी आँखों से मिली, आग की लपटें बुझने की बजाय और जोर से धधकने लगी।
गैस फिर चालू हुआ। बाहर का शोर बंद हो गया था ; गैस फिर बंद हो गया।
संजय के घर में आते ही मानो आग बरस पड़ी –‘कितनी बार कहा है तुझे, कि तेरे इन आवारा दोस्तों को अपने घर पर ना लाया कर। दो-दो जवान बहनें है घर में। अंजी अब कोई छोटी बच्ची नहीं हैं! एम.ए. का लास्ट इयर चल रहा है उसका। और तू भी कोई दूध पीता बच्चा नहीं है, पापा की कमाई बंद हो गई है तुझे तो वो भी याद नहीं रहता। सारा वक़्त बस हा...हा...ही...ही... फा... फा... फी...फी... करता फिरता है, इससे तो अच्छा है कहीं काम-धंधा ढूंढ ले, तो घर की थोड़ी दशा सुधरे। एक के बाद एक दो-दो ब्याह के खर्चे सिर पर हैं दोनों की शादी आज नहीं तो कल करनी तो पड़ेगी ही।’
संजय छोटी अंगुली के नाखून से दाँत कुरेद रहा था। लिली और ज्यादा गुस्साई –‘तुझे कह रही हूँ संजू... तेरे ये मवाली दोस्त मुझे फूटी आँख नहीं सुहाते। हालात तो देखो सालों की... मुँह उठाए चले आते है ! सुबह-सुबह आवारागिर्दी के अलावा इन लोगों के पास और काम धंधा ही क्या है ! तुझे कुछ पता भी है उसने... हिम्मत तो देख उसकी... उसने....उसने मुझे... खबरदार! जो अब उन लोगों को घर का रास्ता दिखाया तो !’
‘उन लोगों को’.... ये शब्द बोलते समय भी उसकी आँखों के सामने सफ़ेद शर्ट पहना हुआ वो लड़का ही दिखाई दे रहा था –नंदु। लिली की आवाज थोड़ी अधिक कड़वी हो गई।‘जब देखो तब अपशकुनी रंग के कपड़े पहने चप्पल घिसता हुआ घर तक चला आता है! जैसे कि इस दुनिया में और कोई रंग ही न हो और न ही कोई दूसरा ठिकाना ! किसी को कुछ पता नहीं हैं, मैंने किसी को कुछ कहा ही नहीं, फिर भी पता है? अभी कह दूं क्या? कि आज...वह मुझे क्या पूछ रहा था, मुझे पूछ रहा था कि... कि... मुंह तोड़ जवाब दे दिया, मैंने उसे...’
संजय ने बिलकुल भी चिढ़े बगैर सहज भाव से कहा –‘प्रपोज किया यही बात है न? अरे ये कौन सी बड़ी बात है! आजकल के लडके-लडकियों में तो ये आम बात हैं।...उसको लगा होगा, तो तुझे पूछ लिया। बस्स, देट्स इट।...तुझे पसंद नहीं, इट्स ओके...। उसको लगा होगा कि जाना-पहचाना घर है, जाति एक है और ऊपर से लड़की भी सुंदर राधिका-सी।... तो प्रपोज कर लिया तुझे। ये सब बिना सिर-पैर की बातें हैं, इग्नोर कर दे ना! परेशानी का भाव उसके चेहरे पर साफ-साफ झलक रहा था। पर उसी क्षण उसके चेहरे पर हँसी की कुटिल रेखा खिंच आई –‘लिली, उसको तो कभी कुछ पता ही नहीं चलता, और मैं उसको बहला-फुसला कर कितने ही रुपये ऐंठ लेता हूँ। तुझे पता भी है इस बात का?’ जोड़-तोड़ करके न जाने कितना काम निकलवा लेता हूँ? एक बार तो मैंने उसे केवल इतना कहा था, कि लिली के लिए कलाई घड़ी देखी है,उसे बहुत पसंद है! पिछले साल से वह कह रही है, पर...काश्श्श... मेरे पास पैसे होते, तो अभी के अभी...कि तुरंत उसने अपनी जेब खाली कर दी। मैं उसकी दुःखती रग जान गया हूँ, हा...हा...हा...। तो बस, हम तो लग गये, उसकी जेब खाली करने। अभी परसों ही, तेरा नाम लेकर पूरी जेब साफ कर दी, उन्हीं पैसों से हम लोगों ने मौज-मस्ती की और उबेर बुक करवा के हीप-हीप हुर्रेरेरेरे करते-करते घर आ गए। और वो पागल चप्पलें घिसता हुआ अपने घर पहुँचा।...ऐसे दो-चार बेवकूफों के कारण ही अपनी जवानी रंगीन रहती है। इसीलिए, अभी उससे दोस्ती तोड़ने की बात मत करना भाई...हाँ...कह देता हूँ !’
लिली की आँखे शो-केस के पास पड़ी कलाई घड़ी को देखती रह गई।
मम्मी पूजा-घर से बाहर आई, उसके माथे की रेखाएँ खिंची हुई सी लग रही थी।
‘आज पूजा ठीक से नहीं हुई क्या?’ देवीप्रसाद ने पत्नी के चेहरे को देखकर पूछ लिया।
‘नहीं...ध्यान ही नहीं लगा। रह-रहकर रूपा का चेहरा ही सामने आ रहा है और रविकुमार का वो प्रश्न...’ वाक्य पूरा हुआ और एक सिसकी सुनाई दी। उसने पीछे मुड़कर लिली के सामने देखा और फिर देवीप्रसाद की ओर –‘आज फिर से रविकुमार के घर से फोन आया था। पूछ रहे थे कि क्या करना है?’
‘करना क्या है इसमें? मैंने कहा तो था उनको कि एक-दो सप्ताह में जवाब देंगे। हमने तो बेटी को पूछना भी उचित समझा! वरना पहले के जमाने में बेटियों को पूछता ही कौन था! जहाँ ठीक लगा कि कर लिया मुँह मीठा और बात खतम्। इसे तो इतना पूछने पर भी खुलकर कुछ बताती ही नहीं ! कोई जवाब भी नहीं ! लिली, थोडा तो समझा कर। तेरी सगी बहन के लिए पसंद किया गया लड़का कोई ऐसा-वैसा थोड़ी न होगा? कोई नरक जैसा ठिकाना तो ढूँढा नहीं होगा न! देवता जैसा लड़का ढूँढा था। धन-धान से कितनी सुखी थी अपनी रूपा। बस, माँ बनकर जीने का सुख न भोग पाई, अभागी। कृष्ण-कनैया जैसे बच्चे को जन्म देकर मर गयी। आज नहीं तो कल, हमें तेरे लिए भी कोई-न-कोई ठिकाना तो ढूँढना ही है न, तो इसमें क्या खराबी है?’
‘एक बार नहीं हजार बार थूकती हूँ आपके इस स्वर्ग पर....!’ लिली गुस्से से तमतमा उठी।
‘हाय री ! देख तो सही... बाप के सामने बोलने का इसका ढंग? एक तेरे जीजाजी ही हैं, जिनके कारण अपना घर टिका है। कह रहे थे कि संजय को वे अपनी कंपनी में नौकरी दे देंगे। तेरे इस बाप को देख! पैसे खाए...पैसे खाए... कहकर नौकरी से निकाल कर, घर पर बिठा दिया। याद है न? क्या अंधे हैं सारे लोग? उनको दिखाई नहीं देता? यदि खाए होते तो तेरे बाप को लोगों के आगे-पीछे घूम-घूमकर, जी-हजूरी थोड़ी न करनी पड़ती? अंजी का एडमिशन साइंस में न करवा देते? और तुझे भरतनाट्यम की क्लासेज पूरी न करवाते? बीच में ही थोड़ी छुडवा लेते? सात साल पूरे न करवाते? पर, तेरा बाप भी ऐसा है तब न? दोस्तों पर अँधा विश्वास किया, तभी तो सारा दिवाला हुआ न। भुगतो अब! इनका दोस्त सांड की तरह खुले आम घुम रहा है, और ये! ये, अपने ही घर में मियाँ की बीबी की तरह अटके पड़े हैं। अधूरे में पूरा, बाप की बला बेटे के सिर। रिश्वतखोर का बेटा.... रिश्वतखोर का बेटा कह-कहकर जीते जी खा गये लोग, कौन नौकरी देगा अब इसको? ये तो तेरे जीजा जी है जिन्होंने आशा की एक किरण दिखाई। उन्हें देख-देख के दिन कट रहे हैं अपने। नहीं तो, मर जाने का जी करता है लिलकी।’ माँ का गला रूंध आया।
हवा में भारी मौन प्रसर गया।
थोड़ी देर बाद आर्द्र स्वर में बोली –‘घर में तू ही सबसे बड़ी है, छोटे भाई- बहनों के बारे में तुझे ही सोचना पड़ेगा न? बिन कही जिम्मेदारी है ये तो तेरी। अपने यहाँ से हम कोई स्पष्ट जवाब नहीं भेज रहे, उसकी चिंता में डूबे जा रहे हैं बेचारे रविकुमार। उनकी हालत तो देख तू! और ऊपर से छोटा बच्चा। रूपा की सास तो रूपा के ब्याह के समय ही कितनी बीमार थी। दिन ही कितने बचे है उसके? और मैं तो तेरे ऐसे व्यवहार से ही घबराई हुई हूँ। भगवान का ज़रा भी डर नहीं हैं तुझे? और भगवान का डर न हो, तो कोई बात नहीं। लेकिन इंसान तो है न तू? रूपा का लड़का, सौतेली माँ के पल्ले पड़ेगा तो वो न जाने कैसे-कैसे दुःख देगी। इसका कोई ख्याल भी ना है तुझे? उसका चेहरा देखकर भी तेरा मन नहीं पिघलता? कोई चचेरी-ममेरी बहन होती तो, वह भी उसके सुख का पल भर के लिए सोचती। तू तो सगी बहन के बच्चे की भी परवाह नहीं करती। तू इंसान है या पत्थर! और थोडा दूर का तो सोच! कोई दूसरी आएगी तो, वो उसके बच्चे के लिए संपत्ति में से हिस्सा मांगना शुरू कर देगी... रूपा की संतान को कहीं एक कोने में बिठा देगी। उससे तो अच्छा है कि घी अपनी ही थाली में रहे... तो क्या गलत बात है? उसका सब कुछ तेरा... पर एक तू है कि कुछ समझती ही नहीं!’ मम्मी धम्म से सोफे पर बैठ गयी।
देवीप्रसाद धीरे से बोले, ‘...नहीं रे... बहन के सुख का विचार बहन नहीं करेगी तो दूसरा कौन करेगा? तेरे पास अभी पूरा सप्ताह पड़ा है बेटा। पूरे सात दिन और सात रात। शांति से सोच-विचार लेना। अभी तुरंत जवाब देना जरुरी नहीं।’
सात दिन और सात रात।
लिली को तो ऐसा लगा मानो सात जन्म का अँधेरा एक साथ छा गया हो। कभी-कभी तो ख़ुद की ही साँसें उसे डरावनी लगने लगती। पल दो पल के लिए तो वह जान-बूझकर साँसे रोके रखती और महसूस करती, जैसे उसने समय को रोक लिया है। इस आत्मीय आनन्द की अनुभूति को वह स्वयं के भीतर खुद से ही छिपाए रखती। तभी रात का अँधेरा उसे घेर लेता। पर रात के अँधेरे से भी भयंकर उसे दिन का अँधेरा लगता था। अँधेरे से भी गहरा, एक अनदेखा अँधेरा।
रूपा का घर, उसका आँगन, उसके गहने, उसके बर्तन, उसका बच्चा और उसका पति... क्या केवल खून का रिश्ता होने भर से रूपा के पति को, पति बनने के लिए हाँ कर देना चाहिए? वो जब भी उसकी आँखों में देखेगा तब, उसको कौन दिखाई देगा? वो या रूपा? और वह खुद जब उसके सामने देखेगी तब? एक पुरुष के चेहरे में भी, हमेशा एक स्त्री का चेहरा ही दिखाई देगा –रूपा का चेहरा।
हवा के कण-कण में रूपा की आँखे फूटेगी –भीगी-भीगी और शांत आँखें। जिनमें तैरता हुआ, भीगा-भीगा सा एक सवाल –‘कैसा लगा मेरा पति?’ हाँ रूपा का पति। उसके आगे दुःख उड़ेलती वही रूपा, जिसके सुखी जीवन की उसने ही रात-दिन ईश्वर से कामना की थी। उसके बिगडैल पति के ‘सुधर जाने’ की कामना। और खुद जब काले मोतियों का चमकता हुआ नया मंगल-सूत्र पहनकर खड़ी होगी तब? तब भी इन मोतियों पर रूपा के नाम की अदृश्य छाप दिखाई देगी। सुख के इस यज्ञ में उसके बच्चे के नाम पर अपने वर्तमान और भविष्य की बलि चढ़ा देनी चाहिए? माँ बनने-न-बनने की पसंद-नापसंद, उसकी अपनी क्यों नहीं?
रात होते ही लिली एक अदृश्य डिब्बे का ढक्कन खोल देती। गूंथे हुए उस आटे में से थोडा-सा आटा लेकर देर तक मसलती रहती और रात तक सूरज की एक रोटी बेलती रहती। जब मध्यरात्रि का अँधेरा उसे आगोश में ले लेता तब उसकी आग से रोटी सेंककर सुबह तक उसका टुकड़ा-टुकड़ा कुरेद कर मुँह में रख चबाती रहती और उसके भीतर एक अनजानी-सी रोशनी फैलती रहती...
एक बार यूँ ही आधी रात को उसने अंजी को जगाकर पूछ लिया –‘तुझे मनु की बहुत दया आती है न?’ हडबडाते हुए, आँखें मसलती हुई अंजी ने जगकर लिली के सामने देखा। ऐसा लगा जैसे पूछ रही हो –‘कौन सी मनु? उसकी नींद भरी आँखों के सवाल का जवाब देती, लिली बोली –‘मनु... वो उपन्यास वाली मनु?’ पर रूपा की दया किसी को न आई। रूपा ने जो भुगता, वो मैं नहीं भुगतुंगी। उस बड़े घर में अपनी रूपा उनकी कंपनी के एक आकर्षक विज्ञापन के जैसी ही तो थी! जिन्दा थी तब तक स्वर्ग में रही, स्वर्गवासी बनकर रही... छूट गई बेचारी...’
उस रात अंजी काफ़ी देर तक जागती रही पर लिली गहरी नींद सोई।
आठवें दिन भी सूरज खिड़की के छज्जे के किनारे पर टंग गया था और हमेशा की तरह रोशनी पूरे रसोईघर में फैल गई। बैठक रूम का शोर उससे भी दुगुनी गति से फैल गया। ‘लिली, आज हम जवाब दे दें?’
लिली रसोईघर में फैली हुई रोशनी की ओर एक टक देखती रही। आज वह बैठक रूम में थी और अंजी रोटी बेल रही थी।
लिली ने खिड़की से बाहर देखा, एक कुत्ता दुम हिलाता हुआ बाहर खड़ा था।
‘जवाब क्या देना है? शर्म में क्या रहना ? साफ-साफ इनकार कर देना। मेरी ज़िंदगी कोई ‘हम आपके है कौन’ फिल्म तो नहीं हैं न? वो रूपा थी और मैं लिली हूँ।’ सबके चेहरे स्तब्ध और चुप हो गए। दो पल की जानलेवा चुप्पी को तोड़ते हुए लिली फिर बोली –‘मम्मी, इस बार कुत्ते को पहली रोटी नहीं डाली जाएगी।’
‘क्या बोल रही है, कुछ होश-वोश है कि नहीं तुझे? है तेरे बाप की इतनी पहुँच? सबका सब कुछ सोच-समझकर ही कहा होगा न तुझे? तेरे बाप को भोला समझने की भूल मत करना?’
‘नहीं, ...ऐसी भूल मैंने नहीं की... भोला आदमी! कैसे? वो तो धुरंधर खिलाड़ी है, खिलाड़ी! सबका सब कुछ सोचा होगा... पर मेरे बारे में सोचना ही भूल गए...नहीं? पर मैंने, सोचा है मेरा। अब मुझे सफेद रंग भाने लगा है।’
बैठे हुए लोगों की आँखें मानो पथरा गई। उन पथराई आँखों पर एक मूरत बनाते हुए लिली बोली –‘नंदु... वही नंदु, जिसने मुझे पूछा था कि...’
‘...पर वो तो तुझे फूटी आँख भी नहीं सुहाता था...अब अचानक... कब? कैसे?’ अंजी पीछे घूमकर पूछ रही थी।
अंजी, आँखें तो अब खुली है मेरी। जो मुझे फूटी आँख न सुहाता था उसने सदैव मेरी आँखों को निहारा है, उसकी नज़र कभी मेरी आँखों से नीचे गई ही नहीं ! और जिसने मेरी आँखें देखी है, उसने कभी मेरी आँखों में नहीं देखा, आँख के नीचे से ही नापा है मुझे। मैं देवीप्रसाद का प्रसाद जरुर हूँ पर उनकी इच्छा से मेरा भोग नहीं चढ़ेगा। लिली का ये फूल खिलने के लिए है, किसी के चरणों में चढ़ाने के लिए नहीं। नंदु ने मुझे उस प्रश्न के साथ-साथ और भी बहुत कुछ पुछा था। मेरा पसंदीदा रंग और.... और भी बहुत कुछ...’
लिली खड़ी हो गई।
खिड़की में से हवा का एक तेज झोंका आया। बैठक रूम के टी टेबल के एक किनारे पर पड़े ‘महानंदा’ उपन्यास के पन्ने फर्र-फर्र उलटने लगे और लिली घर की सीढियाँ उतरकर उस सफ़ेद शर्ट वाले नंदु की गली की तरफ चलने लगी। सीढ़ियाँ उतरते वक़्त उसे लगा मानो आज पहली बार सूरज, चन्द्रमा-सी ठंडक लेकर उदित हुआ है।
आज पहली बार, कुत्ता पहली रोटी खाए बिना ही वापस लौट गया।
(गुजरात से हिंदी की सम्पूर्ण साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका विश्व गाथा में (अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर 2023) प्रकाशित कहानी)
मूल लेखिका: डॉ. पन्ना त्रिवेदी का साहित्यिक परिचय
Dr. Panna Trivedi Biography in Hindi
डॉ. पन्ना त्रिवेदी
कहानी, कविता, आलोचना, अनुवाद एवं सम्पादन में सक्रिय लेखन। प्रवर्तमान समय में वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय सूरत (गुजरात) में असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में कार्यरत है। उनकी अधिकत्तर रचनाएं आकाशवाणी केंद्र और दूरदर्शन पर से प्रसारित हुई है और अधिकतर भारतीय भाषाओँ में उनकी मौलिक रचनाएं अनूदित हुई है। ३० पुस्तक प्रकाशित
मातृभाषा : गुजराती
कहानी संग्रह : आकाशनी एक चीस / रंग विनानो रंग / सफ़ेद अंधारु / सातमो दिवस / फूल बज़ार / बर्फ़ना माणसो
काव्यसंग्रह : एकांतनो अवाज़ (गुजराती) / ख़ामोश बातें (हिंदी कवितासंग्रह)/ पंख में बारिश (हिंदी कवितासंग्रह) / मोजार (गुजराती)
आलोचना : गुजराती साहित्यमाँ रेखाचित्रनि गतिविधि / प्रतिस्पंद / यथार्थ / चाद के पार / भारत विभाजन
संवेदना : उपन्यासकार अमृता प्रीतम तथा कहानीकार गुलज़ार के संदर्भ में / अवलोकना / मनीषा जोषीनी कविता/ परिष्कृत
अनुवाद : मारो परिवार (मू.ले. महादेवी वर्मा) / जवाहर टनल (मू. कवि अग्निशेखर) / चित्रा देसाईनां काव्यो / आधी - आधी जिंदगी (पन्ना नायक की कवितायें)
सम्पादन : गुजराती रेखाचित्रो / नवलिका चयन वर्ष २०१५ / गुजराती नवलेखन (नेशनल बुक ट्रस्ट)
पुरस्कार और सम्मान :
• साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा ‘ओथार्स ट्रावेल ग्रांट’ से पुरस्कृत वर्ष २००५
• गुजराती साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत ‘एकांतनो अवाज़’ कवितासंग्रह , वर्ष २०१०
• ‘कुमार’ द्वारा कमला परीख अवोर्ड से सम्मानित श्रेष्ठ कहानी ‘रिहाई’ के लिए वर्ष २०१२
• धूमकेतु अवोर्ड श्रेष्ठ कहानी संग्रह ‘सफ़ेद अंधारु’ वर्ष २०१४
• गुजरात साहित्य अकादमी प्रथम पुरस्कार ‘प्रतिस्पंद’ (आलोचना) के लिए वर्ष २०१४
• गुजराती साहित्य परिषद द्वारा कहानी संग्रह ‘सफ़ेद अंधारु’ को सिस्टर निवेदिता अवोर्ड
• केतन मुंशी एवोर्ड श्रेष्ठ कहानी ‘आँख’ के लिए, २०१७
• डॉ. सुरेश जोषी अवोर्ड कुमार फाऊडेशन द्वारा पुरस्कृत ‘यथार्थ’ (आलोचना) के लिए, वर्ष २०१७
• गुजराती साहित्य अकादमी अनुवाद पुरस्कार ‘जवाहर टनल’, २०१८
• गुजराती साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत ‘परब’ श्रेष्ठ आलेख ‘ट्रेन टु पाकिस्तान: एक अविस्मरणीय यात्रा’ वर्ष २०१८
• स्मिता पारेख एवोर्ड द्वारा पुरस्कृत श्रेष्ठ कहानी ‘शबीना शेखनी अम्मी’ के लिए २०२१
• श्री प्रमोद राय भीमजी भाई पारेख पुरस्कार नवनीत समर्पण प्रतिमाह श्रेष्ठ कहानी एवोर्ड ‘शबीना शेखनी अम्मी’ के लिए २०२२
• गुजराती साहित्य परिषद द्वारा सुरेशा मजमुदार पुरस्कार ‘जवाहर टनल’ अनुवाद के लिए वर्ष २०२२
• विश्वभारती संस्थान, अहेमदाबाद द्वारा श्रीमती स्मिता किरीटभाई शाह नवलिका गौरव पुरस्कार २६ मार्च २०२३ इंदौर
संपर्क;
डॉ. पन्ना त्रिवेदी
असिस्टेंट प्रोफेसर, गुजराती विभाग
वीर नर्मद दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय
उधना मगदल्ला रोड
सूरत -०७, गुजरात
Mob. 9409565005
pannatrivedi20@yahoo.com
अनुवादक: डॉ. विरल पटेल ‘वीर'
डॉ. विरल पटेल ‘वीर'
c/o पटेल इलेक्ट्रिकल,
बी/4 योगेश्वर काम्प्लेक्स -कामेश्वर स्कूल के पास,
जोधपुर चार रास्ता, सेटेलाइट, अहमदाबाद-380015
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ईमेल- viralamt31@gmail.com
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